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चीटियों को पसंद नहीं ऊँची आवाज़

जय प्रकाश मानस

माटी की सिपाही हैं चींटियाँ। गुड़, गोरस या मिठाई, जो भी अतिरिक्त हों, एक दिन सब चट कर जाती हैं चींटियाँ। चींटियों का काम है धरती पर सब कुछ चट कर जाना। किन्हें? उन्हें, जो ठीक से संभाली जाती नहीं। उन्हें, जो खुली पड़ी रहती हैं कहीं भी। धरती पर अकारज। जैसे कंजूस की तिजौरी में उदास पड़ा धन।

चींटियाँ धरती पर सबसे बड़ी सफाई कामगार हैं। उन्हें कुछ भी इधर-उधर व्यर्थ पड़ा भाता नहीं। वे कभी किसी को नहीं रोकती। न टोकती। बस चिढ़ती हैं कि इतना ना इकट्ठा करो कि वह न आपके काम आये और दूसरों को भी सताये।

बहुत लघु जीव है चींटियाँ परन्तु पर्वत भी हज़म कर जातीं हैं वे। उनकी दाँत बहुत तेज़ हैं। मनुष्य के लोभ और लाभ के नुकीले डाढ़ों से कहीं अधिक धारदार। वे जड़ से फूल और मकरंद तक सब चाट जाती हैं।

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चींटियों की पहुँच असीमित है। चींटिया हमसे पहले भी उपस्थित थीं। वे ही रहेंगी हमारे सौ-सौ जनमों के बाद। माटी के भीतर। माटी के संसार में। व्यर्थ को माटी में अर्थ देते रहने के लिए।
चींटियों को ऊँची आवाज़ पसंद नहीं। चींटियों को यूँ किसी की गरमी बर्दास्त नहीं। प्यार से उन्हें स्पर्श कर लें-लजा-लजा जाती हैं। मन ही मन गुनगुनाती हैं। कहतीं हैं जैसे- प्यार कोई मौन गीत है। बेआवाज़ संगीत है।

माटी की चींटियाँ सपनों को भी लपक लें, इससे पहले हम अपनी-अपनी नींदों को सहेज लें। समेट लें। फिर उन्हें कोई एतराज़ नहीं।

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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