‘एक कप चाय’ से छंट सकती है रिश्तों पर छाई ‘कोरोना-फीस’ की धुंध
कौशल मूंदड़ा : अभिभावक अपने बच्चों का जीवन संवारने के लिए बच्चों को स्कूल भेजते हैं। अभिभावक बच्चे के ढाई साल का होते ही स्कूलों के बारे में जानकारी एकत्र करना शुरू कर देते हैं कि कौन-सा स्कूल उनके बच्चे के लिए 12वीं तक ठीक रहेगा। अभिभावक जिस स्कूल के साथ यह रिश्ता जोड़ते हैं उसी वक्त उस बच्चे के लिए वह स्कूल दूसरा परिवार हो जाता है। लेकिन, इस कोरोना काल में मानो दो परिवारों के बीच तकरार और तलाक जैसी स्थिति आ गई है।
कोरोना काल में जहां परिवारों को यह समझ में आया कि परिवार साथ था इसलिए ये पीड़ादायी काल कट गया, कुछ दुःख भी आया तो बंट गया, लेकिन निजी स्कूल और अभिभावकों के बीच फीस को लेकर दूरियां बढ़ती गई। ऐसा नहीं है कि फीस का मुद्दा पहली बार बना हो, लेकिन कोरोना काल ने अभिभावकों की जेब को सिकोड़ दिया तो मुद्दा गंभीर होता गया। फिर भी इस मुद्दे पर माननीय उच्च न्यायालय ने दोनों पक्षों को अपने निर्णय की राहत दी। कोई अतिशयोक्ति नहीं कि न्यायालय ने यदि अभिभावक का ध्यान रखा तो निजी स्कूलों को भी राहत दी।
कितनी फीस लेनी है इस पर जब माननीय उच्च न्यायालय ने अपना स्पष्ट निर्णय दे दिया, तब लगा था कि स्कूल और अभिभावक के बीच छाई कोरोना की धुंध छंट जाएगी, लेकिन ढाक के वही तीन पात। कुछ ही सही, लेकिन कतिपय स्कूलों द्वारा फिर से न्यायालय के निर्णय को एक ओर रखते हुए अपनी मनमानी की शिकायतें आनी शुरू हो गई। बात फिर उसी दौर में पहुंच गई जहां से लड़ाई शुरू हुई थी और वह थी कुल फीस को येन केन प्रकारेण ट्यूशन फीस दर्शाना।
अब भले ही यह शिकायत राज्य के कुछ स्कूलों से सामने आ रही है, लेकिन इसका असर उन शेष स्कूलों पर भी पड़ा है जिन्हें इतनी तो तसल्ली हुई थी कि अब माननीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार ट्यूशन फीस की 60 (आरबीएसई) व 70 (सीबीएसई) प्रतिशत फीस अभिभावक जमा कराने को राजी होंगे और साल भर से डावांडोल स्कूल की व्यवस्थाएं, शिक्षकों का वेतन, अन्य कार्मिकों का वेतन फिर से पटरी पर आना शुरू हो सकेगा।
हालांकि, यह बात और है कि माननीय उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी साफ कहा है कि निजी स्कूलों को अपना फीस चार्ट व अन्य सभी लेखा-जोखा उनकी वेबसाइट पर जाहिर करना है। इस आदेश का सीधा संकेत यही है कि स्कूल पिछले साल की विभिन्न मदों में ली जाने वाली फीस में कोई उलटफेर न करें और अभिभावक अपने पास मौजूद फीस कार्ड से वेबसाइट पर जाहिर की जाने वाली जानकारी की तुलना भी कर सकें। ताकि अभिभावक के मन में कोई संशय न हो।
इस आदेश की पालना अब तक राज्य के किसी स्कूल ने की हो, ऐसा सामने नहीं आया है। और तो और स्कूलों ने अभिभावकों को अलग से फीस गणना के नए-नए नोटिस भेजने शुरू कर दिए हैं। कुछ बड़े स्कूलों की ओर से जारी ऐसे नोटिसों के आधार पर यह सामने आया है कि स्कूलों ने पूरी फीस को ही ट्यूशन फीस दर्शाना शुरू कर दिया है। इतना ही नहीं, आनलाइन कक्षाओं के लिए शुल्क भी अलग से जोड़ लिया है। अब पता नहीं उन्हें यह कौन समझाएगा कि फीस दोहरी नहीं की जा सकती।
लगे हाथ स्कूल फीस में उलटफेर कर कुछ लाभ की मंशा रखने वाले स्कूलों को यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हर अभिभावक अपने इनकम टैक्स में रिबेट के लिए रिटर्न भरने के दौरान स्कूल की ट्यूशन फीस को भी जाहिर करता है और नियमानुसार स्कूल की ट्यूशन फीस ही रिबेट में मान्य होती है। ऐसे में अभिभावकों के आईटीआर में स्कूलों के फीस कार्ड अटैच्ड हैं और केन्द्र सरकार तक के दस्तावेजों में दर्ज हैं, सरकार चाहे तो उन्हें टटोल कर भी ट्यूशन फीस की हकीकत पता कर सकती है।
हर अभिभावक पिछले साल के फीस कार्ड की तुलना नए नोटिस से कर रहा है और खुद को ठगा-सा महसूस कर रहा है। उसके मन में यही सवाल है कि माननीय न्यायालय से उसे राहत जरूर मिली है, लेकिन अब तक वह राहत अभी लागू नहीं हुई है। अपनी पीड़ा लेकर अभिभावक पहले ही उच्च न्यायालय की शरण में गया था, जहां से उसे राहत भरा निर्णय मिला, लेकिन अब फिर से वह पसोपेश में है कि यह निर्णय लागू करवाने के लिए उसे कार्यपालिका, विधायिका की ओर देखना होगा या दुबारा अवमानना की याचिका लेकर न्यायपालिका का दरवाजा खटखटाना होगा।
इधर, भ्रष्टाचार पर जीरो टोलेरेंस का दम्भ भरने वाली राजस्थान की सरकार को निजी स्कूलों का भ्रष्टाचार नजर नहीं आ रहा है। माननीय उच्च न्यायालय के आदेश की अवमानना भी एक तरह का भ्रष्टाचार ही है, लेकिन आदेश की पालना कराना तो दूर राजस्थान की कार्यपालिका निजी स्कूलों को सख्त निर्देश देने का साहस भी नहीं दिखा पा रही है।
पर, कार्यपालिका तक बात ही क्यों जानी चाहिए। सोचना स्कूलों को है कि क्या वे अभिभावकों को क्लाइंट मानने लगे हैं और बच्चों को उत्पाद, जैसे कि आजकल तो बात-बात में कहा भी जाने लगा है कि यह अमुक स्कूल का प्रोडक्ट है। शायद इसी प्रोडक्ट शब्द ने हमारे देश की ‘विद्यादान’ की संस्कृति को भी दूषित कर दिया है। ये बच्चे कोई प्रोडक्ट नहीं हैं, ये देश का भविष्य हैं जिसे स्कूल ही कुम्हार की तरह आकार देता है और अभिभावक स्कूल के हाथ में कोई बिगड़ी हुई मशीन नहीं देता जिसे दुरुस्त करके लौटाना हो, वह नई पीढ़ी को स्कूल के हाथ में सौंप रहा है, क्योंकि स्कूल सर्जक है जो बच्चे को देश का बेहतर नागरिक बनाता है।
इस सम्बंध पर छाई कोरोना की धुंध पर प्रगाढ़ता की धूप खिलनी जरूरी हो गई है। ऐसे में माननीय न्यायालय के निर्णय के सम्मान के साथ यह भी जरूरी है कि अभिभावकों से स्नेह सम्बंधों को फिर से स्थापित करने के लिए ‘एक कप चाय’ साथ में ली जाए। बेशक कोरोना बचाव की गाइडलाइन के चलते सीमित संख्या में अलग-अलग समूहों में यह चर्चा हो। न तो अभिभावक स्कूल के दुश्मन हैं, न ही अभिभावकों के लिए स्कूल दुश्मन है, क्योंकि कोई अपने बुढ़ापे की लाठी को किसी दुश्मन के हाथ में तो देने से रहा। पहल होनी जरूरी है, ऑनलाइन पहल हुई भी है, लेकिन अब आपसी मुलाकात भी जरूरी हो गई है। ठीक है सवाल उठेंगे तो समाधान भी निकलेंगे। ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान वार्ता से न हो। दो देशों का मनमुटाव भी वार्ताओं से दूर हो सकता है, तो स्कूल और अभिभावक तो एक परिवार हैं। शायद आप महसूस भी करेंगे कि एक साल के दौरान यह मिलना-मिलाना कम हो गया, इसी के कारण दूरियां बढ़ गईं।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)