एक ऐसा मंदिर जहां हर वर्ष राष्ट्रपति भवन से भेंट किया जाता है नमक
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में लोक देवताओं से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सबसे रोचक है लोक देवता महासू की कथा। न्याय के देवता के रूप में प्रतिष्ठित महासू देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर से संबंध रखते हैं। इनका मुख्य मंदिर टोंस नदी के पूर्वी तट पर चकराता के पास हनोल गांव में स्थित है, जो कि त्यूणी-मोरी मोटर मार्ग पर पड़ता है।
उत्तराखंड के अलावा शिमला के ऊपरी भागों और सिरमौर जिले के कुछ भागों में भी महासू देवता को इष्ट देव के रूप में मान्यता प्राप्त है। महासू देवता का कालांतर में वास कश्मीर में माना जाता है। महासू जिले में यह देवता एक ब्राम्हण के अनुरोध पर इस क्षेत्र में दानव के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए थे। कहते है की उस समय यमुना और तौंस नदी के बीच आने वाले क्षेत्र में दानवों का आतंक था जिससे जिसका निवारण महासू देवता ने ख़तम किया था।
हनोल में स्थित महासू देवता का ये मंदिर एक अनोखा मंदिर है। यहां की सबसे ज़्यादा दिलचस्प बात तो ये है कि यहां हर साल दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन की ओर से नमक भेंट किया जाता है।
मिश्रित शैली की स्थापत्य कला को संजोए यह मंदिर देहरादून से 190 किमी और मसूरी से 156 किमी दूर है। यह मंदिर चकराता के पास हनोल गांव में टोंस नदी के पूर्वी तकट पर स्थित है। हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्राह्मण हूणा भाट के नाम से मानी जाती है। इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी।मान्यता है की द्वापर युग में पांडव लाक्षागृह (लाख के घर) से सुरक्षित निकलकर इसी स्थान पर आए थे। यह मंदिर नवीं सदी का माना जाता है। जबकि, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) के रिकार्ड में मंदिर का निर्माण 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है। वर्तमान में इस मंदिर का संरक्षण पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ही कर रहा है। खुदाई के दौरान पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को यहां यहां शिव-शक्ति, शिवलिंग, दुर्गा, विष्णु-लक्ष्मी, सूर्य, कुबेर समेत दो दर्जन से अधिक देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। इन्हें हनोल संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है।
महासू देवता के मंदिर के गर्भ गृह में भक्तों का जाना मना है। केवल मंदिर का पुजारी ही मंदिर में प्रवेश कर सकता है। यह बात आज भी रहस्य है। मंदिर में हमेशा एक ज्योति जलती रहती है जो दशकों से जल रही है। मंदिर के गर्भ गृह में पानी की एक धारा भी निकलती है, लेकिन वह कहां जाती है, कहां से निकलती है यह अज्ञात है। दरअसल ‘महासू देवता’ एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द ‘महाशिव’ का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू है, जो कि भगवान शिव के ही रूप हैं।
लोक मान्यता है की पांडवों ने घाटा पहाड़ ( शिवालिक पर्वत शृंखला) से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से हनोल मंदिर का निर्माण कराया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह में सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन का घाटा पहाड़ से लाया गया एक विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है। बेजोड़ नक्काशी मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है।
महासू मंदिर हनोल के परिसर में सीसे के दो गोले मौजूद हैं, जो पांडु पुत्र भीम की ताकत का अहसास कराते हैं। मान्यता है कि भीम इन गोलों को कंचे (गिटिया) के रूप में इस्तेमाल किया करते थे। आकार में छोटे होने के बावजूद इन्हें उठाने में बड़े से बड़े बलशालियों के भी पसीने छूट जाते हैं। इन गोलों में एक का वजन छह मण (240 किलो) और दूसरे का नौ मण (360 किलो) है
उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है। वर्तमान में महासू देवता के भक्त मन्दिर में न्याय की गुहार करते हैं जो उनकी पूरी होती है।