महत्वाकांक्षाओं की बलिवेदी पर उत्तराखंड
नीरज जोशी
90 के दशक के आरंभ में जब उत्तराखण्ड राज्य आंदोलन ने रफ्तार पकड़ी थी तब शायद ही किसी ने यह कल्पना की होगी कि वे जिस अलग राज्य के लिए अपना बलिदान और सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं वह अस्तित्व में आने के बाद संसाधनों की बंदरबाट और राजनैतिक दलदल में धंस जायेगा। अलग राज्य बनने के 15 वर्ष बाद जो परिदृश्य इस शिशु राज्य का बनता है उसमें अंतहीन राजनैतिक षड्यंत्र, घोटाले और संसाधनों की लूट प्रमुखता से सामने आती है। इसके लिए भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दल जो यहां सत्ता में रहे हैं, बराबर भागीदार हैं। राज्य का वर्तमान राजनैतिक संकट कोई नई बात नहीं है, इस तरह के भूचाल पिछले डेढ़ दशक में कई बार आते-जाते रहे हैं। 2 अक्टूबर 1994 के मुजफ्फरनगर कांड और राज्य आंदोलनकारियों के दिल्ली कूच के बाद यह बात लगभग स्पष्ट हो गई थी कि राज्य ने तत्कालीन नेतृत्व को एक सिरे से खारिज कर दिया। लाल किले के दंगल में आंदोलनकारियों ने सभी स्थापित नेताओं को मंच तक नही पहुंचने दिया। लेकिन यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि राज्य बनने के बाद भी एक दूसरे को नकारने की यह प्रवृति इस राज्य को ले डूबेगी।
हालांकि 92 के बाद चली वैश्वीकरण और निजीकरण की बयार में राजनैतिक विचार और मूल्यों का अवसान तो राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी कोई बड़ी बात नही है लेकिन दलगत प्रतिबद्धता भी इस तरह किनारे लगा दी जायेगी यह कोई उत्तराखण्ड के नेताओं विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत से सीखे। हालांकि भाजपा आलाकमान भविष्य के खतरे को भांप गया है, उसे इस बात का आभास हो चुका है कि अगर कांग्रेस के भगोड़ों को साथ लेकर सरकार बनाने जैसा कोई प्रयास किया जाता है तो वह अगले वर्ष जनवरी में होने वाले चुनाव में पार्टी को दहाई में भी समेट सकता है। इसका एक पहलू यह भी है कि क्या विजय बहुगुणा और डाक्टर हरक सिंह रावत की महत्वाकांक्षा का विष वृक्ष यहां हिलोरे नहीं मारेगा। भाजपाध्यक्ष अमित शाह हाल की मुलाकात में कांग्रेस के बागियों को यह समझाने में तो कामयाब रहे हैं लेकिन पार्टी की तरफ से कथित हार्स ट्रेडिंग या खरीद फरोख्त में शामिल नेताओं और आलीशन पांच सितारा होटलों में कैद विधायकों को भी पार्टी को कोई कड़ा संदेश देना चाहिए। जनतंत्र को आलीशान रिसार्ट और होटलों में कैद करने की अनुमति कैसे दी जा सकती है? राज्य में वर्तमान राजनैतिक संकट थोड़ा पेचीदा जरूर है लेकिन इसे सुलझाने के प्रयास चौतरफा हो रहे हैं। मुख्यमंत्री हरीश रावत जिस तरह के खिलाड़ी हैं उससे यह आशा तो बंधती ही है कि अगले वर्ष होने वाले चुनाव तक स्थिति सामान्य रहेगी, ऐसा राज्य में कई बार हो चुका है। 2007 से 2012 के बीच भाजपा के नेताओं की खींचतान और कुर्सी की जंग को कौन भुला सकता है।
भगत सिंह कोश्यारी और बची सिंह रावत का शीत युद्ध हो या या बीसी खंडूड़ी और निशंक का एक-दूसरे को उखाड़ फेंकने का संघर्ष इस राज्य की आरंभ से ही यही नियति रही। केन्द्र के नेताओं और आकाओं के इशारे पर तय की जाती रही उत्तराखण्ड की नियति में जनता के चुने नेताओं के बजाय मनोनीतों को ज्यादा तरजीह दी गई। चाहे वह नित्यानंद स्वामी हों या नारायण दत्त तिवारी। 2002 के चुनाव से पूर्व दो साल हरीश रावत ने बतौर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राज्य में 19 साल से हाशिए पर पड़ी कांग्रेस को भाजपा द्वारा अलग राज्य का तोपफा दिये जाने के बावजूद राज्य विधनसभा में पूर्ण बहुमत दिलाया। यहां उनके साथ कांग्रेस ने नाइंसापफी की उनकी मेहनत का फल अपनी लाश पर अलग राज्य बनता देखने वाले नारायण तिवारी उड़ा ले गये। इस तरह ही राज्य की राजनीति को अब तक केन्द्र के डंडाधारी हांक रहे हैं। 2002 में हरीश रावत ने मुख्यमंत्री बनने के लिए ज्यादा शोर नही मचाया लेकिन 2012 में विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री बनाने की कांग्रेस आलाकमान की रणनीति का हरीश रावत खेमा महिनों विरोध करता रहा। केदारनाथ आपदा में विजय बहुगुणा भी कथित तौर पर भ्रष्टाचार की गंगा नहा गये। ऐसे ही भ्रष्टाचार के आरोपों में निशंक का रथ पटरी से उतरा तो ऐसे ही आरोप हाल फिलहाल हरीश रावत पर भी लग रहे हैं।
भ्रष्टाचार और संसाधनों की बंदरबाट तो उत्तराखण्ड का नसीब बन गया है लेकिन इस राज्य का सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क राज्य के नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं ने किया है।
एक शिशु राज्य पर 15 साल में 40,000 करोड़ का कर्ज बताता है कि उत्तराखण्ड किस तरह के विजनरी नेताओं के हाल पर चल रहा है।
उत्तराखण्ड को अभी भी सजना संवरना है या हिमाचल की राह पर डालना है तो इसके लिए सबसे पहले इस राज्य को लंपट नेताओं की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के बाहर लाना होगा और जनता और कर्मचारियों का स्वभाव बन चुके आंदोलनों को तिलांजली देकर खुद राज्य को पटरी पर लाने की पहल करनी होगी। =