अरविन्द केजरीवाल का अहंकार आप को ले डूबा
आम आदमी पार्टी का अब क्या होगा?
दिल्ली में तीन बार की आम अदमी पार्टी का इस बार पतन हो गया। आप नेता स्वेच्छाचारी हो गए थे। जिन आदर्शों के ताजमहल पर पार्टी का ढांचा खड़ा हुआ था, वह ताश के पत्तों की तरह बिखर गया। अचानक ऐसा क्या हुआ कि दिल्ली की जनता का दिल एक बार फिर बीजेपी पर आ गया। पढ़िए आम आदमी पार्टी के उत्थान और उसके पतन को बहुत करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार शशि शेखर की रिपोर्ट।
निजी अंहकार, सत्ता की लालसा और केन्द्रीकरण आम आदमी पार्टी यानी आप को ले डूबा। यह बात मैंने इसलिए की है कि इस पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल जब साल 2009 में दिल्ली में स्वराज आन्दोलन चलाते थे (इन पंक्तियों का लेखक भी ऐसी कई मीटिंग्स में रहा है), तो मुख्य फोकस विकेन्द्रीकरण पर होता था। सत्ता का, अधिकार का, संसाधन का विकेन्द्रीकरण करने को केजरीवाल एक बेहतर गवर्नेंस मॉडल मानते थे। दिलचस्प बात यह है कि आज मंत्री बने कपिल मिश्रा उस वक्त केजरीवाल को अपनी माता जी अन्नपूर्णा मिश्रा के क्षेत्र सोनिया विहार (करावल नगर) में ऐसी मीटिंग्स कराने के लिए ले जाते थे। वही मिश्रा आज भाजपा की तरफ से मंत्री हैं। बहरहाल, 12 साल तक दिल्ली के शासन की बागडोर संभालते-संभालते केजरीवाल इसी मूलमंत्र (विकेन्द्रीकरण) को पूरी तरह से भूल गए। खुद अपनी ही पार्टी के भीतर पार्टी की कमान संभालनी हो, कोई निर्णय लेना हो, सब को विकेन्द्रीकृत करते हुए अकेले सारे अधिकारों पर काबिज होते चले गए। नतीजा, वालंटियर्स हो, समर्थक हो, सिम्पेथाइजर हो, सभी धीरे-धीरे कन्नी काटने लगे। तिस पर भ्रष्टाचार के आरोप, जेल जाने जैसी घटनाएं, शराब घोटाले के आरोप, मनीष सिसोदिया का सीट बदलना, दिलीप पाण्डेय जैसे लोगों के टिकट काटने के कारण इस हार की जमीन पहले से तैयार की जा रही थी। इसलिए, अंतिम समय में वोटर लिस्ट में वोट जोड़ने/काटने से कुछ नहीं होने वाला था, जैसा कि चुनावी नतीजों से साबित भी हुआ।
चिन्तन-मंथन
मैं एक लाइन में दिल्ली के नतीजों को समझाने की कोशिश कर रहा हूं। यानी, इस नतीजों का सर्वाधिक सटीक विश्लेषण दो लोग ही कर सकते हैं। एक दिलीप पांडे, दूसरे अवध ओझा। ये दोनों क्लासिकल उदाहरण हैं। तिमारपुर से दिलीप पांडे बहुत अच्छा काम कर रहे थे, लोग उनसे बहुत खुश थे, वह सर्वप्रिय व्यक्ति हैं। मैं उनको आंदोलन के दौर से जानता हूं। उन्होंने यह कभी नहीं कहा कि मुझे राज्यसभा भेज दीजिए या मुझे यहां टिकट दीजिए या मुझे यहां पद दीजिए। वैसे दिलीप पाण्डेय का टिकट कटते ही बहुत सारे आप कार्यकर्ता भाजपा में चले गए थे। यह तथ्य है। अलग बात है कि दिलीप पांडे ने खुद कभी कोई टकराव नहीं किया। चावल की हांडी का एक दाना देखकर ही पता चल जाता है कि पार्टी के भीतर क्या हुआ होगा? काम करना, नहीं करना भारतीय राजनीति में सरकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं होता है और दिल्ली जैसे आधे-अधूरे राज्य के लिए तो और भी नहीं। कोई भी काम करने वाला मुख्यमंत्री होगा, उसका केन्द्र से हर हाल में टकराव होगा। यह कड़वा सच है। अरविंद केजरीवाल का पूरा पॉलिटिकल एग्जिस्टेंस ही सामने वाले से लड़ाई के आधार पर टिका था/है। बना भी उसी पर था, टिका भी उसी पर है। पिछले दो टर्म, जो उन्होंने सरकार चलायी है 2015-2020 और 2020-2025 उस दौरान भी उन्होंने विरोध और लड़ाई की ही पॉलिटिक्स की। ऐसा नहीं है कि उस वजह से वह काम नहीं कर पाए। जितना उनको करना था, जितनी उनकी हैसियत थी, उन्होंने किया। लेकिन, जैसाकि मैंने ऊपर ही लिखा, अरविंद केजरीवाल का जो राजनीतिक सेटअप है, वह बहुत ज्यादा एकीकृत और केन्द्रीकृत हो गया था। यही उनकी हार का सबसे बड़ा कारण भी है।
टकराव के दोषी!
अकेले मैं अरविंद केजरीवाल को इस टकराव के लिए दोषी नहीं मानता हूं। कुछ हद तक बीजेपी भी है, क्योंकि दिल्ली की सात लोकसभा सीट पर जनता ने उनको जिताया है। अब तक वहां पर स्प्लिट वोटिंग पैटर्न रहा है। लोकसभा में पूरी की पूरी सीटें जनता बीजेपी को दे देती थी और विधानसभा में अरविंद केजरीवाल को चुनती थी। 10 साल लगातार सरकार चलाना, यह भी कोई छोटी बात नहीं थी। काम तो कुछ किया ही था केजरीवाल ने। जनता से जुड़े हुए अस्पताल के मसले हो, शिक्षा के मसले हो, स्वास्थ्य के मसले हो, ट्रांसपोर्टेशन वगैरह की बात हो। इसे फ्रीबीज कहा गया, जिसे बीजेपी ने कहा कि वे भी इसे जारी रखेंगे, तो लोगों को लगा कि इनको भी मौका दिया जाए। इतने अधिक टकराव से लोग शायद ऊब जाते हैं और सोचते हैं कि भाई चलो एक बार डबल इंजन ही करके देखते हैं। शायद कुछ अच्छा हो जाए। पहले केजरीवाल कहते थे कि एमसीडी में बीजेपी है तो काम नहीं हो पा रहा है। लेकिन, आखिरी कुछ समय में दोनों जगह पर आप के ही लोग थे, फिर भी दिल्ली बेहाल थी। हालांकि, मेरा मानना यह है कि आम आदमी पार्टी की आंतरिक राजनीतिक सिस्टम में भी समस्या है। आप देखेंगे इस बार बहुत सारे कांग्रेस और बीजेपी के लोगों को आप ने टिकट दिया था। जमीनी स्तर पर आप के पार्षद या कार्यकर्ता को ऐसे निर्णय डाइजेस्ट नहीं हुए। अरविंद केजरीवाल को उनका ओवर कॉन्फिडेंस और अहंकार भी ले डूबा। उनको लगता था कि वही नेता हैं, अकेले हैं, सर्वमान्य हैं। वह जिसको चाहेंगे जिता देंगे, जैसा कि आखिरी दो चुनावों में हुआ भी। 67 और 62 सीटें ये लोग जीते थे। अब मुझे लगता है कि रिजल्ट के बाद इनके पास काफी वक्त होगा इस बात पर मंथन करने के लिए कि क्या गलतियां हुईं।
अहंकार और अंत
आदमी जब बिल्कुल स्वेच्छाचारी हो जाता है, तो दिक्कतें पैदा होती हैं। एक कहावत है कि ‘पावर करप्ट्स एंड अब्सोल्यूट पावर करप्ट्स अब्सोल्यूटली’ यानी सत्ता भ्रष्ट करती है और पूर्ण सत्ता पूर्णत: भ्रष्ट करती है। आपको अपने लोगों की पहचान नहीं रह जाती, आपको अपनी ताकत की पहचान नहीं रह पाती। आप दूसरे की ताकत पर निर्भर होने लगते हैं। इसलिए दिलीप पांडे और अवध ओझा का मैंने नाम लिया। फिर, बीजेपी का डबल इंजन वाला एक नैरेटिव भी मुझे लगता है कि कारगर रहा। हालांकि, मेरा व्यक्तिगत तौर पर यह मानना है कि यह विकास के लिए कोई आवश्यक शर्त नहीं है। दिल्ली की स्थिति बाकी राज्यों से इसलिए अलग है क्योंकि दिल्ली वाकई बड़ी संवेदनशील है। भारत की राजधानी दिल्ली है। इस वजह से शीला दीक्षित के समय भी ऐसा नहीं था कि केन्द्र का अपनी ही सरकार से टकराव नहीं था। जहां तक मुझे जानकारी है, उसके अनुसार कांग्रेस के समय में भी जब आखिरी बार कांग्रेस की सरकार थी और शीला दीक्षित मुख्यमंत्री थीं, तब भी वहां टकराव होता था। गृह मंत्रालय बनाम दिल्ली के मुख्यमंत्री में टकराव होता था। उसमें 10 जनपथ को हस्तक्षेप करना पड़ता था और वहां से शीला दीक्षित जीत कर आती थीं। आम आदमी पार्टी के साथ एक दिक्कत यह रही कि इनकी शुरुआत ही तब हुई जब केन्द्र में नरेंद्र मोदी एक अपराजेय नेता के तौर पर आए और उनके लिए भी दिल्ली एक चुनौती थी। वह सोचते तो होंगे ही कि पूरी दुनिया जीत रहे हैं, लेकिन दिल्ली जो नाक के नीचे है, उसको नहीं जीत पा रहे।