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चोर-चौकीदार की राजनीति : क्या जनता फिर करेगी तिलांजलि?

बिहार की सियासत एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर खड़ी है। अक्टूबर – नवंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनाव को लेकर सूबे का राजनीतिक तापमान लगातार बढ़ रहा है। इस बार एनडीए ने चुनावी जंग के लिए जो दोधारी रणनीति गढ़ी है, उसने विपक्ष की राह कठिन कर दी है। एक ओर राष्ट्रवाद की तेज़ हवा, दूसरी ओर जातीय संतुलन का सधा हुआ समीकरण के बीच वोट चोरी, बिहार के राजनीतिक परिदृश्य को उलट-पलट दिए है। बाजी किसके हाथ लगेगी, ये तो वक्त बतायेगा. लेकिन इतिहास गवाह है जनता नारों से प्रभावित होती है, लेकिन बार-बार एक ही सुर में “चोरी-चोरी” की रट अंततः उसे उबाती है। राजीव गांधी इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं। राहुल गांधी यदि उसी रणनीति पर टिके रहे तो उन्हें भी वही परिणाम भुगतना पड़ सकता है। मतदाता आज आरोपों से ज़्यादा समाधान चाहता है। यदि विपक्ष ठोस एजेंडा और विश्वसनीय चेहरा नहीं देगा तो जनता फिर “चोर-चौकीदार” की राजनीति को तिलांजलि देगी. यह अलग बात है कि राहुल गांधी का ‘वोट चोरी’ आरोप बिहार चुनावी माहौल को गरम जरूर कर रहा है, पर यह अकेले परिणाम तय करने वाला नहीं दिखता। यह मुद्दा उन सीटों पर असर डाल सकता है जहां मुकाबला बेहद करीबी हो और मतदाता सूची की गड़बड़ियों से वास्तविक वोटिंग प्रभावित हो। बड़े पैमाने पर जनता अब भी रोज़मर्रा की समस्याओं को प्राथमिकता दे रही है। आने वाले हफ्तों में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या विपक्ष इस बहस को ठोस सबूतों और जन-आंदोलन का रूप दे पाता है, या यह मुद्दा सिर्फ चुनावी बयानबाज़ी तक सीमित रह जाएगा।

सुरेश गांधी

भारतीय लोकतंत्र में जनता की स्मृति बहुत पैनी है। 1989 का चुनाव इसका साक्षात उदाहरण है। 400 से अधिक सीटों पर अपार बहुमत पाकर प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी की सरकार अचानक बिखर गई। वजह थी वही गली-गली गूंजता नारा, “राजीव गांधी चोर है।” बोफोर्स जैसे मुद्दे ने जनता को विचलित किया और इतिहास गवाह है कि मतदाता ने सबसे बड़े बहुमत वाली सरकार को भी ठुकरा दिया। आज राहुल गांधी भी कुछ उसी राह पर दिखाई दे रहे हैं। आज लगभग वही दृश्य राहुल गांधी के राजनीतिक भाषणों में दिखता है। कभी “चौकीदार चोर है”, कभी “वोट चोरी”, तो कभी संसद में प्रधानमंत्री मोदी को लेकर “डंडे मारेंगे” जैसे शब्दों से माहौल गरमाने का प्रयास करते हैं। राहुल गांधी अपनी भारत जोड़ो यात्रा और जनसभाओं के नाम पर वे जिस वर्ग को साधने निकलते हैं, उसमें भी यह रट सुनाई देती है कि सत्ता चोरी कर ली गई है। वे जनता से संवाद करते हुए भी सत्ता को “चोरी की उपज” बताते हैं। सवाल यह है कि क्या मतदाता फिर वही “चोरी-चोरी” की राजनीति सुनेगा?

2019 का नजारा अभी पुराना नहीं हुआ है। उस समय राहुल गांधी ने “चौकीदार चोर है“ का नारा अपनी पूरी ताकत और ऊर्जा से प्रचारित किया। लेकिन जनता ने उसका उल्टा असर दिखाया और नरेंद्र मोदी को पहले से भी बड़े बहुमत के साथ प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा दिया। यानी जनता ने साफ संदेश दिया कि केवल आरोपों से राजनीति नहीं चलती, विकल्प और दृष्टि भी चाहिए। राहुल गांधी की रणनीति कहीं न कहीं अपने पिता के राजनीतिक हश्र की याद दिलाती है। राजीव गांधी का नारा जनता ने एक बार तो स्वीकार कर लिया, लेकिन बार-बार उसी चोट पर हथौड़ा चलने से मतदाता ऊब गया और परिणाम सत्ता से विदाई के रूप में सामने आया। आज वही गलती राहुल दोहरा रहे हैं। देश आज विकास, सुरक्षा, रोजगार और वैश्विक प्रतिष्ठा जैसे सवालों पर सोच रहा है। ऐसे में केवल “चोर-चोर” की गूंज शायद ही वोटों में तब्दील हो। जनता की कसौटी पर केवल नकारात्मक राजनीति नहीं, बल्कि सकारात्मक विकल्प खरा उतरता है। अब यह राहुल गांधी पर है कि वे अपने पिता की राजनीतिक भूल से सबक लें या फिर वही इतिहास दुहराएं, जब “चोर“ का शोर सबसे बड़ी जीत को भी पराजय में बदल गया था।

बिहार की राजनीति सदियों से जातीय समीकरणों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। यही कारण है कि एनडीए ने अपनी चुनावी बुनियाद जातीय संतुलन पर टिकाई है। बीजेपी का सवर्ण और शहरी वोट बैंक, जेडीयू का कुर्मी और अतिपिछड़ा आधार, चिराग पासवान की दलितों में पैठ, जीतनराम मांझी की मुसहरों पर पकड़ और उपेंद्र कुशवाहा का कोइरी वोट, यह पूरा गठबंधन लगभग 65 प्रतिशत मतदाताओं को साधने का दावा कर रहा है। मोदी सरकार द्वारा आगामी जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने की घोषणा ने विपक्ष का बड़ा हथियार भी कुंद कर दिया है। इंडिया गठबंधन के लिए चुनौती सिर्फ जातीय गणित तक सीमित नहीं है। एनडीए ने हिंदुत्व के मुद्दे को भी धार देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गृहमंत्री अमित शाह द्वारा माता सीता मंदिर निर्माण की घोषणा और गिरिराज सिंह की ‘सनातन यात्रा’ ने बीजेपी कार्यकर्ताओं में नई ऊर्जा भरी है। पार्टी का उद्देश्य स्पष्ट है, जातियों में बिखरे हिंदू वोटों को एकजुट करना। राहुल गांधी और तेजस्वी यादव की जोड़ी वोट चोरी के साथ बेरोजगारी, महंगाई और सामाजिक न्याय जैसे सवालों को चुनावी विमर्श में लाने की कोशिश कर रही है। किंतु जब विपक्ष के प्रमुख मुद्दों, जातिगत जनगणना और सामाजिक न्याय, पर ही केंद्र सरकार ने बढ़त ले ली हो, तो चुनौती और गहरी हो जाती है। सवाल यह है कि क्या विपक्ष राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और मजबूत जातीय गठजोड़ से सजे इस चक्रव्यूह को भेद पाएगा? या फिर बिहार की राजनीति एक बार फिर मोदी-नीतीश की जोड़ी पर भरोसा जताएगी?

राष्ट्रवाद और जातीय संतुलन
पहलगाम हमले के बाद भारतीय सेना की “ऑपरेशन सिंदूर” कार्रवाई ने इस चुनाव को नया रंग दे दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बिहार की धरती से ही आतंक को जड़ से मिटाने का संकल्प लिया था और ऑपरेशन के सफल होने का श्रेय अब बीजेपी पूरी ताकत से भुना रही है। 2019 के एयरस्ट्राइक और सर्जिकल स्ट्राइक की तरह इस बार भी राष्ट्रवाद का भावनात्मक असर मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता रखता है। वैसे भी बिहार का यह चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन की लड़ाई नहीं, बल्कि दो विचारधाराओं की टक्कर है, राष्ट्रवाद बनाम सामाजिक न्याय। मतदाताओं का फैसला ही तय करेगा कि यह चुनाव भावनाओं का होगा या मुद्दों का। फिलहाल, एनडीए की तैयारियों और विपक्ष की उलझनों को देखकर इतना कहना गलत न होगा कि सत्ता की डगर इस बार भी विपक्ष के लिए आसान नहीं दिखती। बिहार में एनडीए की जीत का नया फॉर्मूला के साथ ही मोदी : नीतीश के सामने विपक्ष की कठिन परीक्षा तो है ही. ऑपरेशन सिंदूर से हिंदुत्व एजेंडे तक, एनडीए आक्रामक है। मतलब साफ है जाति और राष्ट्रवाद की जुगलबंदी के बीच बड़ा सवाल तो यही है क्या विपक्ष तोड़ पाएगा एनडीए का किला?

बोफोर्स और राजीव गांधी की पराजय
साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद करुणा और सहानुभूति व करुणा की लहर में कांग्रेस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की। राजीव गांधी 400 से अधिक सीटों के साथ प्रधानमंत्री बने। परंतु यह विजय अधिक समय तक टिक न सकी। 1987 में बोफोर्स तोप सौदे में रिश्वतखोरी के आरोपों ने कांग्रेस की छवि धूमिल कर दी। उसी दौर में नारा गूंजाकृ“गली-गली में शोर है, राजीव गांधी चोर है।” इस नारे ने जनता के मन में गहरी चोट की और विपक्ष ने इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूर्व वित्त मंत्री वी.पी. सिंह कांग्रेस से अलग होकर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के ध्वजवाहक बने। जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर, देवीलाल और अन्य नेताओं ने मिलकर जनता दल का गठन किया और विपक्ष को एकजुट किया। परिणामस्वरूप 1989 में राजीव गांधी को पराजय का सामना करना पड़ा और वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री बने।

फर्क क्या है 1989 और 2024-25 में?
1989 में विपक्ष के पास वी.पी. सिंह जैसा चेहरा था, जिसने खुद राजीव गांधी की सरकार में रहते हुए ईमानदार छवि बनाई। उनके साथ जॉर्ज फर्नांडीस जैसे जुझारू नेता और देवीलाल जैसे किसान नेता भी खड़े थे। जनता दल ने भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को ठोस वैकल्पिक राजनीति से जोड़ा। देवीलाल, चंद्रशेखर, अजीत सिंह जैसे नेताओं ने जनता दल को मजबूत किया। नतीजा यह हुआ कि 1989 के आम चुनाव में, कांग्रेस : 197 सीट (1984 की 404 से सीधी गिरावट), जनता दल : 143 सीट, बीजेपी : 85 सीट (रामजन्मभूमि आंदोलन की पृष्ठभूमि में), वाम दल : 52 सीट. कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद सत्ता से बाहर हो गई। वी.पी. सिंह जनता दल के प्रधानमंत्री बने और राजीव गांधी विपक्ष में बैठने को मजबूर हुए। लेकिन आज विपक्ष का गठजोड़ इतना मजबूत नहीं दिखता। राहुल गांधी भ्रष्टाचार के आरोप तो लगाते हैं, परंतु न तो उनके पास ठोस वैकल्पिक आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि है और न ही विपक्ष का कोई साझा नेतृत्व। यही वजह है कि बार-बार “चोरी” की दुहाई जनता को खोखली लगती है।

जनता का मूड और आगे की राह
भारतीय मतदाता भावुक तो होता है, लेकिन बार-बार नकारात्मक प्रचार से ऊब जाता है। जनता को आज रोजगार, विकास, महंगाई और सुरक्षा के मुद्दों पर ठोस जवाब चाहिए। केवल आरोपों की झड़ी शायद ही जनता को आकर्षित करे। अब सवाल यही है कि राहुल गांधी अपने पिता के दौर की पराजय से सबक लेंगे या नहीं। क्या वे केवल “चोर” का शोर मचाते रहेंगे, या फिर वी.पी. सिंह और जॉर्ज फर्नांडीस की तरह भ्रष्टाचार-विरोधी मुद्दे को ठोस विकल्प और सकारात्मक राजनीति से जोड़ पाएंगे? यदि ऐसा नहीं हुआ तो इतिहास खुद को दोहरा सकता है, और जनता फिर “चोरी-चोरी” की दुहाई को तिलांजलि दे सकती है।

बिहार चुनाव से पहले ‘वोट चोरी’ का असर?
बिहार विधानसभा चुनाव नज़दीक आते ही मतदाता सूची की समीक्षा (स्पेशन इंटेंसिव रिविजन – एसआईआर) ने नया राजनीतिक विवाद खड़ा कर दिया है। कांग्रेस नेता राहुल गांधी और महागठबंधन के सहयोगी दल लगातार आरोप लगा रहे हैं कि इस प्रक्रिया के नाम पर बड़े पैमाने पर “वोट चोरी” हो रही है। उनका कहना है कि लाखों मतदाताओं के नाम बिना वजह हटा दिये गये हैं, जिससे लोकतांत्रिक अधिकारों पर आघात हुआ है। बता दें, चुनाव आयोग ने मतदाता सूचियों को दुरुस्त करने के लिए राज्य-व्यापी पुनरीक्षण का आदेश दिया था। उद्देश्य था, डुप्लीकेट नामों को हटाना और नए योग्य मतदाताओं को शामिल करना। लेकिन कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों का आरोप है कि यह प्रक्रिया “संस्थागत वोट चोरी” में बदल गई। राहुल गांधी ने अपनी ‘वोटर अधिकार यात्रा’ में इसे लोकतंत्र के खिलाफ साजिश बताते हुए चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए। आयोग ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि नाम हटाने-जोड़ने की पूरी प्रक्रिया पारदर्शी है, ड्राफ्ट रोल सार्वजनिक है और सुधार के लिए पर्याप्त समय दिया गया है।

आंकड़े और सर्वे क्या कहते हैं
चुनाव आयोग को 7.24 करोड़ से अधिक मतदाताओं के जवाब मिले हैं, लेकिन शुरुआती आकलन में लगभग 65 लाख नाम हटने की संभावना बताई गई। एक छोटे सर्वे में करीब आधे लोगों ने ही संपूर्ण फ़ॉर्म भरा था, शेष को प्रक्रिया की पूरी जानकारी नहीं थी। कई वैध मतदाताओं के नाम ड्राफ्ट सूची से गायब मिले। ये तथ्य संकेत देते हैं कि लोगों में भ्रम और असंतोष है, पर अब तक ऐसा कोई ठोस राज्य-व्यापी सर्वे उपलब्ध नहीं है जो बताए कि ‘वोट चोरी’ मतदाताओं की पहली प्राथमिकता बन चुकी है। बेरोज़गारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी ढांचे जैसे मसले अब भी सबसे अहम हैं। कई मतदाता मतदाता-सूची की जटिलताओं से परेशान तो हैं, परंतु यह उनकी वोटिंग पसंद का एकमात्र कारण नहीं दिखता।

राजनीतिक असर की संभावनाएं

  1. जागरूकता और दबाव : इस बहस ने मतदाता अधिकारों पर राज्य-भर में नई चर्चा छेड़ दी है। चुनाव आयोग पर पारदर्शिता बढ़ाने का दबाव है।
  2. स्थानीय प्रभाव : जिन इलाकों में नाम हटने की शिकायतें अधिक हैं, वहाँ विपक्ष को कुछ सहानुभूति मिल सकती है।
  3. मुद्दों की बहुलता : विकास, रोज़गार और कानून-व्यवस्था जैसे प्रश्न अभी भी निर्णायक रहेंगे; केवल ‘वोट चोरी’ चुनाव का एजेंडा तय नहीं कर पाएगी।

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