दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

भारत के 1980-95 तक की राजनीति की एक झलक

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग-4

सन् 89 के चुनाव मे कांग्रेस हारी। बोफोर्स का मुद्दा वैसा ही बना रहा। दुर्भाग्य से 1991 के चुनावों के बीच श्री राजीव गांधी की बम विस्फोट से दुखद मृत्यु हो गई। LTTE आतंकवादी संगठन इसके लिये जिम्मेदार था।

इसी कालखंड मे राम रथ यात्रा की राजनीति ने भारतीय राष्ट्रीय चेतना को भारत की मुख्यधारा बनने की ओर बढ़ा दिया। भारत अपनी जड़ों की ओर मुखातिब हुआ। 1991 के चुनाव परिणामों के बारे मे लिखा गया कि Winner Comes Second. अब हिन्दुत्व राष्ट्रीय पटल पर स्थापित होने की और बढ़ गया। भले ही शेष सभी ने मिलकर कांग्रेस को सत्तासीन किया हो।

छद्म सेकुलरवाद अब सेकुलरवाद की जगह पा चुका था। वह अब सवालों के घेरे मे था। 6 दिसंबर 1992 को बाबरी ढांचा ढह गया। सेकुलरवादियों की अन्यायपूर्व जिद की प्रतिक्रिया थी यह घटना।
भारतीयों के स्विस बैंक मे जमा काले धन की वापसी मांग उठने लगी। साथ में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की मांग जोर पकड़ने लगी। श्री राजीव गांधी की मृत्यु के बाद नरसिंहराव, मनमोहन सिंह की जोड़ी के सत्तासीन होने के बाद बाजारवाद, विदेशी आर्थिक ताकतों को भारत मे पैर जमाने की सुविधा मिल गई।

पिछले 10 वर्षों में बाजारवाद, विदेशी पूंजी, उदारीकरण की सोच मध्यवर्ग के लुभाने मे कामयाब हुई।  1991-95 के बीच इसे संगठित और स्वीकृत ढंग से काबिज होने में सभी प्रमुख राजनैतिक दलों की सहमति मिली। भाजपा ने 1991-92 में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार अभियान मे पार्टी के नाते हिस्सा नही लिया था। 1991-95 के बीच वे Liberalisation, Privatisation, Globalisation के प्रति आम सहमति के हिस्सेदार हो चुके थे।

पार्टी में कुछ लोग जो बाजारवाद के खिलाफ और राजसत्ता और अर्थसत्ता के विकेन्द्रीकरण के पक्षधर थे, पार्टी मे अप्रभावी होने लगे। संघ परिवार के संगठन मे संभ्रम फैला, एक वाच्यता नही रही। यह उल्लेख जरुरी है क्योंकि कांग्रेस की ढलाव से भाजपा के सत्तासीन होने के लिये अनुकूल वातावरण बनता जा रहा था।

विदेशी पूंजी निवेश, उसकी भारतीय अर्थव्यवस्था मे हिस्सेदारी की मात्रा और विधि आदि सभी विषयो मे आपसी संवाद फलहीन रहे। वैश्वीकरण के पथ में आम सहमति दलों के बीच बनती गई। LPG के प्रति विरोध को प्रतिगामी करार दिया गया। झोलाछाप की गुहार, या हताश, हारे लोगों का प्रलाप आदि विशेषणों से स्वदेशी के पक्षधर लोगों को नवाजा गया। सिद्धान्त की राजनीति के स्थान पर सुविधा की राजनीति को व्यवहारिकता का तमगा पहनाया गया।

कोई मध्यस्थता एक विचार परिवार के संगठनों मे नही हो सकी। मध्यमार्ग कहकर विदेशी पूंजी, LPG का समर्थन जुटाया गया। 1991 डंकल ड्राफ्ट, 1994 माराकेश में भारत ने WTO की सदस्यता के पक्ष मे हस्ताक्षर किये। जनवरी 1995, पहली तारीख से विश्व व्यापार संगठन के जाल मे बिना पूरा विचार किये भारत फँस गया।

भारत की राष्ट्रीय चेतना का प्रसार को भारत के सांस्कृतिक, सामाजिक पटल पर स्थान मिला। परन्तु राजनैतिक, आर्थिक धरातल पर विदेशी अनुकरण, उसमे भी यूरोप, अमेरिका के अनुकरण की राह पर भारतीय समाज बढ़ चला। 1980 से 1995 की इस कथा यात्रा मे बाहुबल का राजनीति मे वर्चस्व बढ़ना एक पहलू रहा। भारत की राष्ट्रीय अस्मिता को आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था परिवर्तन के लिये अनुकूल स्थितियाँ नही मिली यह एक और महत्वपूर्ण पहलू है।

बाहुबल, सैन्य बल के साथ धन बल उपयोग की भूमिका बनने लगी। राजनीति या सार्वजनिक जीवन पर पहले सत्ताबल की परत चढ़ी। अब 1980-95 के बीच बाहुबल, हथियारवाद की दादागिरी के साथ धनबल की भूमिका बढ़ने की आहट भी 1995 से आने लगी। एनरान पावर प्रोजेक्ट की घटनाक्रम ने सिद्ध किया कि राष्ट्र के लिये जिम्मेदार वर्ग की नजर में ध्येयवाद, आदर्शवाद, विचारधारा की उपेक्षा करते हुए सत्ता पाना, कायम रहना ही मध्य मार्ग होता। फलतः यह ढलान का यथास्थितिवाद और बाजारवाद की अधीनता ही परिणाम होता जो हुआ।

Related Articles

Back to top button