टॉप न्यूज़दस्तक-विशेषफीचर्डसाहित्यस्तम्भ

भारतीय समाज को भारतीय नजरिये से समझने की एक कोशिश

के.एन. गोविन्दाचार्य

भाग-6

सन् 60 से 75 तक तो दुनिया मे अमीर देश उपनिवेशवाद का पुराना चोला उतारकर नया जामा पहनने मे लगे थे। शोषण का हथियार शस्त्रास्त्र न होकर व्यापार और मुद्रा पर आधारित होने लगे। अब अमेरिका और रूस बुरी तरह शीतयुद्ध की खेमेबंदियों में उलझ गये।

पूरी दुनिया मे, भारत मे भी उपेक्षित, वंचित लोगों की आवाज तेज होने लगी। स्वाभाविक था इसका स्पंदन सर्वप्रथम युवा वर्ग मे होता। क्योंकि वह प्राथमिक रूप से बदलाव का आकांक्षी होता है।

यथास्थितिवाद का विरोधी होता है। उसमे भी छात्रों का एक जगह (कैम्पस) में आसानी से एकत्रित होने की क्षमता के कारण सहज ही छात्र आगे आने की स्थिति में रहता है। इसलिये भूख, बेकारी, भ्रष्टाचार, अर्थहीन शिक्षा के प्रति आक्रोश बढा। भारत मे भी 70 से 80 के दशक तक हिलोर चली। अहिंसक और हिंसक दोनों अनेक प्रकार की हलचलें और आंदोलन तेज हो गये।

अमेरिका, अफ्रीका में ब्लैक पॉवर, भारत एवं अन्य कई देशों में स्टूडेंट्स पॉवर आदि की आवाज गूंज उठी। भारत सन् 50 से 75 के दशक तक सरकारवाद से चलाया जा रहा था। काल क्रमेण वह लाइसेंस परमिट, कोटा राज, भ्रष्टाचार का शिकार होकर जनहित साधने के हिसाब से भोथरा, अनुपयोगी होने लगा।

छात्र आन्दोलन और नक्सलवाद, दोनो बढ़ने लगे। परिवर्तनकारी ताकतें पहचान पाने लगीं। पर हिंसक प्रयासों को अपने गतिशास्त्रीय परिणाम भी हुए। वे ज्यादा आपराधिक चरित्र अपनाते गये। रणनीतिक विभेदों के कारण आपसी स्पर्धा और टकराव मे बढ़ने लगे। समाज विरोधी ताकतें भी पहचान पाने लगी। बाहुबल का प्रभाव बढ़ा।

सरकारवाद की सीमाएँ स्पष्ट नजर आने लगी। भारत मे सन् 77 में परिवर्तनकारी ताकतों को भी मौका मिला। नेहरुजी के रास्ते से हटकर गाँधीजी के हिन्द स्वराज, रामराज्य की ओर बढ़ने का एक मौक़ा मिला था। पर नेताओं के सत्ता संघर्ष ने सब गुड़ गोबर कर दिया। फिर तब तक देश का मानस भी सरकारवाद से हटने लगा था। कुछ नई व्यवस्थाओं की तलाश थी। समाज का शिक्षित वर्ग रास्ता प्रशस्त करने में असमर्थ था। इस अंतराल के खालीपन को भरने के लिये स्वाभाविक था कि बाजारवाद की अनेक छटाएँ सामने आती।

सन् 80 से बाजारवाद का चक्र दुनिया मे बलशाली होता चला गया था। रूस, चीन, आर्थिक दृष्टि से पश्चिम से मुकाबला करने मे कमजोर पड़ने लगे थे। बाजारवाद का दुनिया मे हावी होने और भारत मे प्रवेश करने का अच्छा मौक़ा था।

सन् 80 के बाद आयात-निर्यात असंतुलन होने लगा। नीति के तहत ऐसी रचना ही थी कि भुगतान संतुलन बिगड़ता, उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण से तो कृषि, छोटे एवं घरेलू उद्योग को मार पड़ती।

स्वरोजगारिये थे किसान, कारीगर उनके मजदूर बनने, कर्मचारी बनने की नौबत आ गई। ए से अर्दली, बी से होटल का बेयरा, सी से चौकीदार एवं डी से ड्राइवर। इस श्रेणी ABCD मे भर्ती बढ़ी।

कॉर्पोरेट सेक्टर की चांदी हुई। सरकार और बैंक उद्योगपति और व्यापार के काम आने लगे। विषमता बढ़ी। उपभोग की वस्तुओं की खपत बढ़ी। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश और प्रभाव बढा। स्वाभाविक था कि वे सत्ता के गलियारों में ज्यादा लाभ लेते।

बैंक, विदेशी निवेशक, वित्तीय संस्थाएँ, उद्योगपत्ति, शेयर बाजार आदि भारत की अर्थव्यवस्था पर हावी होने लगा। सेंसेक्स को प्रगति का सूचक माना जाने लगा। भारत की 70% आबादी जो कृषि मे या कृषि पर निर्भर थी, विपन्न होने लगी। लागत और बिक्री मूल्य मे विसंगति ने किसानों को आत्मह्त्या की ओर प्रवृत्त किया।

बहुफसली, नकदी फसल की खेती पर जोर दिया जाने लगा। किसान मानसून और मार्केट की ताकतों के शिकार होने लगे। शहरीकरण बेतरतीब ढंग से बढ़ने लगा।

स्लमीकरण जोर पकड़ने लगा। महानगरों की चमक-धमक बढ़ी। विदेशी नॉन एसेंशियल सामानों की बिक्री बढाने में, मांग उत्पन्न करने मे न्यस्त स्वार्थी ताकतें जुट गई। अब विनिवेश और निजीकरण की वकालत होने लगी।

10 साल मे भुगतान संतुलन की ऐसी दुःस्थिति बनी। सोना गिरवी रखना पड़ा। सन् 80 से 90 का दशक सरकारी पूंजीवाद से बदलकर निजी देशी-विदेशी पूंजी के आक्रमण का काल कहा जायेगा। रूस का विघटन हुआ।

अमेरिका और गैर जिम्मेदार ढंग से पैर पसारने लगा। चीन अधिनायक तंत्र के साथ बाजारवादी आर्थिक व्यवस्था को अपने स्वभाव के अनुसार ढालने में लग गया। विचार धारा का अंत हो चुका यह प्रचार होने लगा। एक ध्रुवीय विश्व की चर्चा चलने लगी। दुनिया की पहरेदारी और संरक्षण की जिम्मेदारी अपनी तरफ से एकतरफा अमेरिका ने लेने की कोशीश की। भारत मे अविचारित वैश्वीकरण और विचारहीन निजीकरण ने भारत की अंदरूनी आर्थिक ताकतों की जड़ों को कमजोर कर दिया। परिवार-व्यवस्था, बचत की विशेषता, संयमित उपभोग की संस्कृति, पर्यावरण संरक्षण और जीव दया की भावना की धारा क्षीण होने लगी। पूंजी ही ब्रह्म है, मुनाफ़ा ही सही गलत का निर्णायक मूल्य है, और उन्मुक्त जानवरों की तरफ तरह उपभोग ही मोक्ष है। ऐसी अनुचित धारणा मानवों मे घर करने लगी। ऐसी स्थितियों में मीडिया भी धनबल के प्रभाव में आने लगा।

एकेडेमिया भी बाजारवाद की चकाचौंध से प्रभावित हुआ। कुल मिलाकर ऐसी स्थिति बनी जैसे कृष्ण के शिशुकाल में कृष्ण को मारने के लिये सजी धजी सुन्दरी का रूप धरकर पूतना स्तन पान कराने आई हो। यह सन् 80-90 तक की देश की अर्थव्यवस्था के मार्गपरिवर्तन का सार संक्षेप है।

Related Articles

Back to top button