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राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक नहीं रोक सकते, मंजूरी या कार्रवाई तय समय में जरूरी : सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया कि राज्यपाल के पास किसी भी बिल पर निर्णय लेने के लिए अनिश्चितकाल तक इंतजार करने या प्रक्रिया रोककर रखने का अधिकार नहीं है। अदालत ने कहा कि “डीम्ड असेंट” (निर्धारित समय में मंजूरी मान लेना) का सिद्धांत संविधान की भावना और शक्तियों के बंटवारे के मूल सिद्धांत के अनुरूप नहीं माना जा सकता, लेकिन साथ ही राज्यपाल बिल को अनिश्चितकाल तक लंबित भी नहीं रख सकते। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ—जिसमें जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी.एस. नरसिम्हा और जस्टिस ए.एस. चंदुरकर शामिल थे—ने 10 दिनों तक दलीलें सुनने के बाद 11 सितंबर को फैसला सुरक्षित रखा था।

अदालत ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल के पास बिल पर निर्णय लेने के केवल तीन विकल्प हैं—

  1. बिल को मंजूरी देना
  2. बिल को पुनर्विचार के लिए विधानसभा को वापस भेजना,
  3. बिल को राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रखना।

कोर्ट ने कहा कि ‘प्रोवाइजो’ को चौथा विकल्प नहीं माना जा सकता। पीठ ने यह भी टिप्पणी की कि भारतीय संघवाद के ढांचे में यह स्वीकार्य नहीं है कि राज्यपाल किसी बिल को बिना सदन को लौटाए अनिश्चितकाल तक रोके रखें। फैसले में कहा गया कि चुनी हुई सरकार और कैबिनेट “ड्राइवर की सीट” में होती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि राज्यपाल का पद केवल औपचारिक हो जाता है। राज्यपाल और राष्ट्रपति दोनों की भूमिका संवैधानिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण है, परंतु इन पदों का उद्देश्य संवाद, सहयोग और संतुलन बनाए रखना है—न कि टकराव पैदा करना। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट संदेश दिया कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को टकराव की बजाय संवाद और सहयोग की भावना अपनानी चाहिए, ताकि संघवाद की मूल भावना कायम रह सके।

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