पुरोला की कमल और नौगांव की यमुना के बहाने ‘नमामि गंगे’
नीरज जोशी
देहरादून से 90 किमी दूर चकराता होते हुए 80 किमी आगे त्यौंनी का उतार इस सर्द मौसम में काफी दुरूह है। करीब 30 किमी की सड़क इतनी कच्ची कि हिचकोलों के साथ कभी-कभी भय की लकीरें भी माथे पर चस्पा हो जाएं, लेकिन कुछ आगे उतरती सड़क के साथ चलती टौंस नदी का दूधिया जलप्रवाह ऐसा चौंधियाता है कि सारा डर काफूर हो जाता है। यह देखना सुखद और आश्चर्य जनक है कि हिमालय के ग्लेशियरों से निकलने वाली भागीरथी, यमुना, मन्दाकिनी, पिंडर और कई अन्य धाराओं से कहीं ज्यादा जलप्रवाह टौंस समेटे हुए है। जलराशि के मामले में अलकनंदा ही टौंस का मुकाबला करती दिखाई देती है। देहरादून की त्यौंनी तहसील और उसके लगभग 20 किमी आगे जौनसार बावर के सबसे बड़े तीर्थ हनोल तक जिला देहरादून होना भी कम बड़े आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन इससे भी बड़ा आश्चर्य यह है कि उत्तराखण्ड की इस सम्पन्न टौंस घाटी को न तो देहरादून जिले के साथ होने में कोई दिक्कत है, न ही उन्हें चकराता से त्यौंनी तक उतरने वाली उस सड़क को लेकर कोई व्यग्रता है जो जगह-जगह उखड़ी हुई है। त्यौंनी के लक्ष्मीकांत जोशी आश्वस्त हैं, जाड़े में हॉटमिक्स बर्फ और पाले के कारण उखड़ जाता है। अप्रैल में सड़क चकाचक हो जाएगी।
बहरहाल, हिमालय की नदियों की सेहत की सुध लेने की इस हनक में पता चला कि हनोल से आगे उत्तरकाशी जिले की मोरी तहसील और उसके बाद हरकी दून होते हुए हिमाचल के शिमला जिले के पृष्ठ प्रदेश को टौंस और पब्बर नदी का खूब हमसाया मिला है। इसलिए टौंस घाटी फसल और सब्जियों के उत्पादन से संपन्न बनी हुई है। कुछ उत्साही स्वयंसेवकों का श्रमदान इस घाटी के लिए इतना फलीभूत हुआ है कि दिल्ली की मदरडेरी तक इनका विपणन तंत्र विकसित हुआ है। गढ़वाल में अब भी पानी प्रचुर मात्रा में है। विमल दूध सी इन हिम सरिताओं के अलावा स्थानीय नदी नाले और गधेरों में भी इतना पानी है कि अभी तक कहीं कहीं घराट चल रहे हैं। उद्यमी काश्तकारों ने इन्हीं सदानीरा गधेरों से नहरें निकालकर बड़े-बडे़ फसलों से लहलहाते सेरे बनाये हैं। जौनसार बावर के एक अध्यापक बताते हैं उत्तराखण्ड का यही इलाका है जहां से पलायन बहुत कम हुआ है। प्रगति के लिए विस्थापन हो सकता है, लेकिन रोजी रोटी के लिए इस क्षेत्र से कोई पलायन नही हो रहा है। उत्तरकाशी की मोरी तहसील यानि बाजार से पुरोला की दूरी शायद 65 किमी होगी। इस दूरी को प्रकाश रहते जहां तक हम देख पाये छोटी-छोटी नदी और जलस्रोतों ने विपुल वैभव दिया है। छोटे-छोटे काश्तकार मटर और टमाटर बेचकर मनमाफिक आय अर्जित कर रहे हैं। उत्तरकाशी जिले की दूसरी हिमाचल से सटी महत्वपूर्ण तहसील पुरोला पहुंचते रात ढल गई।
17 दिसंबर की पुरोला की वह सर्द सुबह कितनी ठंडी थी इसका आभास तो कुमाऊं की चमकीले घाम-धूप को खाने के बाद ही हुआ, लेकिन नदी के बहने की आवाज के साथ होटल से बाहर निकले तो पता चला पुरोला शहर कमल नदी के आरपार बसाया गया है। कमल नदी से शहर को ऐसे सटा दिया गया है कि कमल की धारा कहीं-कहीं मकानों की दीवारें छूती चली जा रही है। केदारनाथ की 2013 की आपदा के बाद आश्चर्य होता है कि लोगों को इन नदियों की विपुल जलसंपदा से भय क्यों नहीं लगता। इसका प्रत्युत्तर पुरोला के सम्पन्न काश्तकारों के पास है। कमल नदी पुरोला और उसके आसपास के गांवों की जीवन रेखा है। कमल ने उनकों लहलहाते खेत फसलें, बागवानी और फल-फूल दिये है। अभी भी उनके पास मवेशियों के लिए चारा प्रचुर मात्रा में है जबकि उत्तराखण्ड के बाकि हिस्सों में चारे और पानी के अभाव में कृषि एवं पशुपालन का परंपरागत कारोबार रीत गया है निर्बाध पलायन का एक बड़ा कारण यह भी है। इसके बावजूद लाखों लोगों को समृद्धि देती कमल नदी खतरे में है और पुरोला को इसकी परवाह नही है। पुरोला के घरों से निकलने वाले मल-जल के सारे निकास कमल के प्रवाह में समा रहे हैं। टनों सर्फ और साबुन के साथ घरों की गंदगी, अपशिष्ट का बोझ कमल पर लाद दिया जा रहा है। अलसुबह एक महिला को एक टिन में भरा काला कचरा नदी में प्रवाहित करते देख कर तो किसी की भी आखें विस्फरित हो सकती हैं। मायके में नदियों की यह गत वह भी देवभूमि में! यदि कमल नदी की सेहत के लिए जल्दी से कुछ नही किया गया तो दिल्ली की यमुना या लंदन की टेम्स जैसे उपचार भी इसे गंदा नाला बनने से नहीं रोक पाएंगे। केंद्र-राज्य सरकारों के साथ-साथ स्थानीय जनों को अपने अवदान को समझना होगा। पुरोला की कमल नदी और नौगांव बड़कोट के पदारबिन्दुओं से बहती यमुना नदी की देह पर निकास पाते गंदे नालों और घरेलू कचरे के ढेरों को देखकर कुछ सवाल पिछले तीन दशक से नदियों को साफ करने के एक्शन प्लान चला रहे तंत्र और पानी में ऑक्सीजन, कार्बन और टॉक्सिक नाप रहे कंट्रोलरों से भी तो पूछे जाने चाहिए। मसलन 1985 से चल रहे गंगा एक्शन प्लान में तथाकथित तौर पर 20 हजार करोड़ खर्च कर दिये गये। क्या उनमें नदियों के मायके के लिए कुछ भी नही था? गंगा एक्शन प्लान का सबसे महत्वपूर्ण हेड पब्लिक एवयरनेस बनाया गया। बड़कोट, नौगांव, उत्तरकाशी या पुरोला के साथ-साथ कर्णप्रयाग, रुद्रप्रयाग या श्रीनगर जैसे उत्तराखण्ड के किसी संगम शहर में जनजागृति के लिए कुछ नहीं दिया गया? गंगा नदी के जलग्रहण क्षेत्र की विशालता को देखते हुए और उत्तराखण्ड की रमणीक नदी घाटियों को पर्यटन के लिए छोड़कर नदियों के भगीरथों की गंगा एंड इट्स ट्रिब्यूट्रीज में सारी जलधाराओं को समेटने की साजिश को नजरअंदाज भी कर दिया जाय तो यह स्पष्ट है कि इन जलधाराओं को बचाने की दिशा में काम तो दूर अभी तक सोचा भी नहीं गया है। गंगा-यमुना चिंतितों के तीस साल के खोखले अभियानों में उत्तराखण्ड का पहाड़ कहीं नही है। उत्तरकाशी, देवप्रयाग, हरिद्वार और देहरादून में कुछ सीवेज और ड्रेनेज या ट्रीटमेंट के उपक्रम नाट कंप्लीट या आन गोइंग में लटका दिये गये हैं। सवाल उठना लाजिमी है ऐसे में कमल नदी कैसे बचेगी? कमल को बचाने के लिए पुरोला में कचरा निस्तारण का पूरा प्रबंधन चाहिए, लोगों को नदी का उपचार बताने वाले लोग चाहिए, नदी के समानांतर घरेलू मलजल निस्तारण के लिए नाला चाहिए और नदी के निरंतर प्रवाह के लिए एक संरक्षित पैसेज चाहिए। क्या ऐसा संभव है नमामि गंगे जी? पिछले एक साल से सुंदर, विमल और निरंतर जलधाराओं की पैरवी करने वाले लोगों की नजर नरेन्द्र मोदी सरकार की नमामि गंगे परियोजना पर टिकी है। गनीमत है कि केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती ने इसी अक्टूबर में उत्तराखण्ड से नमामि गंगे परियोजना का ब्लूप्रिंट मांगा है। अब देखना यह है कि उत्तराखण्ड सरकार भी मलजल व्ययन में ही रुचि दिखाती है या उसे अपनी लघु सरिताओं को बचाने की सुध भी रहती है, लेकिन यह तय है कि लघु सरिताओं को बचाये बिना बड़ी नदियां भी नहीं बचेंगी।
ऐसे तो सफल होने से रहा नमामि गंगे कार्यक्रम
एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नमामि गंगे कार्यक्रम के जरिए गंगा को प्रदूषण मुक्त करने का दम भर रहे हैं वहीं, प्रदेश के स्लॉटर हाउस इन प्रयासों को ठेंगा दिखा रहे हैं। पिछले दिनों नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने इस मामले को गंभीरता से लेते हुए प्रदेश के मुख्य सचिव आलोक रंजन सहित अन्य अधिकारियों से जवाब-तलब किया है।
दरअसल, प्रदेश में कहने को तो मात्र आठ स्लॉटर हाउस को ही राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से अनुमति मिली है, लेकिन हकीकत यह है कि बीते वर्ष प्रदेश में 11 लाख मीट्रिक टन मांस निर्यात किया गया था जो देश में सर्वाधिक था। ऐसे में साफ है कि उत्तर प्रदेश में जानवरों की अवैध कटान जारी है। समस्या यह है कि बड़ी संख्या में काटे जा रहे जानवरों से जहां जल प्रदूषण की समस्या गहरा रही है वहीं दूसरी ओर हड्डियां अलग करने के लिए जलाई जा रही भट्ठियों से वायु प्रदूषण की गंभीर समस्या बनी हुई है। चिंताजनक यह है कि स्लॉटर हाउसों द्वारा बड़ी तादाद में भूजल का दोहन किया जा रहा है। यही नहीं स्लॉटर हाउस दूषित पानी जिसमें खून के साथ-साथ जानवरों के अवशेष भी मौजूद रहते हैं नालोंं में यूं ही बहा देते हैं। यह दूषित गैर उपचारित उत्प्रवाह नालों व सहायक नदियों के जरिए गंगा-यमुना नदियों को मैला कर रहा है। प्रदेश के गाजियाबाद, बुलंदशहर, संभल व अलीगढ़ में बड़े पैमाने पर स्लाटर हाउसों का अवैध संचालन जारी है।
वर्ष 2014-15 में देश से कुल 11 लाख मीट्रिक टन मांस निर्यात किया गया जिसमें से अकेले उत्तर प्रदेश से 6 लाख मीट्रिक टन मांस का निर्यात किया गया जो सर्वाधिक था। जाहिर है कि केवल आठ स्लॉटर हाउसों द्वारा इतनी बड़ी तादाद में मांस नहीं तैयार किया जा सकता है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तर प्रदेश मांस निर्यात में ग्लोबल मार्केट में तीसरे स्थान पर है। यही वजह है कि चोरी-छिपे काटे जा रहे जानवरों से होने वाला प्रदूषण गंगा-यमुना के लिए बड़ी समस्या बना हुआ है। केवल इन्हीं जिलों में नहींं बाराबंकी, उन्नाव सहित अन्य कई शहरों में अवैध रूप से चल रहे स्लॉटर हाउस इस समस्या के लिए जिम्मेदार है, लेकिन शासन-प्रशासन इस पर्यावरण समस्या को लगातार अनदेखा कर रहे हैं। स्लाटर हाउस से निकल रहे दूषित उत्प्रवाह से भूजल दूषित हो रहा है और लोग कैंसर जैसी बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं। एनजीटी ने इसे गंभीरता से लेते हुए मुुख्य सचिव आलोक रंजन के साथ-साथ, अध्यक्ष प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, अध्यक्ष केंद्रीय भूजल प्राधिकरण, जिलाधिकारी गाजियाबाद, बुलंदशहर, संभल व अलीगढ़ से जवाब-तलब किया है।
महत्वपूर्ण तथ्य
राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड में एनओसी के
लिए वर्ष 2014-15 में 146 आवेदन
106 विचाराधीन
32 आवेदन रद हुए
अनुमति मिली-आठ को