पत्रिका में बचपन के लिए जगह क्यों नहीं है?
डॉ विजय गर्ग
स्तंभ: आजकल की पत्रिकाएँ पढ़ते हुए ऐसा लगता है मानो बचपन कहीं पीछे छूट गया हो। हर पन्ना, हर कॉलम, हर विषय—सब कुछ बड़ों की दुनिया में खो गया है। फ़ैशन, फ़िटनेस, करियर, गैजेट्स, राजनीति, रिश्ते—बचपन से जुड़े मुद्दे भीड़ में दब गए हैं। सवाल यह है कि पत्रिकाओं में बचपन के लिए जगह कम क्यों है?
विपणन पर व्यावसायिक दबाव
पत्रिकाओं का मुख्य लक्षित पाठक वयस्क होते हैं क्योंकि वे इन्हें खरीद सकते हैं। विज्ञापन के मामले में भी, बच्चों के मुद्दों को कम प्राथमिकता दी जाती है। नतीजतन, बचपन की ज़रूरतों, मुश्किलों या खुशियों पर आधारित कहानियाँ जगह नहीं बना पातीं।
तेज रफ्तार दुनिया में बचपन ‘ट्रेंड से बाहर’
आज की सामाजिक मानसिकता तेज़, प्रखर और प्रतिस्पर्धी है। पत्रिकाएँ भी इसी दौड़ को दर्शाती हैं। बचपन की मासूमियत, खेल, कहानियाँ, अनुभव सब कुछ ‘धीमी सामग्री’ कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

वयस्क चिंताओं की अधिकता
पत्रिकाएँ आजकल के वयस्कों की चिंताओं से भरी पड़ी हैं—तनाव, करियर का दबाव, रिश्ते, स्वास्थ्य, वैश्विक मुद्दे। इस बोझ तले बचपन की खुशबू खो जाती है। मानो बचपन की कहानियाँ कोई मायने ही नहीं रखतीं।
डिजिटल ने बच्चों की दुनिया पर कब्ज़ा कर लिया है।
बच्चों के लिए सामग्री अब यूट्यूब, ऐप्स या एनिमेटेड प्लेटफ़ॉर्म पर आ गई है। पत्रिकाओं ने मान लिया है कि बच्चों की यह पीढ़ी अख़बार के पन्ने नहीं खोलती। इसी ग़लतफ़हमी के चलते उन्होंने बच्चों के लिए सामग्री कम कर दी है।
बचपन के विषयों को ‘गंभीर’ नहीं माना जाता
पत्रिकाओं में यह भ्रम फैलाया जाता है कि बच्चों से जुड़े विभिन्न विषय—जैसे मनोविज्ञान, बाल सुरक्षा, रचनात्मकता, खेल और कहानियाँ—गंभीर नहीं हैं। लेकिन हकीकत में, यही वे विषय हैं जो समाज के भविष्य को आकार देते हैं।
लेकिन बचपन की अनुपस्थिति एक मौन खतरा है।
जब पत्रिकाओं से बचपन गायब हो जाता है, तो हम उस पीढ़ी के सवालों को भूल जाते हैं जो कल के समाज का निर्माण करेगी। उनकी मनोवैज्ञानिक ज़रूरतें, सुरक्षा, रचनात्मकता, सीखने की क्षमता – ये सब मीडिया के उपभोग में गायब होने लगते हैं।
क्या परिवर्तन की जरूरत है?
✔ पत्रिकाएँ बचपन से फिर से जुड़ेंगी
बच्चों की कहानियों, विज्ञान कोना, मनोविज्ञान और पालन-पोषण को भी प्राथमिकता दी गई।
✔ मासूमियत और रचनात्मकता को महत्व दें
बचपन सिर्फ़ चॉकलेट, कार्टून और खिलौनों तक सीमित नहीं है। यह एक रस्म है, भविष्य की एक तस्वीर है।
✔ बचपन को एक ‘महत्वपूर्ण’ विषय माना जाना चाहिए

मीडिया की यह जिम्मेदारी है कि वह समाज की सबसे युवा आवाज को भी स्वीकार करे।
पत्रिकाओं में बचपन के लिए जगह की कमी सिर्फ़ एक संपादकीय फ़ैसला नहीं है—यह एक सामाजिक चलन का संकेत है। जहाँ हम अपनी ही चिंताओं में उलझे रहते हैं, और भविष्य की चमक को पीछे छोड़ देते हैं। अगर मीडिया बचपन की बात नहीं करेगा, तो समाज उस मासूम उम्र की अहमियत कब समझेगा?
( लेखक शैक्षिक स्तंभकार मलोट पंजाब के सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य हैं)





