ज्ञान भंडार

चुनावी मजबूरी या भावनाओं का खेल

ram shiromani
राम शिरोमणि शुक्ल

पहले हैदराबाद विश्वविद्यालय, फिर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और अब भारत माता की जय। भूमि अधिग्रहण के सवाल पर अपनी भद पिटवा चुकी केंंद्र सरकार के समक्ष जीएसटी और आरक्षण से लेकर एसवाईएल तक कितने ही मुद्दे मुंह बाए खड़े हैं। स्वच्छता अभियान कागजी साबित होने के बाद मेक इन इंडिया में अपेक्षित सफलता न मिलने के बाद किसानों की आय दोगुनी कर देने के वादे का भी कोई प्रभावी असर न पड़ने से यह स्वाभाविक हो जाता है कि ऐसे मुद्दे की खोज की जाए जिसके बलबूते और कुछ नहीं तो कम से कम चुनाव जीता जा सके। ऐसा स्वाभाविक भी है क्योंकि बीफ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दंगों का अखलाक की मौत के बाद असहिष्णुता के बहाने बने माहौल की वजह से अपेक्षित लाभ न मिल पाना और राम मंदिर का पुराना राग अस्वीकार हो जाने की वजह से वक्त की जरूरत थी कि कोई ऐसा भावनात्मक मुद्दा खोजा जाए जिसके माध्यम से विकास न हो पाने से परेशान लोगों में एक नई भावना पैदा की जा सके। संभवत: सत्ताधारी पार्टी के समक्ष सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को कैसे जीता जा सकता है। यह इसलिए भी काफी महत्वपूर्ण है कि यदि इन चुनावों में अपेक्षित जीत नहीं मिली या दिल्ली और बिहार की तरह हार का सामना करना तो यह केंद्र सरकार के खिलाफ बन रहे माहौल को और तेज कर सकता है और इससे भी ज्यादा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख के लिहाज से नुकसानदेह साबित हो सकता है।
अब से करीब दो साल पहले जब अचानक जब विकास का नारा सामने आया था तब शायद ही किसी को यह अनुमान रहा होगा कि यह लोगों के जेहन में क्लिक कर जाएगा। यह वह समय था जब केंद्र में यूपीए शासन का दूसरा कार्यकाल समाप्त होने वाला था। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज तो बुलंद थी ही, लेकिन जिन दो बातों पर लोगों को सर्वाधिक भावुक बना दिया गया था उनमें एक था जनलोकपाल और दूसरा दुष्कर्म के आरोपियों को फांसी की सजा। तीसरा या कहें कि अंतिम था यूपीए सरकार का जाना जो वैसे भी होना था क्योंकि लोग मन बना चुके थे कि अब इससे ज्यादा नहीं। अब देखने पर पता चलता है कि न जनलोकपाल का कहीं पता है और न ही उन अन्ना हजारे का जिन्होंने एक तरह से यह स्थापित कर दिया था कि जनलोकपाल ही हर मर्ज की एक मात्र दवा है। यह जरूर हुआ कि उनकी वजह से जनलोकपाल आंदोलन के गर्भ से निकली एक पार्टी की एक केंद्र शासित राज्य दिल्ली में सरकार बन गई तो इसी आंदोलन की पीठ पर सवारी करने वाली दूसरी पार्टी की केंद्र में सरकार बन गई। आनन-फानन दुष्कर्म पर फांसी की सजा का प्रावधान तो कर ही दिया गया, नाबालिगों को भी बालिग की श्रेणी में लाने में देर नहीं की गई।
nation_1अब यह अलग बहस का विषय रह गया कि जनलोकपाल आया कि नहीं और भ्रष्टाचार का क्या हुआ। इसी तरह क्या दुष्कर्म पर रोक लगाई जा सकी या नाबालिगों द्वारा लैंगिक अपराधों पर अंकुश लग सका अथवा नहीं। आंकड़े यह बताते हैं कि महिलाओं के साथ जघन्य दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ती ही गईं और नाबालिग भी अनेक तरह के इस तरह के अपराधों में लिप्त पाए ही जा रहे हैं। ठीक इसी तरह विकास पहले की ही तरह नारा मात्र बनकर रह गया, उसी तरह जैसे कभी गरीबी हटाओ का नारा आया था। गरीबी तो हटी नहीं, अमीरी जरूर बढ़ती गई। तब भी चुनाव करीब थे जब यह सब हो रहा था और अब भी यह महज संयोग नहीं है कि पांच राज्योंं में विधानसभा चुनाव हैं। यह चुनाव ऐसे समय में होने जा रहे हैं जब इससे ठीक कुछ महीने पहले बिहार विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी एनडीए को करारी हार का सामना करना पड़ा है। उससे भी पहले दिल्ली में भाजपा का एक तरह से सूपड़ा साफ हो चुका था। केंद्र सरकार के कार्यकाल के भी करीब दो साल पूरे हो रहे हैं। इस दौरान इस सरकार से लोगों की कोई उम्मीद पूरी हुई हो, ऐसा लगता नहीं है। अगर इसे केवल विपक्ष खासकर कांग्रेस की ओर से लगाए जाना आरोप न भी माना जाए तब भी इस सरकार की ओर से जितनी घोषणाएं की गई हैं अथवा नीतियों का ऐलान किया गया है, तकरीबन वे सभी पूर्व की सरकार ही रही हैं जिन पर रंगरोगन कर नए तरीके व स्वरूप में पेश करने की कोशिश की गई हैं। स्वच्छता अभियान से लेकर स्मार्ट सिटी तक और आधार से लेकर मनरेगा तक जिनकी विपक्ष में रहते सरकार तीखी आलोचना करती रही है, अब सरकार में आने पर उन्हें ही अपना आधार बना रही है।
इसके विपरीत कालेधन के मुद्दे पर भी वही राग अलापा जाने लगा जो कांग्रेस अलापती रही है। कालाधन तो आया नहीं तब देश के हर व्यक्ति के खाते में डाले जाने वाले धन के बारे में क्या बात की जा सकती है। यह अलग बात है कि अडानी से लेकर ललित मोदी और विजय माल्या तक के बारे में बातें किसी से छिपी नहीं रह गई हैं। यूपीए शासन के दौरान पाकिस्तान को लेकर जिस तरह की बातें तत्कालीन विपक्षी भाजपा की ओर से की जाती रही हैं वह सब सत्ता में आते ही उल्टी हो गईं। जो स्थितियां उसके साथ खड़ी होने की उम्मीद देशवासियों की रही होगी, वही स्थितियां अब देश के भीतर पैदा किए जाने की कोशिशें की जा रही हैं। अब लोगों के दिमाग से पठानकोट जैसे हमलों से हटाया जा रहा है, इसके विपरीत जन्मदिन और शादी-साड़ी की चर्चाओं पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। इतना ही नहीं, देश के भीतर ऐसा माहौल बनाने की कोशिशें अधिक नजर आ रही हैं कि लोग का सीधा बटवारा कर दिया जाए और उन्हें आपस में लड़ा दिया जाए। इससे जहां एक तरफ लोग रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे बुनियादी सवालों को भूल जाएंगे और ऐसे मुद्दों पर केंद्रित हो जाएंगे जिनके लिए तथ्यों से ज्यादा भावनाओं की जरूरत होती है। इससे और कुछ हो चाहे न हो, कम से कम चुनावी लाभ हासिल किया जा सकता है और सत्ता को बचाए रखा जा सकता है।
आज के पूरे वातावरण को समझने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के उस हालिया भाषण को आधार बनाया जा सकता है जो अंबेडकर के बहाने उन्होंने दिया और जिसमें उन्होंने यह कहा कि कुछ लोग मुझे देखना नहीं चाहते इसीलिए वे लोगों में भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं। दरअसल, प्रधानमंत्री खुद को यह साबित करने में लगे हुए थे कि अंबेडकर के सबसे बड़े भक्त वही हैं। यह अंबेडकर भक्ति भी स्वाभाविक ही है क्योंकि उत्तर प्रदेश में भी विधानसभा चुनाव होने हैं जहां मुख्य प्रतिद्वंद्वी बसपा और मायावती हैं जो खुद को एकमात्र अंबेडकर की विरासत की दावेदार मानती हैं। दूसरा, बड़ा पेंच वह आरक्षण है जो लगातार भाजपा और केंद्र सरकार के लिए गले की हड्डी बनता जा रहा है। यह भी किसी और की ओर से नहीं बल्कि उस संघ की ओर से बनाया जा रहा है जिसके आधार पर भाजपा और केंद्र सरकार चलती बताई जाती है। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने बिहार विधानसभा चुनाव के समय भी अचानक यह कह दिया था कि आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए। तब शायद संघ के दिमाग में यह रहा होगा कि इससे अगड़ों का वोट भाजपा को मिल जाएगा। राजनीतिक हलकों में आरक्षण की समीक्षा का अर्थ सवर्णों के पक्ष में निकाला जाता है। इसी के आधार पर यह भी प्रचारित किए जाने की कोशिश का जाती रहती है कि संघ और भाजपा पिछड़ों को आरक्षण की विरोधी है।
तथ्यत: भले ही ऐसा न हो, लेकिन यह भूलना नहीं चाहिए कि जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल में मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया था तब मंडल के खिलाफ ही भाजपा ने कमंडल की राजनीति शुरू की थी पूरे देश में राम मंदिर आंदोलन की शुरुआत हुई थी जिसका परिणाम बाबरी मस्जिद विध्वंस के रूप में सामने आई थी। इससे भाजपा को अनपेक्षित राजनीतिक लाभ मिला था कि उसे केंद्र से लेकर कई राज्योंं में सत्ता मिल गई थी यह अलग बात है कि पूरे देश में एक खास तरह का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण भी हो गया था। हालांकि सत्ता में आने के बाद आरक्षण भाजपा की भी मजबूरी हो गई थी और उसने भी खुद को आरक्षण की पैरोकार साबित करने में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी। अब भाजपा को भी यह पता है कि आरक्षण उसकी राजनीतिक मजबूरी है और इसके बिना उसका काम चलने वाला नहीं है। दरअसल, सत्ता के लिए भाजपा को भी वह सब कुछ चाहिए जो कभी कांग्रेस को चाहिए होता था। इसीलिए तो लोकसभा चुनाव के दौरान पिछड़ों के वोट के लिए पटेल को नेता की तौर पर पेश किया गया तो अब दलितों के वोट के लिए अंबेडकर का सहारा लिया जा रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि यह सब ऐसे समय हो रहा है जब केंद्र सरकार पर दलित विरोधी होने के आरोप लगाए जा रहे हैं। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री को दो टूक कहना पड़ा कि आरक्षण कोई नहीं छीन सकता।
nation_2दरअसल, दलित और आरक्षण एक दूसरे से जुड़े हुए सवाल हैं और वर्तमान में ये उस रोहित वेमुला से जुड़ गए हैं जिसके बारे में सरकार की ओर से यह साबित करने की कोशिश की गई कि वह दलित नहीं था। विपक्ष रोहित वेमुला के माध्यम से सरकार को दलित विरोधी साबित करने पर तुला हुआ है। इसी बीच हरियाणा में जाट आरक्षण की मांग पर आंदोलन इतना हिंसक हो गया कि वहां सरकार को सेना बुलानी पड़ी। इसी बीच, संघ की ओर से एक बार फिर न केवल आरक्षण की समीक्षा कर दी गई बल्कि यह भी कह दिया गया कि संपन्न लोगों को खुद ही आरक्षण छोड़ देना चाहिए। यह कुछ उसी तरह है जैसे सरकार ने सब्सिडी पर न केवल कड़ा रुख अख्तियार कर रखा है बल्कि संपन्न लोगों से कहती रहती है कि वे सब्सिडी खुद ही छोड़ दें। इसका अर्थ यह निकाला जाता है कि सरकार देरसबेर सब्सिडी खत्म कर देगी। किसी कल्याणकारी राज्य में सब्सिडी खत्म करने का मतलब गरीबों के हितों को नुकसान माना जाता है।
इसी तरह आरक्षण पर किसी भी पुनर्विचार की मांग को आरक्षण को समाप्त कर देने की कोशिश के रूप में देखा जाता है। संसद में बसपा प्रमुख मायावती की ओर से दलितों के उत्पीड़न और आरक्षण के सवाल को प्रमुखता से उठाने को इसी रूप में देखा जाता है। इसके अलावा, सामाजिक न्याय की पक्षधर अन्य पार्टियां भी किसी भी तरह से आरक्षण को किसी भी तरह के नुकसान को झेलने को तैयार नहीं है। कांग्रेस के पास दलितों को अब कोई जनाधार बचा नहीं है। ऐसे में भाजपा के समक्ष यह बड़ी चुनौती है कि वह दलितों और पिछड़ों को कैसे अपने पक्ष में कर सकती है अथवा बनाए रख सकती है। पटेल और अंबेडकर को वह इसीलिए अब अपना सबसे बड़ा नेता बताने में जुटी रहती है क्योंकि शायद उसका काम दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताओं से नहीं चलता दिख रहा है।
एक दूूसरा सवाल यह भी है कि क्या सिर्फ दलितों और पिछड़ों के सहारे चुनाव जीता जा सकता है। जवाब न में ही मिलता है। माना यह जाता है कि जब तक समाज का हर तबका वोट नहीं करता, जीत आसान नहीं हो सकती। अल्पसंख्यक वैसे भी कभी भाजपा के साथ नहीं रहे। अब भी शायद ही रहें। दूसरी तरफ कांग्रेस रंचमात्र ही सही, नए सिरे से उभरती नजर आने लगी है। पश्चिम बंगाल में सुभाष चंंद्र बोस के बहाने की जा रही कोशिशें कितनी कारगर हो सकेंंगी, इसको लेकर भी संदेह बरकरार है क्योंकि वहां अभी भी ममता बनर्जी को प्रबल दावेदार माना जा रहा है।
बचा-खुचा वाममोर्चा और कांग्रेस के पास भी लगता है। ऐसे में उम्मीदों के अलावा शायद ही कुछ भाजपा के लिए बचता हो। तमिलनाडु में एक बार फिर द्रमुक और कांग्रेस में गठबंधन हो गया है। इसके अलावा वहां का अपना इतिहास भी रहा है जो हर अगले चुनाव में दूसरी पार्टी को मौका दे देता है। असम में कांग्रेस लगातार सत्ता में रही है और मुख्यमंंत्री तरुण गोगोई के खिलाफ उस तरह की सत्ताविरोधी लहर भी नहीं बताई जा रही है। इसके अलावा, वहां बिहार की तरह का प्रयोग किए जाने की भी बातें हैं। ऐसे में भाजपा के लिए राह कोई आसान नहींं लग रही है। निकट भविष्य में सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आने वाले उत्तर प्रदेश में संकेत इस तरह के मिल रहे हैं कि वहां बसपा सबसे प्रमुख दावेदार बनकर उभर सकती है। अगर वास्तविकता ऐसी होगी तो भाजपा के लिए सबसे खराब स्थिति हो सकती है क्योंकि लोकसभा चुनाव में वहां उसे आशातीत सफलता मिली थी। अभी हाल के पंचायत चुनावों मेंं बसपा अपनी ताकत का प्रदर्शन कर चुकी है। कांग्रेस को भी यहां उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली है। ऐसे में भाजपा के समक्ष सबसे बड़ा सवाल यही हो सकता है कि ऐसा कौन सा मुद्दा उठाया जा सकता है जिससे सभी को एक साथ एकजुट किया जा सके। संभवत: इसी की तलाश में भारतीयता को खोज निकाला गया जिसे देशप्रेम और देशद्रोह के जरिये आजमाए जाने की कोशिश शुरू कर दी गई है। इसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में आयोजित एक सांस्कृतिक कार्यक्रम में देशविरोधी नारे लगाए जाने को लेकर हुई। इसके बाद देशद्रोह के आरोप में जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के साथ ऐसा माहौल बनाए जाने की कोशिश की गई जैसे पूरे देश में देश विरोधी माहौल बन गया है और जेएनयूू उसका केंंद्र बन गया। इसके माध्यम से जहां एक तरफ जेएनयू को लेकर तमाम तरह की बातें की जाने लगीं वहीं उसे बंद कर दिए जाने तक कि मांगे उठाई जाने लगीं। अचानक ऐसा बताया जाने लगा या लगने लगा जैसे सारी समस्या की जड़ जेएनयू ही है। इसके साथ ही यह भी साबित की जाने की भरसक कोशिश की जाने लगी कि जैसे कांग्रेस और वामपंथियों समेत पूरा विपक्ष कन्हैया जैसे कथित देशद्रोहियों के साथ खड़ा होने के कारण देशद्रोही हो गया है। दरअसल, कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी, माकपा नेता सीताराम येचुरी, भाकपा नेता डी राजा समेत विपक्ष के कई नेता जेएनयू पहुंच गए थे। इस पर भी ध्यान नहीं दिया गया कि पूरा मामला अदालत में था और एक मुख्य आरोपी जेल में था। इसके अलावा देशविरोधी नारे के बारे में जिन लोगों पर मुख्य आरोप था वे कश्मीरी बताए जा रहे थे जिनकी अभी तक गिरफ्तारी तक नहीं हुई है। यह सब तब हो रहा था जब जम्मू कश्मीर में पीडीपी और भाजपा की सरकार बनाए जाने को लेकर बातचीत चल रही थी। इससे पहले इन दोनों पार्टियों की सरकार चल ही रही थी। यहां यह ध्यान रखने की बात है कि पीडीपी अलगाववादियोंं के साथ खड़ी रहती है और वह उस अफजल गुरु की फांसी की विरोधी भी रही है जिसको लेकर जेएनयू में नारे लगाए गए थे। इस तथ्य की अनदेखी करते हुए पूरे देश में ऐसा माहौल बना जैसे देश दो भागों में विभक्त हो चुका हो। एक तरफ कथित देशद्रोही तो दूसरी तरफ कथित देशप्रेमी। आश्चर्यजनक ढंंग से शायद यह पहली बार हुआ कि मीडिया भी दो भागों में स्पष्ट तौर पर दो भागों में बंट गया। इसके साथ ही देशप्रेम और देशद्रोह उभरकर सामने आ गया। इस पूरे मामले को और हवा तब दे दी गई जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने यह कह दिया कि बच्चों को कभी-कभी भारत माता की जय बोलना सिखाना भी पड़ता है। यह प्रतिक्रिया इस संदर्भ में थी कि देशप्रेम अथवा देशद्रोह के नाम पर छात्रों को उत्पीड़ित किया जा रहा है। संघ प्रमुख की इस प्रतिक्रिया पर एक और तीखी प्रतिक्रिया एमआईएम सांसद ओवैसी की ओर से आ गई जिसने आग मेंं घी का काम कर दिया। ओवैसी ने कह दिया कि हम किसी के कहने पर भारत माता की जय नहीं बोलेंगे। यहां दो बातों पर गौर करने की जरूरत है। एक तो यह कि कन्हैया कुमार और जेएनयू के कुछ अन्य छात्रोंं की गिरफ्तारी के बाद पूरा मामला अदालत में हो जाने के कारण धीमा पड़ता जा रहा है। दूसरी तरफ ओवैसी की अपने राज्य के बाहर मुस्लिमों का नेता बनने की बढ़ती महत्वाकांंक्षा भी जोर मारने लगी है। महाराष्ट्र में मिली आंशिक सफलता से उत्साहित ओवैसी उत्तर प्रदेश में भी जड़ें जमाने की फिराक में हैं। राजनीतिक क्षेत्रों में माना जा रहा है कि संघ प्रमुख के वक्तव्य को भुनाने की कोशिश में ही ओवैसी भारत माता की जय न बोलने का बयान दे बैठे। कारण और तथ्य चाहे जो कुछ भी हो, लेकिन इतना तय है कि देशप्रेम और देशद्रोह को लेकर एक खास तरह के ध्रुवीकरण की कोशिशें की जा रही हैं। यह सब तब हो रहा है जब दंगों का प्रयोग कारगर होता नहीं दिख रहा है और राम मंदिर का मुद्दा इतना भोथरा हो चुका है कि उस पर कुछ किया नहीं जा पा रहा है।
इसीलिए एक सीधी रेखा खींची जाने लगी है। या तो इस तरफ या उस तरफ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब यह कहते हैं कि कुछ लोग मुझे देखना तक नहीं चाहते तो यह कोई सामान्य बात नहीं है। नरेंद्र मोदी जैसा कोई नेता सामान्य तौर पर ऐसी बातें नहीं करता है। अगर वह ऐसा कह रहे हैं तो इसके पीछे यही हो सकता है कि वे खुद यह महसूस करने लगे हैंं कि दो साल पहले जैसी स्थिति उनकी अब नहीं रह गई है या वह जानबूझकर यह बताना चाहते हैं कि आप या तो उनके पक्ष में हैं या उनके विरोध हैं। ऐसे समय में वह बात याद आती है जब कहा गया था कि इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया। कभी अमेरिकी राष्ट्रपति ने भी कहा था कि या तो आप हमारे पक्ष में हैं या तो विरोध में। अब एक बार फिर कहा जाने लगा है कि या तो देशप्रेमी हैं या देशविरोधी। बीच में कुछ भी नहीं है। सवाल है कि क्या वाकई ऐसी स्थिति बन गई है या जानबूझकर बनाई जा रही है। इसी के साथ यह भी सवाल है कि क्या यह सब कुछ विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। क्या यह भी सवाल नहीं है कि लोकसभा चुनाव के दौरान और उसके बाद जिन युवाओं का गुणगान करते प्रधानमंत्री थकते नहीं थे, अब वही युवा हैदराबाद से लेकर दिल्ली और इलाहाबाद तक विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों में अगर परेशान हो रहे हैं तो उनसे संबंधित कारणों को तलाशने व दूर करने के प्रयास करने की जरूरत नहीं है। वास्तविकता चाहे कुछ भी हो, लेकिन जो कुछ हो रहा है उसे किसी भी लिहाज से अच्छा नहीं कहा जा सकता है। =

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