हमें टूटते तारों को बचाना है
बरौनी के शोकहारा-2 निवासी पेशे से शिक्षक अजीत कुमार एवं उसकी पत्नी शबनम मधुकर वर्षों से विभिन्न रेलवे प्लेटफार्म पर मुफलिसी की जिंदगी गुजार रहे सैकड़ों अनाथ, बेसहारा,आश्रयहीन बच्चों के बीच शिक्षा का अलख जगा रहे हैं। उन बच्चों के बीच ज्ञान की असीम शक्ति को पहुंचाने के काम में लगे हैं। जिनकी जिंदगी में शायद कभी शिक्षा व ज्ञान की रोशनी पहुंचने की उम्मीद नहीं थी। ये शिक्षक दंपति इन मासूमों की आंखों में सुनहरे कल की सपने सजा रहे हैं ताकि ऐसे बच्चों के गुमराह हो रहे बचपन को बचाया जा सके। प्लेटफार्म पर रहने वाले इन बेसहारा बच्चों की शिक्षा और बाल अधिकार को लेकर पहले तो इन्होंने कई स्थानीय विद्यालयों के अलावा संबंधित सभी आलाधिकारियों सहित प्रधानमंत्री कार्यालय एवं राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग तक का दरवाजा खटखटाया। परंतु इन्हें सफलता नहीं मिली, लेकिन अजीत और शबनम ने हार नहीं मानी और स्वयं ही ऐसे बच्चों को शिक्षित और नशामुक्त कर समाज की मुख्य धारा से जोड़ने का निश्चय किया।
बिहार में शिक्षा एवं बालश्रम के हालात
सैकड़ों साल से भारत और दुनिया भर में बाल मजदूरी की कुप्रथा चली आ रही है। करोड़ों बच्चे विभिन्न रेलवे प्लेटफार्मों, होटलों, कल-कारखानों, ईंट-भट्ठा, खेत-खलिहानों, खादानों, दुकानों और घरों में अपना बचपन और भविष्य बेचने को मजबूर हैं। परंतु इस सामाजिक अपराध और बुराइयों को आम तौर पर जीवन का हिस्सा मानते हुए किसी का ध्यान इस ओर नहीं जाता है। सरकार, समाज, मीडिया, न्यायपालिका और समाज शास्त्री आदि सभी ने इसे अनदेखा किया। हम मानते हैं कि बाल मजदूरी अशिक्षा और गरीबी के बीच मुर्गी और अण्डे यानि कारण और परिणाम का रिश्ता होता है। आज भारत देश में करीब 6 करोड़ बच्चे बालश्रम से जुड़े हैं। बेशक सबसे सस्ता और मुफ्त का मजदूर होने के कारण ही बच्चों को विभिन्न होटलों, ढाबा, ईंट-भट्ठा या कल-कारखानों में लगाया जाता है और ये बच्चे आज भी शिक्षा और बाल अधिकार से वंचित हैं।
सभी बच्चों को शिक्षा मिले, उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त हो। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए सरकार ने पहले तो सर्व शिक्षा अभियान आरंभ किया, फिर उसे प्रवलित करने के लिए अगस्त 2009 को ‘शिक्षा का अधिकार कानून’ पारित किया। सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित कराने हेतु एक अप्रैल 2010 को पूरे देश में इसे लागू किया गया। एक जून 2011 को भारतीय संविधान की अनुच्छेद 23(2) के तहत शिक्षा का अधिकार पूर्ण रूप से लागू करने की अधिसूचना जारी की गयी, जिसके बाद बेहतर शिक्षा के लिए राज्य सरकार ने नये विद्यालय बनवाये एवं पुराने भवनों का जीर्णोद्धार किया। आज शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के चार साल उपरांत भी बिहार में शिक्षा की मौजूदा हालात क्या हैं? आइये देखें शिक्षा एवं बालश्रम से जुड़े बेगूसराय जिले की एक खास रिपोर्ट:-
उत्तर बिहार का एक प्रमुख रेलवे स्टेशन बरौनी जंक्शन जहां दिन भर में सैकड़ों गाड़ियां एवं लाखों पैसेंजर आते एवं जाते हैं। पर शायद ही किसी ने गौर किया हो….. यहां पलते हैं सैकड़ों अनाथ, बेसहारा, आश्रयहीन बच्चे जो आज भी विद्यालय, शिक्षा एवं बाल अधिकार से बेखबर अपना बचपन खो रहे हैं। रेलवे प्लेटफार्म से जिन्दगी की शुरुआत करने वाले सभी बच्चों की अपनी-अपनी अलग कहानी है। कोई सफर के दौरान ट्रेनों में छूट गया तो किसी को स्वयं उसके मां-बाप ने ठुकराया। कोई माता-पिता के मार के डर से जिन्दगी के अनजान सफर पर चल पड़ा तो कुछ बच्चे गरीबी व भुखमरी के कारण अपने या अपने परिवार का पेट पालने के लिए रेलवे प्लेटफार्म का शरण लिया तो किसी का जन्म ही रेलवे प्लेटफार्म पर हुआ। या किसी को माता-पिता के मरने के बाद रिश्तेदारों ने घर से निकाला। इनमें कई को तो अपना बचपन और अपने परिवार से बिछुड़ने की कहानी भी याद नहीं, बस इतना याद है जब से होश संभाला खुद को रेलवे प्लेटफार्म पर पाया। पर सबों की स्थिति लगभग एक सी है, कूड़ा चुनना, झाड़ू लगाना या भीख मांग कर जैसे-तैसे दो वक्त की रोटी का जुगाड़ करना। न बीते हुए कल का अफसोस न आने वाले कल की परवाह। न कोई ख्वाहिशें न कोई जीवन का उद्देश्य। चाहे स्वतंत्रता दिवस हो, शिक्षा दिवस या फिर बाल-दिवस। चाहे किसी की सरकार बने या किसी की सत्ता गिरे, वर्षों से इनकी जिन्दगी पर कोई फर्क नहीं पड़ता। चिथड़ों में लिपटी इनकी जिन्दगी यूं ही चलती रहती है। जिन्दगी की इन्हीं कशमोकश में कब बचपन बीत जाता है इन्हें पता भी नहीं चलता। इनकी सिर्फ एक ही नाम या पहचान होती है प्लेटफार्म का ‘कल्लड़’। इनको लेकर कभी न सरकार गंभीर हुई है न शिक्षा विभाग, समाज कल्याण विभाग और न ही कोई सरकारी या गैर सरकारी संगठन। कहने को तो ऐसे बच्चों के लिए सरकार ने कई कानून इजाद किया मसलन, शिक्षा का मौलिक अधिकार अधिनियम-2009, किशोर न्याय एवं बाल अधिकार अधिनियम-2000, मानवाधिकार अधिनियम-1993।
साथ ही इन बच्चों के लिए न जाने कितने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संगठन और आयोग का गठन भी किया गया जो वाकयी काबिले तारिफ हैं, बावजूद आज भी भारत वर्ष में करोड़ों बच्चे अशिक्षा, भूख और कुपोषण व नशे का शिकार बन बदहाली एवं मुफसिली की जिन्दगी गुजारने को बेबस हैं। क्या इन बच्चों के ऊपर बाल अधिकार, शिक्षा का अधिकार, स्वास्थ्य का अधिकार या खाद्य सुरक्षा कानून लागू नहीं होता? क्या यह सिर्फ राजनेताओं का बहस का एजेंडा मात्र रह गया है। अगर नहीं तो इन नौनिहालों की खो रही जिन्दगी और बचपन का जिम्मेवार कौन है? सरकार, विभाग, प्रशासन, आम नागरिक या हम सभी? जो सिर्फ ऐसे बच्चों की बदहाली और बेवसी का तमाशा देखते रहते हैं या यह सोच निश्चिंत हो जाते हैं कि चलो इन बेबस भिखारियों में कोई अपना नहीं है। या कभी-कभार तरस खाकर उनकी हथेली पर रुपया-दो रुपया का सिक्का रख अपनी उदारता का परिचय देते हैं और आगे बढ़ जाते हैं।
बहरहाल, बरौनी जंक्शन के ऐसे 40 बच्चों को शिक्षक अजीत और उनकी पत्नी समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में लगे हैं। ये दम्पति उन मासूमों की आंखों में सुनहरे कल के सपने सजा रहे हैं ताकि ऐसे बच्चों का कल संवारा जा सके और इन्हें भी सामान्य बच्चों की तरह समाज में एक पहचान मिले। ये कहते हैं हमारे जीवन का यह लक्ष्य है कि न सिर्फ बरौनी जंक्शन बल्कि वे तमाम बच्चे जो बालश्रम के रास्ते पर चलते हुए अपना जीवन और बचपन खो रहे हैं, के बचपन को बचाया जा सके। सरकार, विभाग के साथ-साथ हम सभी को ये याद रखने की जरूरत है कि ये बच्चे भी हमारे समाज का एक अंग हैं, ये बच्चे भी भारत के नागरिक हैं। इन्हें भी वह सभी अधिकार है जो भारतीय संविधान के अनुसार एक आम नागरिक या बच्चों को प्राप्त है। यदि यह जानते हुए भी हम इन्हें शिक्षा एवं बाल अधिकार से वंचित रखते हैं या इनके अधिकार को नजर अंदाज करते हैं तो यह न सिर्फ बाल अधिकार/मानवाधिकार का हनन है बल्कि बालश्रम एवं भ्रष्टाचार को बढ़ा वा देना है।
और शुरू हुआ बेसहारा बच्चों का एक अनोखा विद्यालय
फरवरी 2013 में शिक्षक अजीत ने पत्नी शबनम मधुकर एवं मित्र प्रशांत के सहयोग से बरौनी जंक्शन रेलवे प्लेटफार्म के खाली पड़े शेड (टी.पी.टी) में अनाथ बेसहारा बच्चों का एक अनोखा विद्यालय शुरू किया। सामान्य स्कूलों की तरह अब बच्चे भी रोज स्कूल में पढ़ाई से पहले प्रार्थना तथा योगा करते हैं और फिर शुरू होती है गीत, संगीत, पहेली, मुख अभिनय, चित्र, तालियां और चुटकियों जैसे रोचक गतिविधियों के द्वारा भाषा और गणित की पढ़ाई।
मंजिलें अभी और भी हैं, ये तो बस शुरुआत है…
शिक्षक अजीत एवं शबनम कहते हैं हमारा यह शैक्षणिक एवं नशामुक्ति अभियान न सिर्फ बरौनी जंक्शन के इन 40 बच्चों के लिए है बल्कि उन तमाम अनाथ, बेसहारा, आश्रयहीन, अति कठिन समूह के बच्चों के लिए है जो बिहार सहित पूरे भारत में लाखों की संख्या में अशिक्षा भूख, कुपोषण एवं नशे की गिरफ्त में अपना जीवन और बचपन खो रहे हैं। मंजिलें अभी और भी हैं ये तो बस एक नई समाजिक क्रांति की शुरुआत है ।
कहां से मिली अजीत को यह प्रेरणा?
अजीत का बचपन अपने पिता सीताराम पोद्दार के साथ बरौनी रेलवे स्टेशन पर चाय बेचते हुए गुजरा। अपने इरादे के मजबूत और धुन के पक्के अजीत शुरू से पढ़-लिखकर शिक्षक बनना चाहते थे। वर्ष 2003 में जीडी कॉलेज बेगूसराय से स्नातक की पढ़ाई पूरी कर वर्ष 2004 में उत्क्रमित मध्य विद्यालय रेलवे, बरौनी में भाषा एवं गणित शिक्षक के रूप में नियुक्त हुए। अपने संघर्ष के दिनों में इन्होंने रेलवे प्लेटफार्म पर मुफलिसी की जिन्दगी गुजार रहे सैकड़ों अनाथ, बेसहारा, आश्रयहीन बाल श्रमिक बच्चों की जिंदगी को काफी करीब से देखा एवं उनके दर्द को महसूस किया जो पढ़ने-लिखने व खेलने की उम्र में अशिक्षा, भूख, कुपोषण और नशे की गिरफ्त में पड़कर उम्र से पहले ही अपना जीवन और बचपन खो देते हैं। ऐसे गुमराह हो रहे लाखों बच्चों को शिक्षा और समाज की मुख्यधारा से जोड़ने को ही शिक्षक अजीत ने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।