राज्यपाल की नाराजगी क्या मंत्री को पदच्युत कर सकती है?
प्रदेश के चर्चित और प्रभावशाली मंत्री आजम खां के संसदीय व्यवहार के प्रति राज्यपाल राम नाईक की अप्रसन्नता ने एक रोचक संवैधानिक प्रश्न उठा दिया है। क्या राज्यपाल की अप्रसन्नता (व्यक्तिगत नहीं) किसी मंत्री को उसके पद से हटाने का कारण बन सकती है? राज्यपाल मुख्यमंत्री की सलाह पर मंत्रियों की नियुक्ति करता है और उसी की सिफारिश पर किसी मंत्री को हटाता भी है। किसी मंत्री को हटाने का सीधा अधिकार राज्यपाल को नहीं है, लेकिन संविधान का अनुच्छेद 164 कहता है कि “मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति वह मुख्यमंत्री की सलाह पर करता है। सभी मंत्री अपना पद राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत धारण करते हैं” यह “राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत” का क्या आशय है? संविधान निर्माताओं ने जब यह शब्द इस अनुच्छेद में जोड़ा तो उनका मंतव्य क्या था? इसकी कोई व्याख्या या स्पष्टीकरण संविधान में नहीं मिलता। शाब्दिक अर्थ यही निकलता है कि सभी मंत्री तब तक अपना पद धारण करते हैं जब तक कि राज्यपाल उनसे खुश या संतुष्ट रहते हैं। तो, क्या राज्यपाल किसी मंत्री से नाखुश/असंतुष्ट होने पर उसे पद से हटा सकते हैं? राज्यपाल कई बार साफ-साफ कह चुके हैं कि आजम खान के सदन में दिए गए बयान निंदनीय हैं और मैंने मुख्यमंत्री से भी इस बारे में बात की है। वे इस बात से इनकार करते हैं कि उन्होंने आजम को मंत्रिमण्डल से हटाने को कहा है। राज्यपाल पहले भी आजम खान के मामले में न केवल अपनी अप्रसन्नता व्यक्त कर चुके हैं बल्कि संसदीय मंत्री होने की उनकी योग्यता पर सवाल भी उठा चुके हैं। संविधान कहता है कि राज्यपाल को राष्ट्रपति किसी भी समय हटा सकते हैं। राज्यपाल की नियुक्ति सम्बंधी अनुच्छेद में लिखा गया है कि “राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत पद धारण करता है।” यह व्यवस्था ठीक वैसी ही है जैसी कि मंत्रियों के बारे में की गई है कि “सभी मंत्री अपना पद राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत धारण करते हैं।”
महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि यदि राष्ट्रपति राज्यपाल को किसी भी समय हटा सकते हैं तो मंत्रियों के संदर्भ में “राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत” की वही परिभाषा क्यों नहीं की गई या की जा सकती? वैसे, राष्ट्रपति किसी राज्यपाल को तभी हटाते हैं जब केंन्द्रीय मंत्रिमण्डल ऐसी सिफारिश करता है लेकिन इस बारे में संविधान साफ कहता है कि राष्ट्रपति राज्यपाल को किसी भी समय हटा सकते हैं। किसी मंत्री के बारे में “राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत” की व्याख्या सुप्रीम कोर्ट ही कर सकता है। इसका एक ही रास्ता था कि राज्यपाल राम नाईक इस प्रकरण पर राष्ट्रपति की राय मांगते और राष्ट्रपति उसे सुप्रीम कोर्ट को संदर्भित करते। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ही इसकी व्याख्या करने में सक्षम है। फिलहाल ऐसा कोई संकेत नहीं है कि वे इस मामले में “राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत” की व्याख्या कराने को उत्सुक हों। संसदीय मंत्री आजम खान ने राज्यपाल पर साम्प्रदायिक आधार पर माहौल खराब करने और मोदी सरकार के इशारे पर काम करने का आरोप लगाया था। आजम खान ने विधान सभा में यहां तक कह दिया था कि राज्यपाल एक पार्टी के इशारे पर कई महत्वपूर्ण विधेयकों को रोके हुए हैं। मामला उस विधेयक का था जिसके जरिए सपा सरकार कुछ नगर प्रमुखों को हटाना चाहती थी। ज्यादातर नगर प्रमुख भाजपा के हैं। आजम खान ने कहा था कि राज्यपाल नहीं चाहते कि एक खास पार्टी के उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई हो, जो गलत काम कर रहे हैं। इसी प्रसंग में विधान सभाध्यक्ष ने भी कहा था कि राज्यपाल को जनहित के मामलों पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। यह विवादास्पद ‘उ प्र नगर निगम (संशोधन) विधेयक-2015’ प्रदेश विधान सभा ने पिछले साल पारित किया था जो सरकार को निर्वाचित नगर प्रमुखों को हटाने का अधिकार देने के वास्ते लाया गया था। इसमें नगर निकायों के अधिकारों में कटौती करने का भी प्रावधान है। कहना होगा कि यह सब संविधान के 72-73वें संविधान संशोधन की भावना के खिलाफ है। खैर, आजम खान के वक्तव्य का एक तिहाई हिस्सा बाद में सदन की कार्यवाही से निकाला गया। राज्यपाल ने विधानसभाध्यक्ष से आजम खान के बयान की असम्पादित और सम्पादित प्रति और ऑडियो रिकॉर्डिंग मांगी थी। उसके बाद राज्यपाल ने विधान सभा अध्यक्ष को पत्र लिखा कि यदि संसदीय मंत्री के सदन में दिए गए वक्तव्य का एक तिहाई भाग असंसदीय मान कर कार्यवाही से हटाया गया है तो क्या वह मंत्री इस पद के योग्य हैं भी? पत्र की प्रति मुख्यमंत्री को भेजी गई थी।
राज्यपाल ने इसी मामले में विधान सभाध्यक्ष की सदन में की गई टिप्पणी को भी मुद्दा बनाया था और उन्हें बातचीत के लिए बुलाया था। विधान सभाध्यक्ष जब राज्यपाल से मिले तो राज्यपाल ने उनसे साफ कहा कि संसदीय मंत्री की टिप्पणी के उस अंश को तत्काल कार्यवाही से हटाया जाना चाहिए था। बाद में उसे हटाने से क्या फायदा हुआ जबकि उनकी बात सार्वजनिक हो चुकी थी? यहां यह भी उल्लेख करना उचित होगा कि राज्यपालों को संविधान कुछ “विवेकानुसार कार्य” करने की इजाजत देता है (अनुच्छेद 163) जो कि राष्ट्रपति को हासिल नहीं है, इसी अनुच्छेद में एक और महत्वपूर्ण बात कही गई है कि राज्य के “सभी मंत्री राज्य विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से और व्यक्तिगत रूप से राज्यपाल के प्रति उत्तरदाई होंगे।” व्यवहार में माना यही जाता है कि मंत्री विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार हैं और राज्यपाल के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं है। संविधान साफ कहता है कि मंत्री राज्यपाल के प्रति व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार हैं। पूछा जा सकता है कि आजम खान ने इस जिम्मेदारी को निभाया?
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन के लिए संविधान ने स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं दिए हैं। “ऐसा होने पर ऐसा किया जाए” जैसे निर्देश कहीं नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट भी जब संवैधानिक प्रावधानों की व्याख्या करता है तो “संविधान निर्माताओं की मंशा’ के मद्देनजर ही करता है। मंत्रियों को हटाने का प्रसंग ही लें। मंत्री विधायक के रूप में जनता द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं जबकि राज्यपाल जनता द्वारा नहीं चुने जाते। वे मनोनीत अथवा नियुक्त होते हैं। संविधान निर्माताओं की स्पष्ट मंशा यह रही है कि जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि को किसी “नियुक्त” पदाधिकारी द्वारा नहीं हटाया जाना चाहिए। इसके उलट जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि किसी “नियुक्त” पदाधिकारी को हटा सकते हैं, ऐसी व्यवस्था संविधान निर्माताओं ने की। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों में संविधान ने बहुत भरोसा किया है, उन्हें शक्तियां दी हैं क्योंकि वही ‘जनता’ है जो लोकतंत्र के मूल में है। यह अलग बात है कि आजकल कैसे-कैसे लोग चुन कर जनप्रतिनिधि बनने लगे हैं।
बहरहाल, संविधान में उल्लिखित “सभी मंत्री राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत अपना पद धारण करते हैं” का आशय क्या है? यह यूं ही तो नहीं लिखा गया होगा! संविधान निर्माताओं ने यह जरूर सोचा होगा कि कभी ऐसी स्थिति आ सकती है जब राज्यपाल को लगे कि कोई मंत्री अपने आचरण से उसके ‘प्रसाद’ का पात्र नहीं रह गया है। तब राज्यपाल ‘प्रसाद पर्यंत’ का विवेक सम्मत इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन कैसे? क्या वे मुख्यमंत्री से कहें कि अमुक मंत्री ने इन-इन कारणों से हमारा भरोसा खो दिया है और वह मंत्री पद पर रहने लायक नहीं है? इसकी व्याख्या होनी शेष है। कहना चाहिए कि आजम खान के आचरण के सम्बंध में राज्यपाल राम नाईक ने बहुत जरूरी और संविधान सम्मत हस्तक्षेप किया। अगर भविष्य में कभी सुप्रीम कोर्ट को “राज्यपाल के प्रसाद पर्यंत” की व्याख्या करने की नौबत आई तो राज्यपाल राम नाईक की पहल का उल्लेख जरूर होगा। फिलहाल तो समाजवादी पार्टी पूरी तरह आजम खान के साथ है। उन्हें राज्यपाल के खिलाफ बोलने में संयम बरतने की सलाह देने की बजाय दूसरे सपा नेता भी राज्यपाल राम नाईक को राजनीतिक निशाना बनाने लगे हैं। ’