ज्ञान भंडार

भारतीय समाज को भारतीय नजरिये से समझने की एक कोशिश

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग-3

समाज के संदर्भ में विचार करते समय पंथ का विषय अत्यंत नाजुक, गंभीर और महत्वपूर्ण है। दुनिया ने पांथिक संघर्ष, भीषण रक्तपात भी झेला है। उसको समझने की कोशिश करें तो ध्यान मे आता हैं कि एक “ही संस्कृति” और दूसरी “भी” संस्कृति के नाते विचार करने की जरुरत है। “ही” संस्कृति याने मैं ही ठीक, तुम गलत। मेरा ही भगवान् भगवान्, तुम्हारा भगवान् शैतान। मेरा ही रास्ता ठीक है तुम्हारा रास्ता गलत हैं। मेरे रास्ते से तुम्हे स्वर्ग मे दाखिला मिलेगा, अन्य रास्तों से नरक मे जाओगे। तुम्हे सद्गति मिलना चाहिये। यह मेरे लिये कर्तव्य हैं, निर्देश हैं, मेरे पीछे चलो। मैं मंजिल तक पहुचाऊंगा। यह मेरा पांथिक कर्तव्य है। मेरे रास्ते पर न चलो तो तुम जीने के हकदार नहीं।

इस संस्कृति का उद्दगम क्षेत्र सामान्यतः जेरुसलेम है। इस संस्कृति के कारण यहूदियों का नरसंहार हुआ। पंथिक आधार पर सदियों क्रूसेड और जेहाद चला। “ही” संस्कृति के कारण पंथों के अंदर अलग-अलग धाराओं मे टकराव, हिंसा, नरसंहार हुए। आज भी चल रहे है। अपने मतावलंबियों के प्रति भाईचारा और अन्य मतावलंबियों के प्रति असहिष्णुता, अनादर का भाव “ही” संस्कृति के स्वभाव में है। दुनिया का लगभग पिछ्ला डेढ हजार वर्ष इस दृश्य को दोहराता रहा है।

पंथ तो व्यक्ति और परमात्मा के बीच कड़ी जोड़ने का साधन या प्रक्रिया भर हैं। हर व्यक्ति के हिसाब से यात्रा मार्ग तय होगा। हर व्यक्ति का गन्तव्य एक होने पर भी उसके अपने कफ, वात्त, पित्त की प्रकृति एवं सत्व, रज, तम गुण धर्म से उसकी यात्रा का मार्ग तय होगा। इसमे एकरूपीकरण संभव नही, उचित भी नहीं।

यह वैसा ही है जैसे हर व्यक्ति के लिये अलग-अलग दातौन का उपयोग ही स्वास्थ्यकर और उचित है। अपने-अपने दातौन का इस्तेमाल करें। अपना दातौन दूसरे भी अवश्य इस्तेमाल करे यह आग्रह प्रकृति विरोधी, अस्वास्थ्यकर और कुपरिणामकारी होगा। यह सामान्य सी बात है।अपने पंथ के प्रति अभिमान और दूसरे पंथ के प्रति सम्मान ही मानवोचित और प्रकृति अनुकूल विचार है।

इसी क्रम में विचार करें तो “भी” संस्कृति की उत्पत्ति है – भारतवर्ष। मेरे लिए मेरा भगवान् ठीक है, तुम्हारे लिये तुम्हारा भगवान् ठीक हो सकता है। मेरा रास्ता मेरे लिये ठीक, तुम्हारा रास्ता तुम्हारे लिये ठीक है। कोई भी दूसरे को अपने रास्ते को अपनाने की प्रकृति विरोधी जिद्द न करे, यही ठीक है। तब मतांतरण की जिद्द तो गलत है। जबरन या सामूहिक मतांतरण का कोई अर्थ नहीं।

भय, लोभ से मतांतरण तो भगवान् को भी नहीं स्वीकार्य होगा। पंथ व्यक्तिगत साधना का भी मार्ग है। इसमे सद्द्गुरु की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। गुरु चेला ढूंढने की जिद्द न करे, न चेला गुरु की खोज मे भटकता फिरे। क्योंकि पंथ तो अपने अंदर की चित्तशुद्धि की साधना है। मतांतरण प्रक्रिया नही परिणाम होना चाहिये। इस अर्थ मे क्रूसेड या जेहाद का भौतिक रूप त्याज्य है अग्राह्य है। उन्हें ऐसी खोज करना होगा कि क्रूसेड, जेहाद का परमार्थ में कौन-कौन से सुख, शान्ति, आनंदवर्धक पक्ष है। इसलिये हिंसा तो किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं की जा सकती है।

इस पृष्टभूमि मे विचार करने पर लगता है कि “ही” संस्कृति के पक्षधर कितने आध्यात्मिक हैं या नहीं यह बहस का विषय हो सकता है परन्तु संगठित हिंसाचार का अवलंबन करते हुए येन केन प्रकारेण मतांतरण प्रयास को पंथिक कर्त्तव्य मानना गलत विचार है।

इसलिये गैर मतावलंबियों के प्रति दोयम दर्जे का व्यवहार, पक्षपात, अन्याय, हिंसा के अवलंबन को व्यावहारिकता समझने, समझाये जाने का हमेशा ख़तरा है। जो भी पंथ अपने प्रसार के लिये हिंसा, भय, लोभ, कपट, धोखा का सहारा ले वह तो आध्यात्मिक विकास के लिये अनुपयुक्त ही होगा, उसे धर्म या पंथ कहना उन शब्दों के प्रति अन्याय है। विचारों की इस पृष्ठभूमि में हमें वर्ल्ड काउन्सिल ऑफ़ चर्चेस, क्रिश्चियन कांफरेंस, जमायते इस्लामी, तबलीगी जमात आदि को देखना होगा। पॉप महोदय ने पहली सहस्त्राब्दी में यूरोप को, दूसरी सहस्त्राब्दी में अफ्रिका को एवं इक्कीसवीं मे एशियान को ईसाई झंडे के नीचे ले आने की इच्छा व्यक्त की थी। उसी प्रकार पान इस्लामिस्म का आश्रय लेकर चल रहे अनेक इस्लामी समूहों को शुभ नहीं माना जा सकता है।

हिंसाचार, आतंकवाद आदि से उन्हें नैतिक परहेज नही है। वे अपने को सदा युद्धरत मानते है। वे तो मात्र अपराधी गिरोह माने जायेंगे। जब तक “ही” संस्कृति के पुरस्कर्ता, गैर मतावलंबियों के प्रति काफ़िर या हिदेन्स का भाव नही त्यागते तब तक उनसे किसी शुभ की आशा नही की जा सकती।

विचार धारा या पंथ या जाति के आधार पर चल रहे समाज विरोधी संगठित शस्त्राचारी गिरोह से निपटने के लिये रक्तबीज के वध का प्रसंग समीचीन है। माँ दुर्गा जी 64 योगिनियों के साथ उत्तराखंड मे काली नदी घाटी में रक्तबीजों का संहार कर रही थीं। पर जहाँ रक्तबीज का लहू गिरता, नया रक्तबीज पैदा हो जाता। तब काली का आवाहन हुआ। तब यह नीति बनी कि अब माँ दुर्गा विद्यमान रक्तबीजों का संहार करती चलें और माँ काली रक्तबीज के खून जमीन पर गिरकर नया रक्तबीज पैदा होने से पहले काली माँ अपनी जिह्वा पर खून की बूंद को ले लेतीं। इस प्रकार रक्तबीज का संहार हो सका।  नीति यही कहती है कि सत्ता दुर्गा माँ का रूप और समाज काली माँ का रूप बनकर आतंकवाद के खात्में के लिये समन्वित और त्वरित गति से काम करे। ऐसी ही नीति के परिणामस्वरूप जम्मू कश्मीर मे एक समय पूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन जी को कामयाबी मिली थी। वैश्विक स्तर पर पंथ को एकरुप न माना जाय। अलग-अलग देशों के साथ अलग – अलग शत्रु-मित्र संबंध, स्वभाव समझकर शत्रु-मित्र तटस्थ संबंध तय करना होगा। न ईसाईयत एकरूप है न इस्लाम। इस यथार्थ को समझना हितावह होगा।

आज के वैश्विक परिदृश्य में भारत को अपना हित साधना है। अपने अधिष्ठान पर टिकते हुए बढना है। भारत को भारत के नजरिये से देखते हुए कदम बढ़ाना है। इसमें जाति, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय के कारक तत्वों को गूंथना है एकरस राष्ट्र निष्ठा में। भारत के राष्ट्रवाद के दो पहलू हैं – देवभक्ति और देशभक्ति। भारत ऋषि और कृषि का देश है। यह राम का भारत है और रामराज्य लक्ष्य है।

धर्माधिष्ठित समाज रचना, धर्म नियंत्रित राज्य, धर्मानुकूल समाज और धर्मप्रवण व्यक्ति, यह भारत की समझ है। एतदर्थ जीवन से प्रबोधन ही रास्ता है। धर्म के व्यापक अर्थ को औसत भारतीय आज भी जीता है। इन्हीं तत्वों का आश्रय लेकर हमे एकात्म, संपन्न, समतायुक्त, सुसंस्कृत समाज साधना रामराज्य की पूर्वशर्त है।

सामाजिक न्याय की चिन्ता करने में सामाजिक एकता पर आघात न हो इसका ध्यान रखना है और साथ ही सामाजिक एकता का ध्यान रखते समय सामाजिक न्याय की बलि न चढ़ें इसकी भी सावधानी रखनी होगी।

सामाजिक एकता यथास्थिति वाद का संरक्षक न बने और सामाजिक न्याय अराजकता को नियंत्रण न दे यह संतुलन जरुरी होगा।

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