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देशघाती राजनीति : दलित आरक्षण पर सुप्रीम फैसले का विरोध

संजय सक्सेना, लखनऊ

सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय बेंच ने हाल ही में दलित आरक्षण व्यवस्था की नये सिरे से जो व्याख्या की है,वह दलितों के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकती थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पायेगा? कारण कानून में किसी तरह कि कोई कमी होना नहीं है, बल्र्कि चिंताजनक यह है कि कई राजनैतिक दलों के नेताओं ने अपनी संकीर्ण राजनीति के चलते सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले को ही कटघरे में खड़ा कर दिया है। इससे भी अधिक अफसोस और चिंता की बात यह है कि दलित समाज से आने वाला बुद्धिजीवी वर्ग भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लेकर फैलाई जा रही भ्रांति को दूर करने की कोशिश नहीं कर रहा है, जिसके चलते दलित समाज के गुमराह युवक सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध के नाम पर सड़क पर उतर कर अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने में लगे हैं। वैसे अपवाद के रूप में कहीं-कहीं जागरूक दलित समाज के लोग सुप्रीम कोर्ट के फैसले के पक्ष में भी खड़े नजर आ रहे हैं, लेकिन यह संख्या इतनी नहीं है जो पूरे दलित समाज की आवाज बन सके। वैसे गौर करने वाली बात यह भी है कि दलित समाज भले ही सम्पन्न वर्ग (क्रीमीलेयर) को एससी/ एसटी आरक्षण के दायरे से बाहर किये जाने के खिलाफ खड़ा नजर आ रहा हो, लेकिन पिछड़ा वर्ग समाज (ओबीसी) आरक्षण में क्रीमीलेयर वाली व्यवस्था पहले से लागू है और इसको लेकर कहीं कोई विवाद भी नहीं है। बल्कि इसके चलते पिछड़ा समाज के वंचित तबके को ज्यादा फायदा मिल रहा है, उनका समाजिक और आर्थिक उत्थान तेजी से हो रहा है।

दरअसल, 31 जुलाई 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) के आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को प्रभावित करने वाला ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए ‘कोटे में कोटा यानी आरक्षण के भीतर आरक्षण की व्यवस्था किये जाने पर मुहर लगाई थी। इतना ही नहीं, कोर्ट ने एससी, एसटी वर्ग के आरक्षण में से आर्थिक रूप से सम्पन्न यानी क्रीमीलेयर को चिन्हित कर दलित आरक्षण के दायरे से बाहर किए जाने की जरूरत पर भी बल दिया। सुप्रीम कोर्ट की मंशा एससी, एसटी वर्ग के ही ज्यादा जरूरतमंदों को आरक्षण का लाभ देने के लिए राज्य एससी, एसटी वर्ग में उपवर्गीकरण करने की थी। इसी के चलते सात सदस्यीय सुप्रीम बेंच ने बीस साल पुराने पांच न्यायाधीशों के ईवी चिनैया (2004) मामले में दी गई व्यवस्था को भी गलत ठहरा दिया था। ईवी चिनैया फैसले में पांच न्यायाधीशों ने कहा था कि एससी, एसटी एक समान समूह वर्ग हैं और इनका उपवर्गीकरण नहीं हो सकता।

दलित आरक्षण के लिए नई प्रस्तावना तैयार कर रहे सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मित्तल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र शर्मा की सात सदस्यीय पीठ ने दलित आरक्षण के मुद्दे पर लंबित करीब दो दर्जन याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया था। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस चंद्रचूड़ ने फैसले में पूरा जोर एससी एसटी आरक्षण में ज्यादा जरूरतमंदों को लाभ देने के लिए राज्यों को एससी, एसटी के उपवर्गीकरण के अधिकार पर दिया, जबकि जस्टिस गवई ने उपवर्गीकरण की व्यवस्था से सहमति जताते हुए अपने अलग से दिये फैसले में ज्यादा जोर एससी, एसटी में क्रीमीलेयर की पहचान कर उन्हें बाहर करने की नीति बनाने की जरूरत पर दिया। बाकी के न्यायाधीशों ने जस्टिस चंद्रचूड़ और जस्टिस गवई के फैसलों से सहमति जताते हुए अपने अलग अलग तर्क दिये थे।

सुप्रीम कोर्ट ने जैसे ही अपना फैसला सुनाया, उस पर सियासत भी शुरू हो गई। यहां तक की सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ भारत बंद तक का आयोजन कर दिया गया। भारत बंद को समर्थन देने के लिए कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, राष्ट्रीय जनता दल काफी सक्रिय नजर आये। वहीं वामपंथी दलों और एनडीए में शामिल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) ने भी इस बंद को समर्थन किया। जबकि इससे पहले केंद्र सरकार स्पष्ट कर चुकी थी कि वो एससी-एसटी आरक्षण से क्रीमीलेयर को बाहर करने के पक्ष में नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रही बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा प्रमुख अखिलेश यादव तो इतने उत्साहित थे कि उन्हें यहां तक लगने लगा था कि यदि उन्होंने कोर्ट के फैसले को दलित समाज के बीच बड़ा मुद्दा बना दिया गया तो यूपी की राजनीति की धुरी ही बदल जायेगी। सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण वाले फैसले का विरोध करके जहां मायावती अपने दलित वोटरों को अपने साथ जोड़े रखना चाहती हैं, वहीं सपा प्रमुख अखिलेश यादव उन दलित वोटरों को अपने पक्ष में साधे रखना चाहते हैं जो लोकसभा चुनाव के दौरान उनके साथ आये थे। यही वजह थी जब बसपा ने भारत बंद का समर्थन किया तो अखिलेश ने भी तुरंत इसके समर्थन में पोस्ट लिखकर अपना पक्ष रख दिया। बात यहीं तक सीमित नहीं है, आरक्षण से जुड़े हर मुद्दे पर मायावती और अखिलेश लगातार आक्रामक दिख रहे हैं। आखिर क्या वजह है कि आरक्षण के मुद्दे पर दोनों के सुर एक हैं? या दोनों के बीच एक रेस लगी हुई है कि दलितों और पिछड़ों का ज्यादा हितैषी कौन है? आखिर इस मुद्दे के जरिए मायावती और अखिलेश कौन-सी राजनीति साध रहे हैं?

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