अमेरिका का आदर्श लोकतंत्र हुआ ध्वस्त
प्रमोद भार्गव : दुनिया के सबसे सफल माने जाने वाले लोकतंत्र में अराजकता का साम्राज्य निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की स्पष्ट हार के बावजूद हिलोरें मार रहा है। हालांकि ट्रंप की चुनाव नतीजों पर आ रही प्रतिक्रियाओं से यह आशंका जाहिर हो रही थी कि सत्ता-लोलुप ट्रंप सत्ता का हस्तांतरण बाइडेन को आसानी से नहीं करेंगे। यह आशंका मतदान के 64 दिन बाद 7 जनवरी 2021 को उस समय सही साबित हुई, जब ट्रंप सर्मथकों ने अमेरिकी संसद में बाइडेन की जीत पर मुहर लगने के साथ यूएस कैपिटल में घुसकर हिंसक हमला बोल दिया। अमेरिकी संसद के इतिहास में यह जो काला अध्याय जुड़ा है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। लोकतांत्रिक और मानवाधिकार मूल्यों की दुहाई देने वाला अमेरिका अब सीधे मुंह अन्य देशों को सदाचार पर उपदेश नहीं दे पाएगा।
दरअसल ट्रंप ने अपने चार वर्ष के कार्यकाल में शुरुआत से ही नस्लीय विभाजन के बीज बोना शुरू कर दिए थे। इसीलिए अमेरिका का एक बड़ा समुदाय ट्रंप के हर अतिवादी निर्णय का प्रबल समर्थक रहा है। ट्रंप ने राष्ट्रवाद की धारणा को आगे बढ़ाने के लिए कई तरह से मूल अमेरिकियों के हित साधने की कोशिश जरूर की, लेकिन वे आर्थिक विषमता की खाई को नहीं पाट पाए। आज अमेरिका वासियों के हालात ऐसे खराब हैं कि पांच करोड़ से भी ज्यादा लोग खाद्य असुरक्षा से जूझ रहे हैं। 31.5 करोड़ की आबादी वाले अमेरिका में हर छठा व्यक्ति और चौथा बच्चा भूखा है। बहरहाल, खरबों के कारोबारी ट्रंप ने पैदा हुई शर्मसार स्थिति से सबक लेते हुए बाइडेन को सत्ता सौंपने का मन बना लिया है।
तीन नबंवर 2020 को हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में बाइडेन को 306 और ट्रंप को 232 वोट मिले। साफ है कि ट्रंप को मतदाताओं ने हरा दिया, बावजूद ट्रंप ने हार नहीं कबूली। ट्रंप ने मतदान और मतगणना में बड़े पैमाने पर धांधली के आरोप लगाए और कई राज्यों की अदालतों में मामले भी दर्ज किए। ज्यादातर में ट्रंप सर्मथकों की अपीलें खारिज हुईं। दो मामलों में उच्चतम न्यायालय ने भी याचिकाएं रद्द कर दी। बीच-बीच में ट्रंप नस्लीय भेद बढ़ाने के लिए भी अपने लोगों को उकसाते रहे। इसी का परिणाम लोकतंत्र के सबसे पवित्र मंदिर संसद पर हमला था। यहां सवाल उठता है कि अमेरिका एक तरफ तो दुनिया का सबसे सशक्त लोकतंत्र होने का दावा करता है। लेकिन वहां चुनाव प्रक्रिया और चुनाव परिणाम प्रक्रिया इतनी लंबी चलती है कि जिसे हारते हुए उम्मीदवार को झेलना मुश्किल होता है। इसीलिए बहुसंख्यकों के हिमायती ट्रंप अपने सर्मथकों को मानसिक संतुलन खो देने की स्थिति तक उकसाते रहे। उन्हें खामियों और उलझनों से भरी चुनाव प्रक्रिया में विभाजन का पूरा मौका मिला और वे संसद की ओर कूच कर गए। इस स्थिति से सबक लेते हुए नई सरकार को अपनी चुनाव प्रणाली सशक्त बनाने की जरूरत है, जिससे चुनाव और परिणाम प्रक्रिया को लंबे दौर से गुजरने की जरूरत न पड़े। इस नाते अमेरिका भारतीय संवैधानिक लोकतंत्र से प्रेरणा लेकर अपनी चुनाव प्रणाली में संशोधन कर सकता है।
अमेरिका में लोकतंत्र का अतीत जितना लंबा है, उतना ही लंबा इतिहास नस्लीय विभाजन का भी रहा है। इस चुनाव में पुलिस व प्रशासन की जो बेवजह शक्ति अश्वेत समुदाय के विरुद्ध देखने में आई और इस कठोरता के खिलाफ जो प्रदर्शन हुए उनसे साफ नजर आने लगा था कि इन चुनावों के दौरान नस्लीय भेद की खाई और चौड़ी हो रही है। दरअसल अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमले के बाद भारत और पाकिस्तान समेत सभी अश्वेतों के विरुद्ध हमले तेज हुए हैं। दाढ़ी और पगड़ी वालों को लोग नस्लीय भेद की दृष्टि से देखने लगे हैं। इसके बाद आग में घी डालने का काम ट्रंप की नस्लभेद से जुड़ी उपराष्ट्रीयताएं करती रही हैं। नस्लीय मानसिकता रखने वाले मूल अमेरिकी ट्रंप की टिप्पणियों के बहकावे में न केवल आम लोग बल्कि सेना और पुलिस के लोग भी आते रहे हैं।
ओबामा जब दूसरी बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तब गैर अमेरिकियों में यह उम्मीद जगी थी कि वह अपने इतिहास की श्वेत-अश्वेत के बीच जो चौड़ी खाई है, उसे पाट चुके हैं, लेकिन यह उम्मीद गलत साबित हुई। दरअसल अमेरिका में रंगभेद, जातीय भेद एवं वैमनस्यता का सिलसिला नया नहीं है। इसकी जड़ें बहुत गहरी हैं। इन जड़ों की मजबूती के लिये इन्हें जिस रक्त से सींचा गया था वह भी अश्वेतों का था। अमेरिकी देशों में कोलम्बस के मूल्यांकन को लेकर दो दृष्टिकोण सामने आये हैं। एक उन लोगों का है, जो अमेरिकी मूल के हैं और जिनका विस्तार व अस्तित्व उत्तरी एवं दक्षिणी अमेरिका के अनेक देशों में है। दूसरा दृष्टिकोण या कोलम्बस के प्रति धारणा उन लोगों की है, जो दावा करते हैं कि अमेरिका का वजूद ही हम लोगों ने खड़ा किया है। इनका दावा है कि कोलम्बस अमेरिका में इन लोगों के लिए मौत का कहर लेकर आया। क्योंकि कोलम्बस के आने तक अमेरिका में इन लोगों की आबादी 20 करोड़ के करीब थी, जो अब घटकर 10 करोड़ के आसपास रह गई है। इतने बड़े नरसंहार के बावजूद अमेरिका में अश्वेतों का संहार लगातार जारी है। अवचेतन में मौजूद इस हिंसक प्रवृत्ति से अमेरिका मुक्त तो नहीं हो पाया, बल्कि ट्रंप के राष्ट्रपति बने रहने के दौरान इस प्रवृत्ति में निरंतर इजाफा ही हुआ।
अमेरिका की कुल जनसंख्या 31.50 करोड़ है, इस आबादी की तुलना में उसका भू-क्षेत्र बहुत बड़ा, यानी 98,33,520 वर्ग किमी है। इतने बड़े भू-लोक के मालिक अमेरिका के साथ विडंबना यह भी रही है कि 15वीं शताब्दी तक इसकी कोई स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पहचान नहीं थी। दुनिया केवल एशिया, यूरोप और अफ्रीका महाद्वीपों से ही परिचित थी। 1492 में नई दुनिया की खोज में निकले क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की खोज की। हालांकि कोलंबस अमेरिका की बजाय भारत की खोज में निकला था। लेकिन रास्ता भटककर वह अमेरिका पहुंच गया। वहां के लोगों को उसने ‘रेड इंडियन’ कहकर पुकारा। क्योंकि ये तांबई रंग के थे और प्राचीन भारतीयों से इनकी नस्ल मेल खाती थी। हालांकि इस क्षेत्र में आने के बाद कोलंबस जान गया था कि वह भारत की बजाय कहीं और पहुंच गया है। बावजूद उसका इस दुर्लभ क्षेत्र में आगमन इतिहास व भूगोल के लिए एक क्रांतिकारी पहल थी। कालांतर में यहां अनेक औपनिवेशिक शक्तियों ने अतिक्रमण किया। 17वीं शताब्दी में आस्ट्रेलिया और अन्य प्रशांत महासागरीय द्वीप समूहों की खोज कप्तान जेम्स कुक ने की। जेम्स ने यहां अनेक प्रवासियों की बस्तियों को आबाद किया।
इसी क्रम में 1607 में अंग्रेजों ने वर्जीनिया में अपनी बस्तियां बसाईं। इसके बाद फ्रांस, स्पेन और नीदरलैंड ने उपनिवेश बनाए। 1733 तक यहां 13 बस्तियां अस्तित्व में आ गईं। इन सब पर ब्रिटेन का प्रभुत्व कायम हो गया। 1775 में ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध छिड़ गया। 4 जुलाई 1776 में जॉर्ज वाश्गिटंन के नेतृत्व में अमेरिकी जनता ने विजय प्राप्त कर ली और संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन कर स्वतंत्र और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में वह अस्तित्व में आ गया। इसीलिए कहा जाता है कि अमेरिका के इतिहास व अस्तित्व में दुनिया के प्रवासियों का बड़ा योगदान रहा है। साथ ही यहां एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा हुआ कि अमेरिका महाद्वीप के जो रेड इंडियन नस्ल के मूल निवासी थे, वे हाशिये पर चले गए। गोया, मूल अमेरिकी तो वंचित रह गए, अलबत्ता विदेशी-प्रवासी प्रतिभावन किंतु चालाक अमेरिका के मालिक बन बैठे। इस विरोधाभास का मूल्यांकन करके ट्रंप अपने पूरे कार्यकाल में चिंतित दिखाई देते रहे हैं। नतीजतन अमेरिका-फर्स्ट की नीति को महत्व देते रहे, जिसने रंगभेदी मानसिकता को अराजकता में बदलने का काम किया।
अमेरिका के नए राष्ट्रपति के लिए बढ़ता रंगभेद तो चुनौती होगा ही, चीन व रूस का रुख भी परेशान करने वाला होगा। लिहाजा बाइडेन को प्रत्येक कदम फूंक-फूंककर रखना होगा।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)