यूपी की तैयारी में ओवैसी
ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष और हैदराबाद से सांसद असदुद्दीन ओवैसी अपने बयानों के कारण अक्सर विवादों में रहते हैं। ताजा विवाद की जड़ में उनका यह बयान है कि चाहे कोई मेरी गरदन पर चाकू क्यों न रख दे, मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा। यह बयान उन्होंने अचानक या हवा में नहीं दिया, बल्कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत के उस बयान की प्रतिक्रिया में दिया है, जिसमें उन्होंने कहा था कि इस देश के युवाओं को भारत माता की जय बोलना सीखना पड़ेगा। मोहन भागवत का इशारा जेएनयू प्रकरण की तरफ रहा होगा।
बहरहाल, ओवैसी के बयान पर न्यूज चैनल और अखबार बहसों एवं तीखी प्रतिक्रियाओं से भरे पड़े हैं। वैसे ओवैसी ने न्यूज चैनलों से बातचीत में कहा है कि मैं हिंदुस्तान जिंदाबाद बोलूंगा, इस देश में रहूंगा, देश के संविधान का आदर करता हूं, लेकिन कोई भी मेरे मुंह में अपने शब्द नहीं डाल सकता। उन्होंने यह भी कहा कि मुझे संघ से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है।
देश में इस समय जो माहौल है उसमें ओवैसी के बयान पर विवाद और हंगामा मचा रहेगा, लेकिन हम उस पर चर्चा नहीं करने जा रहे। हम तो राजनीति में ओवैसी के प्रभाव और उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव में उनकी दिलचस्पी पर कुछ बातें करना चाहते हैं।
ओवैसी इधर उत्तर प्रदेश में सक्रिय हुए हैं। उन्होंने पंचायत चुनाव लड़ा और बीकापुर (फैजाबाद) विधान सभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी अपना प्रत्याशी उतारा। बीकापुर उपचुनाव में उन्होंने जानबूझ कर मुस्लिम प्रत्याशी खड़ा करने की बजाय दलित उम्मीदवार उतारा और उसे भाजपा प्रत्याशी से कुछ ही कम वोट मिले, यह उल्लेखननीय बात है। ओवैसी अब अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में उतरने की तैयारी कर रहे हैं। इस बीच उन्होंने कई बार उत्तर प्रदेश का दौरा किया है।
कौन हैं ओवैसी और क्या रणनीति
असदुद्दीन ओवैसी ऑल इण्डिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। हैदराबाद लोकसभा सीट से वे सांसद हैं और लगातार दूसरी बार चुने गए हैं। यह तेज-तर्रार सांसद हाल के दिनों में मुसलमानों में काफी लोकप्रिय होकर उभरे हैं उनके आक्रामक भाषणों ने मुसलमानों की युवा पीढ़ी को विशेष रूप से प्रभावित किया है। वे कहते हैं कि मुसलमानों की अपनी पार्टी और अपने नेता ही उनका वास्तविक भला कर सकते हैं। बाकी पार्टियां मुसलमानों में भाजपा का डर पैदा कर, उनकी सुरक्षा के नाम पर उनके वोट लेती हैं और खुद सत्ता का भोग करती रही हैं। पिछले एक-दो साल में ओवैसी ने हैदराबाद से बाहर अपनी पार्टी को फैलाना शुरू किया। सबसे पहले उन्होंने कर्नाटक और महाराष्ट्र में स्थानीय निकाय चुनाव लड़ा और अच्छे वोट पाकर राजनीतिक दलों का ध्यान खींचा। उसके बाद उन्होंने बिहार का रुख किया और वहां कई सभाएं कीं। पूर्वी बिहार के मुस्लिम बहुल इलाकों में उन्होंने करीब आधा दर्जन उम्मीदवार भी खड़े किए। मुस्लिम बहुल किशनगंज में उनकी सभा में बारिश के बावज़ूद इतनी भीड़ जुटी थी कि उसने लालू-नीतीश महागठबंधन के लिए नई चुनौती खड़ी कर दी थी चूंकि बिहार का संग्राम भाजपा बनाम महागठबंधन की सीधी लड़ाई में बदल गया था इसलिए उसके नतीजे मुस्लिम वोटरों में ओवैसी के प्रभाव को स्पष्ट नही कर सके। ओवैसी क्या, बिहार के मतदाताओं ने तो बाकी सभी दलों व नेताओं को दरकिनार कर दिया था, लेकिन मुसलमानों में ओवैसी के भाषणों की चर्चा है। सोशल साइटों पर मुस्लिम युवाओं के बीच वे बहुत लोकप्रिय हुए हैं। फेसबुक और ट्विटर पर उनके हजारों फॉलोअर हैं। उनकी यह अपील मुस्लिम युवाओं को खूब भाती है कि अब तक सभी राजनीतिक दलों ने मुसलमानों को ठगा है, सिर्फ वोट हासिल किए हैं और वास्तविक विकास की दिशा में कुछ नहीं किया है। वे बहुत प्रभावशाली ढंग से कहते हैं कि मुसलमानों का वास्तविक विकास उनकी अपनी पार्टी ही कर सकती है।
यूपी में बढ़ता संगठन
उनकी यही अपील उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी को अपने लिए सम्भावित खतरा लगती है। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान प्रदेश की सपा सरकार ने ओवैसी को आज़मगढ़ समेत कुछ अन्य स्थानों में सभा करने की इज़ाज़त नहीं दी थी। मुलायम आजमगढ़ से भी चुनाव लड़ रहे थे। जाहिर है तब सपा ओवैसी को मुस्लिम वोटरों से दूर ही रखना चाहती थी, उस समय ओवैसी बहुत गुस्से में यू पी से लौटे थे। सोशल साइटों पर टिप्पणियों में उनका गुस्सा जाहिर हुआ था, लेकिन वे गुस्से तक ही सीमित नहीं रहे। इस बीच उन्होंने प्रदेश में पार्टी का तेज़ी से विस्तार किया। पार्टी के यूपी संयोजक शौकत अली ने दो माह पहले मुझे बताया था कि 45 जिलों में उनका संगठन अच्छी तरह खड़ा हो चुका है। कुल 66 ज़िलों में सदस्यता अभियान चल रहा है और अब तक साढ़े सात लाख पार्टी सदस्य बनाए जा चुके हैं।
पिछले रमज़ान के महीने में ओवैसी ने आगरा और मेरठ का दौरा किया था। इस बीच वे कई बार उत्तर प्रदेश आ चुके हैं। सार्वजनिक सभा करने की इजाजत प्रदेश की सपा सरकार उन्हें नहीं देती, लेकिन वे अपने दौरों में असर छोड़ जाते हैं। बीकापुर उपचुनाव में जरूर उनकी सभाएं हुई और ओवैसी के उम्मीदवार को मिले वोट सबूत हैं कि उनका असर कम नहीं है।
मुलायम सिंह अगर ओवैसी को यहां सभाएं नहीं करने देना चाहते तो उसके कारण हैं। सन 1992 में बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से यूपी के मुसलमानों का एकनिष्ठ समर्थन पाते रहने वाले समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव मुसलमानों के बीच लोकप्रिय होते इस युवा नेता को यहां पांव जमाने नहीं देना चाहते। उनकी चिंता का कारण असदुद्दीन ओवैसी का एक हालिया नारा भी है। मुसलमान वोटरों से वे कहते हैं ‘पहले भाई, फिर भाजपा हराई, उसके बाद सपाई’ यानी मुसलमान वोटरों के लिए सबसे पहले अपना भाई यानी मुसलमान प्रत्याशी है, फिर वह जो भाजपा को हरा सके और उसके बाद सपा प्रत्याशी। मुलायम की परेशानी स्वाभाविक है। वे पिछले 23 वर्षों से मुसलमानों की पहली पसंद रहे हैं। अब ओवैसी कह रहे हैं कि उन्हें तीसरी पसंद बनाओ।
समाजवादी पार्टी की फिक्र
ऐसा नहीं है कि मुसलमानों में सपा के प्रति नाराज़गी नहीं है। पिछली बार सपा ने अपने चुनाव घोषणा पत्र में मुसलमानों को नौकरियों में आरक्षण का वादा किया था जिसे पूरा नहीं किए जाने के आरोप लगते रहे हैं। अक्सर कुछ मुस्लिम नेता और उलेमा वगैरह सपा के खिलाफ बयान भी देते हैं। पिछले दिनों दिल्ली की शाही मस्जिद के इमाम बुखारी भी लखनऊ आकर सपा सरकार के खिलाफ बयान दे गए थे, लेकिन सपा छोटी-मोटी रियायतों, निजी प्रलोभनों से और भाजपा का भय दिखाकर उन्हें अंतत: मना लेती रही है। दो साल पहले हुए मुज़फ्फरनगर के दंगों ने भी सपा-मुस्लिम दोस्ती पर आंच डाली। किसी प्रभावशाली मुस्लिम संगठन या नेता की आमद इस नाजुक रिश्ते में दरार पैदा कर सकती है, इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। बड़ा सवाल है कि क्या ओवैसी यू पी में इतना प्रभाव छोड़ पाएंगे?
एक बात तय है कि ओवैसी की राजनीतिक मौज़ूदगी हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर देती है जो अंतत: भाजपा को लाभ पहुंचाता है। ओवैसी पर सबसे बड़ा आरोप भी यही लगता रहा है कि वे चुनावों में भाजपा के मददगार साबित होते हैं। ओवैसी इससे सहमत नहीं होते, लेकिन तथ्य यही है कि उनके प्रत्याशी भले न जीतें, लेकिन वे भाजपा विरोधी वोटों का बंटवारा करा ही देते हैं. भविष्य ही बताएगा कि ओवैसी की उत्तर प्रदेश में क्या राजनीतिक भूमिका होगी। उनकी पार्टी मुसलमानों की पसंदीदा बनेगी या भाजपा के पक्ष में हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करेगी। फिलहाल तो उनका यह बयान सुर्खियों में रहने वाला है कि मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा और ये सुर्खियां ऐसा ही ध्रुवीकरण कर रही हैं।
मुस्लिम युवा की बेचैनी
बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद बढ़ी हुई मुसलमानों की नई पीढ़ी भाजपा भय से उस तरह त्रस्त नहीं है जैसी उनकी पुरानी पीढ़ी रही। उसमें विकास की रफ्तार से कदमताल मिलाने की बैचैनी दिखाई देती है। क्रमश: बढ़ते शिक्षा के प्रतिशत ने भी उनकी आंखें खोली हैं, वे समुदाय के लिए कुछ ठोस हुआ देखना चाहते हैं। मुसलमानों के लिए ओबीसी कोटे की मांग इधर इसीलिए बढ़ी है। उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी कुछ समय पहले अपने भाषण में इस आशय का उल्लेख किया था। नए हालात में मुस्लिम युवा अगर सपा नेतृत्व से इतर भी देखने लगें तो आश्चर्य नहीं। ओवैसी सिर्फ प्रखर वक्ता ही नहीं, वे संविधान से उद्धरण देते हैं और मुसलमानों के वर्तमान हालात के लिए राजनीतिक दलों को कटघरे में खड़ा करते हैं। युवा वर्ग को इसीलिए वे आकर्षित करते हैं।
आजादी के बाद से कांग्रेस ही मुसलमानों की पसंदीदा पार्टी रही। मुस्लिम राजनीतिक संगठन यूपी में जड़ें नहीं जमा सके। 1970 के दशक में अब्दुल फरीदी के नेतृत्व में मुस्लिम मजलिस नाम की पार्टी ने ज़रूर कुछ हलचल मचाई थी, लेकिन वह लम्बी पारी नहीं खेल सकी। बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद से मुस्लिम वोटों पर सपा ही का एकाधिकार बना हुआ है। हाल में कुछ समय के लिए डॉ. अयूब की पीस पार्टी उभरी जिसने पूर्वी उत्तर प्रदेश के मुसलमानों में अच्छी पैठ बनाई थी, लेकिन अब वह टूट गई है। उसके पांच में से चार विधायक सपा के साथ हो गए।