बाबर ने लिखा, ‘काफिर राणा ने कोई मदद नहीं की’

हिंदुस्तान के इतिहास में मेवाड़ के राजा महाराणा कुंभा के वंशज और राणा सांगा के नाम से मशहूर महाराणा संग्राम सिंह की गिनती एक वीर योद्धा व शासक के रूप में होती है। सदियों से राणा सांगा की वीरता और उदारता के किस्से हम सुनते आ रहे हैं। ये किस्से देश से प्रेम करने वाले हर हिंदुस्तानी को प्रेरणा देते हैं। ऐसे पराक्रमी, वीर योद्धा राणा सांगा को राज्यसभा में गद्दार कहने वाले सपा सांसद रामजी लाल सुमन को इन दिनों देशभर में विरोध का सामना करना पड़ रहा है। क्या राणा सांगा ने सच में बाबर को आमंत्रित किया था? अगर किया था तो राणा बाबर के कट्टर दुश्मन कैसे बन गए? बाबर की डायरी ‘बाबरनामा’ और 16वीं सदी के अन्य कई समकालीन लेखकों की किताबों के हवाले से इतिहास के इस तरह के कई अनसुलझे सवालों का जवाब खोज रहे हैं दस्तक टाइम्स के संपादक- दयाशंकर शुक्ल सागर
समाजवार्दी पार्टी के सांसद रामजीलाल सुमन ने राज्यसभा में कहा था कि ‘मुसलमान तो मुहम्मद साहब को अपना आदर्श मानता है, सूफी संतों को अपना आदर्श मानता है लेकिन सभापति महोदय मैं जानना चाहता हूं बाबर को लाया कौन? इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर को राणा सांगा लाया था। मुसलमान तो बाबर की औलाद है और तुम गद्दार राणा सांगा की औलाद हो?’ सुमन ने इतिहास को गलत ढंग से पेश कर आम जनता को भ्रमित करने की कोशिश की है। सच्चाई इससे कोसों दूर है। राणा सांगा ने बाबर को खत लिखा था इसका जिक्र केवल बाबरनामा में है। दिलचस्प है कि राजस्थान खासकर मेवाड़ के राजकीय इतिहास में इस घटना का कहीं जिक्र नहीं है। उसी बाबरनामा में यह भी लिखा है कि राणा सांगा ने इब्राहिम लोधी के खिलाफ बाबर की कोई मदद नहीं की बल्कि वे दिल्ली जीत चुके बाबर के कट्टर दुश्मन बन गए थे। आक्रांता बाबर की रगों में तैमूर लंग और चंगेज खान जैसे क्रूर बादशाहों का खून था, बावजूद इसके बाबर राणा सांगा से खौफजदा था क्योंकि राणा की वीरता की कहानियां काबुल, समकंद तक प्रसिद्ध थीं। इसलिए बाबर ने राणा सांगा से कभी खुद से पंगा लेने की पहल नहीं की। उसका निशाना दिल्ली का सुल्तान था। सुल्तान इब्राहिम लोदी के करीबी रिश्तेदारों और अफगान के अमीरों ने बाबर को न केवल भारत में आने का न्योता दिया बल्कि उसे हरसंभव सैन्य मदद दी। बाबर एक बहुत कमजोर और नाकाम इंसान था। उसके पास सिर्फ एक चीज थी जो हिंदुस्तान में किसी सेना के पास नहीं थी, वह थीं तोपें और बंदूकें। ये तोपें और बंदूके हिंदुस्तानी सैनिकों ने कभी देखी तक नहीं थीं। सांसद रामजीलाल सुमन ने इतिहास ठीक से नहीं पढ़ा इसलिए आधी अधूरी बातें पढ़कर बिना समझे-बूझे इस तरह के बचकाने बयान देकर फंस गए। अब वह घूम घूम कर माफी मांग रहे हैं।
घरेलू झगड़ों में फंसा था इब्राहिम लोदी
इस पूरे किस्से को समझने के लिए तत्कालीन इतिहास और समकालीन इतिहासकारों को पढ़ना समझना चाहिए। इसके लिए इसे शुरू से शुरू करना जरूरी है। 16वीं सदी की शुरुआत में राणा रायमल की मृत्यु के बाद, 1509 में, राणा सांगा मेवाड़ के महाराणा बन गए थे। बाबर के आने से पहले उनका नाम भारत के सबसे शक्तिशाली राजाओं में शुमार होता था। भारत में उनका केवल एक दुश्मन था और वह था इब्राहिम खान लोदी। इब्राहिम को अपने पिता सिकंदर लोदी के मरने के बाद 1517 में दिल्ली सल्तन मिली थी। इस लिहाज से वह दिल्ली सल्तनत का अंतिम सुल्तान था। इब्राहिम असभ्य, जिद्दी और जल्दबाज़ था। इस सल्तनत के कई दावेदार लोदी के अपने ही परिवार में थे। सिकंदर लोदी की मौत के बाद इब्राहिम लोदी ने आधा राजपाट अपने भाई जलाल खान को देकर उसे जौनपुर का सुल्तान बना दिया और खुद को दिल्ली का सुल्तान घोषित किया लेकिन दरबारियों के कहने पर उसने यह बंटवारा रद्द कर अपने भाई जलाल खान को तुरंत वापस आगरा बुला लिया। जलाल को लगा कि इब्राहिम आगरा बुलाकर उसे कैद कर देगा। उसने आगरा आने से इन्कार कर दिया। इब्राहिम ने अपने सभी सत्ता के दावेदार अन्य भाइयों को जो अलग-अलग सूबों में सूबेदार थे, जैसे इस्मइल खान, हुसैन खान, महमूद खान को आगरा बुलाकर बंदी बना लिया और खुद को दिल्ली व देश का बादशाह घोषित कर दिया। उधर जलाल खान लोदी ने भी जलालुद्दीन की पदवी ग्रहण कर कालपी में अपने नाम का खुतबा पढ़वा लिया। इब्राहिम लोदी अपनी जाति यानी अफ़गान सरदारों के चरित्र और भावनाओं को समझने में विफल रहा। कान का कच्चा था सो उसने अपने सारे पुराने कमांडर बदल दिए। जो नए कमांडर बने वो नकारे थे। सो इन्हीं नाराज अफगानी दरबारियों ने बाबर को काबुल से भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया।

बाबर का था हिंद फतह का सपना
उधर फरगाना में बाबर के हालात ठीक नहीं थे। 12 साल की कच्ची उम्र में वह अपना पिता खो बैठा था। उसके हजारों दुश्मन पैदा हो गए थे। उसे उसकी मातृभूमि से बाहर निकाल दिया गया था। वह दर-दर भटक रहा था। कभी समरकंद तो कभी कबुल। उसकी आंखों में एक विशाल साम्राज्य का सपना था। इसी सपने को लेकर उसने काबुल के बीहड़ पहाड़ों में दो दशक से अधिक का समय बिताया। जाहिर है फरगाना और समरकंद में अपनी पैतृक भूमि के खोने का उस पर गहरा असर पड़ा था।
उधर हिंदुस्तान की तरफ से उसके मतलब की खबरें आ रही थी। उसे मालूम था कि हिंदुस्तान के पास बहुत दौलत है और दिल्ली की सल्तन पर एक कमजोर सुल्तान इब्राहिम लोदी का राज है, जिसका सबसे बड़ा दुश्मन था राणा सांगा जो तमाम राजपूताना साम्राज्यों की कमान संभाल रहे थे। बाबर ने भारत पर आक्रमण करने के लिए 1503 से कोशिशें शुरू कर दी थीं। उसने 1504, 1518 और 1519 में भारत पर चढ़ाई का अभियान चलाया। सबसे पहले बाबर ने बिना युद्ध किए पंजाब का भीरा का सीमावर्ती इलाका जीता। बाबर ने भीरा के सरदार अब्दुल रहीम के पास यह संदेश भेजा कि, ‘यह प्रदेश तुर्कों के आधीन रहा है। ये प्राचीनकाल से हमारी मिल्कियत है। तुम लोग भय या चिंता के कारण कोई ऐसा कार्य न कर बैठना जिससे यहां के निवासियों को हानि हो! हम यहां के लोगों की रक्षा कर रहे हैं और यहां किसी प्रकार की कोई लूटपाट नहीं होगी।’
(बाबरनामा, (अनु०), भाग 1- 281, रिजवी, ‘मुगलकालीन भारत’ (बाबर), प० 100।)
इस तरह 1520-21 में बाबर ने फिर से पंजाब को जीतने का साहस किया, उसने आसानी से भीरा और सियालकोट पर कब्जा कर लिया, जिन्हें ‘हिंदुस्तान के जुड़वां प्रवेश द्वार’ के रूप में जाना जाता था। हालांकि बाबर की सेना छोटी थी लेकिन उनकी तोपें और बंदूकें हिंदुस्तानियों के लिए नई चीज थी। वे डर गए और एक-एक करके आसपास के इलाकों के स्वतंत्र सरदारों ने बाबर की अधीनता स्वीकार कर ली। इतनी आसानी से बिना लड़े अपनी फतह देखकर हिंदुस्तान की जीत का उसका पुराना सपना आसान लगने लगा। लेकिन ये सब इतना आसान भी नहीं था जितना बाबर सोच रहा था। दिल्ली सुल्तान इब्राहिम लोदी का करीबी रिश्तेदार दौलत खां लोदी उस समय पंजाब का गवर्नर था। बाबर ने इब्राहिम लोदी और दौलत खान लोदी को एक दूत के जरिए पत्र भेजा कि वह तुर्कों के सारे इलाके उन्हें सौंप दे ताकि उन्हें जंग-ए-मैदान में न जाना पड़े। दोनों लोदी बंधुओं ने इस पत्र का जवाब नहीं दिया। तब बाबर ने अपनी डायरी में लिखा- ‘हिन्दुस्तान वाले बुद्धि, विवेक से शून्य तथा निर्णय एवं सत् परामर्श स्वीकार करने के अयोग्य हैं और इनमें सबसे अधिक अफ़ग़ान हैं, जो न तो शत्रुओं के सामने खड़े होकर उनका मुकावला कर सकते थे और न मैत्रीय के नियम ही जानते थे।’ (बाबरनामा- अंग्रेजी अनुवाद, एनेट सुज़ाना बेवरिज, भाग1, पेज 385) इस खत का उत्तर न इब्राहिम लोदी ने दिया न दौलत खान ने। पत्र का जवाब न आने पर बाबर को लगा अभी हिंदुस्तान फतह का सही वक्त नहीं आया है। वह काबुल लौट गया और सही वक्त का इंतज़ार करने लगा। वह सही वक्त भी कुछ साल बाद आ गया।
बाबर को न्योता दिया दौलत खान ने
इब्राहिम लोदी जिस तरह से अपने करीबी अफगानों को किनारे लगा रहा था, उसे देखकर दौलत खान लोदी समझ गया कि अब उसका नंबर आने वाला है। इसी दौरान सुल्तान ने उसे आगरा बुलाया। वह समझ गया था कि अन्य पुराने अमीरों की तरह, सुल्तान इब्राहिम लोदी उसे भी कुचल कर रख देना चाहता है। उसने आगरा जाने से साफ मना कर दिया। तब इब्राहिम ने अपने बेटे को दूत बनाकर दौलत खान के पास पंजाब भेजा। इब्राहिम के संदेश में दौलत खान के लिए कई कड़वी बातें थीं। दौलत खान ने धमकी दी कि अपने बाप से जाकर कहो कि अगर उसने धोखा दिया तो ठीक नहीं होगा। इस तरह पंजाब में अपने हितों की सुरक्षा करने के लिए उसने काबुल से बाबर को बुलाकर अपने शत्रु को सदैव के लिए समाप्त करने के लिए पत्र लिखा।’
(नियामत उल्लाह ‘मखजने अफ़ग़ना’ (अनु०) पेज 77; अन्दुल्लाह ‘तारीखे दाऊदी’ (अलीगढ़) बादायूनी, (अनु०) भाग 1, पेज 435; अहमद यादगार, ‘तारीखे, सलातीने अफ़गना’, पृ० पेज 7-9 रिज़वी, ‘मुगल कालीन भारत’ (बाबर), पेज 448 फरिश्ता, ‘तारीख-ए-फरिश्ता’ (मू० ग्रन्थ) पेज 202 ; ब्रिग्स, ‘दि हिस्ट्री ऑफ दि राइज़ ऑफ द मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया’ भाग 2, पेज 37)
जिस समय दौलत खान लोदी ने बाबर को हिंदुस्तान पर आक्रमण करने का निमंत्रण भेजा उस समय सुल्तान इब्राहिम लोदी चारों ओर से शत्रुओं से घिरा हुआ था। इब्राहिम लोदी अपने ही परिवार का दुश्मन बन गया। सारे अफगान अमीर उससे नाराज थे। उसके पास न उचित साधन ही रह गए थे और न ही ऐसा उमराव वर्ग जो कि मुश्किल के समय में उसका साथ देता। सरवानी, नूहानी तथा फ़ारमूली अफ़गान जातियों के नेताओं ने पहले ही सुल्तान से अपने नाता तोड़ लिया था। उसके पास अब केवल कुछ स्वार्थी अफगान दरबारी ही बचे थे। दौलत खान ने अपने बेटे को खत देकर काबुल भेजा था। इसी दौरान आलम खान भी यही न्योता लेकर काबुल पहुंच गया। आलम सुल्तान इब्राहिम लोदी का सगा भतीजा था और खुद को दिल्ली की सल्तनत का असली हक़दार मानता था। फरिश्ता के अनुसार दौलत खान लोदी ने अपने राजदूत के जरिए बाबर को कहलवाया कि वह बाबर को लाहौर का साम्राज्य देने के लिए तत्पर है। (‘तारीख-ए-फरिश्ता’(मूल ग्रन्थ) पेज 202; व्रिग्स, ‘दि हिस्ट्री ऑफ दि राइज़ ऑफ द मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया’ भाग 2, पेज 37) जबकि एक अन्य समकालीन इतिहासकार निजामुद्दीन अहमद के अनुसार दौलत खान और गाजी खान ने तथा सुल्तान इब्राहिम लोदी के अन्य वरिष्ठ अमीरों ने आलम लोदी के हाथों में बाबर के पास हिंदुस्तान पर आक्रमण करने के लिए पत्र भेजे। (‘तबक़ात-ए-अकबरी’ (अनु०) पेज 9)

इतने सारे लोदी सरदारों का समर्थन पाकर बाबर एक बार फिर काबुल से निकल कर भारत की तरफ बढ़ा। सुल्तान इब्राहिम लोदी को सूचना मिली कि दौलत खान के आमंत्रण पर बाबर काबुल से हिंदुस्तान की ओर चल पड़ा है। ऐसी स्थिति में उसने बिहार खान, मुबारक खान लोदी, बिरम खान नोहानी को एक विशाल सेना के साथ पंजाब की ओर दौलत खान को अपने पक्ष में करने और आक्रमणकारी आगे बढ़ें तो उन्हें पीछे धकेलने के लिए भेजा। शाही सेनाओं ने लाहौर पर आक्रमण किया और दौलत खान लोदी को वहां से भगा कर दुर्ग पर अपना कब्जा जमा लिया। इसके बाद उन्होंने पंजाब के विद्रोहियों के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही शुरू की। अभी वे इन सबमें व्यस्त ही थे कि बाबर ने सिंध नदी को पार कर लिया। बिहार खान और मुबारक खान को इतना समय न मिल सका कि वे लाहौर के दुर्ग की रक्षा का प्रबंध कर सके। बाबर के लाहौर पहुंचने पर वे दुर्ग से बाहर निकले और उन्होंने मुगलों से युद्ध किया, लेकिन वे मुगलों से हार गए। उन्हें भागना पड़ा। बाबर ने लाहौर के शहर को जला डाला।
बेवरीज बाबरनामा (अनु०) भाग 1, पेज 236
चार दिन लाहौर में रहने के बाद बाबर दीपालपुर पहुंचा। वहां वो दौलत खान से मिला। बुजुर्ग दौलत खान को लगा कि इब्राहिम लोदी की शाही सेना को हरा के बाबर काबुल लौट जाएगा और पंजाब की हुकूमत उसी के पास रहेगी। वह शांति से पंजाब पर राज करेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। बाबर ने पहली मुलाकात में दौलत खान को बता दिया कि उसकी मंशा हिंदुस्तान फतह की है। बाबर ने पंजाब के सुल्तानपुर और जालंधर की कमान दौलत खान को सौंप दी बाकी पंजाब अपने अफसरों के हवाले छोड़ कर वापस काबुल लौट गया। (बाबरनामा (अनु०) भाग 1, पेज 441 फरिश्ता, ‘तारीख-ए-फरिश्ता, (मू० ग्रन्थ) पेज 202; व्रिग्स, ‘दि हिस्ट्री ऑफ दि राइज ऑफ द मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया’ भाग 2, पेज 38; वस्शीश सिंह निज्जर, ‘पंजाब अंडर दि मुगल्स’ पेज 14)
बाबर के चौथी बार काबुल लौटने के बाद दौलत खान और आलम खान सल्तनत के सपने देखने लगे। जैसा कि मो. हबीब ने लिखा-‘इब्राहिम से नाराज़ होकर पंजाब के सरदारों ने काबुल में बाबर को पत्र लिखे और उसे भारत पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। सिकंदर लोदी का भाई आलम खान इस मकसद से व्यक्तिगत रूप से काबुल गया था… जब आलम खान लाहौर पहुंचा, तो उसने जोर देकर कहा कि चूंकि मुगल उसके निमंत्रण पर आए थे, इसलिए दिल्ली को जीतने के बाद तख्त पर उसी का पहला हक है। आलम खान के तर्क से मुगल अफसर असहमत थे। ऐसे में आलम खान खुद चालीस हज़ार घुड़सवारों की एक सेना के साथ दिल्ली की ओर बढ़ गया।’ मोहम्मद हबीब, खालिक अहमद निज़ामी (1970)। भारत का एक व्यापक इतिहास खंड 5। पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली। पेज 707।
लेकिन मुगलों की सेना के बिना इस दिल्ली के सफर का कोई मतलब नहीं था। वह बाबर के अगले कदम का इंतजार करने लगा। उसे इतना तो समझ आ गया था कि वह बाबर के चक्कर में गलत फंस गया है। वह तो खुद दिल्ली का सपना देख रहा है। उधर बाबर का रुख देखकर दौलत खान पहले ही बागी हो गया। उसने अपनी शक्ति और सेना फिर एकजुट की और बचीखुची मुगल फौज को हराकर पंजाब पर फिर कब्जा कर लिया। ये सुन बाबर बहुत नाराज हुआ। अपने पांचवें व अंतिम अभियान के तहत बाबर नवंबर 1525 में काबुल से पंजाब पहुंचा। वह सोच कर आया था इस बार वह आरपार की लड़ाई लड़ेगा। सबसे पहले बागी दौलत खान को गिरफ्तार कर उसके सामने पेश किया गया। बाबर हिदुस्तानी बोली नहीं जानता था सो उसने दुभाषिए के जरिए दौलत खान से बात की। बाबर ने अपनी डायरी में लिखा- ‘दौलत खान मेरे सामने अपने घुटने टेकने में संकोच कर रहा था। मैंने अपने आदमियों को आदेश दिया कि वे उसके पांव खींचकर उसे घुटने के बल झुका दें। मैंने कहा कि इससे कहो, ‘मैंने तुमको अपना पिता माना। मैंने तेरी उम्मीदों से कहीं ज्यादा तेरे प्रति आदर सम्मान दिखाया। तुझे एवं तेरे बेटों को दर-दर की ठोकरें खाने से बचाया। तेरे परिवार तथा अन्त:पुर को इब्राहिम की कैद से मुक्त कराया। तातार खां की विलायत में से तीन करोड़ तुझे दिलाए। मैंने तेरे साथ कौन सी बुराई की थी कि तूने इस तरह से अपनी दोनों ओर तलवारें लटका कर मेरे राज्य पर हमला कर दिया और वहां उपद्रव मचाकर शान्ति भंग कर दी?’ मेरी बातें सुनकर वह दुष्ट अवाक रह गया। (रिज़वी, ‘मुगल कालीन भारत’ बाबर) पेज 145-46; बाबरनामा (अनु०) भाग 2, पेज 456-61; निजामुद्दीन अहमद, ‘तबकाते अकवरी’ भाग 2, पेज 6; फरिश्ता, ‘तारीख-ए-फरिश्ता’, (मू० ग्रन्थ.) पेज 203; ब्रिग्स, ‘दि हिस्ट्री ऑफ दि राइज ऑफ द मोहम्मडन पॉवर इन इंडिया भाग 2, पेज 42; अकबर नामा (अनु०) भाग 1, पेज 240)
बाबर की इस फटकार और बेइज्जती से शर्मसार बुजुर्ग दौलत खान दिल के धक्के से मर गया। बाबर आगे दिल्ली की ओर बढ़ता रहा। उसे किसी ने नहीं रोका। लोदी के सारे करीबी अफगान बाबर की मदद कर रहे थे। मुगलों की सेना आगे बढ़ रही थी और पीछे अपनी छोटी-छोटी चौकियां बना रही थी ताकि उसकी सेना को पीछे से रसद आदि की मदद मिलती रहे और अगर जंग हारे तो वापस काबुल लौटने में कोई परेशानी न हो। पेशावर से लेकर लाहौर तक बाबर ने अपने भरोसेमंद अफसरों के नेतृत्व में ऐसी चौकियां बन रखी थीं। बाबर के बेटे और वारिस हुमायूं के नेतृत्व में मुगल सेना अंबाला तक पहुंच गई। मुगल सेना तो कहने को थी। इस सेना में ज्यादा बागी और नाराज अफगानी अमीरों और सरदारों के सिपाही थे जो इब्राहिम लोदी को दिल्ली की गद्दी से हटाना चाहते थे और दिल्ली पर खुद काबिज होना चाहते थे।

पानीपत की जंग
बाबर 5 मार्च 1525 को अंबाला पहुंचा। उधर पानीपत के ऐतिहासिक मैदान से पहले शाहबाद में बाबर को रोकने के लिए इब्राहिम लोदी ने दाउद खान लोदी और हातिम खान लोदी के नेतृत्व में अपनी सेना सजा ली थी। पानीपत से करीब चार-पांच कोस पीछे इब्राहिम लोदी अपने कैंप में, बाबर का इंतजार कर रहा था। बाबर अंबाला से शाहबाद की ओर आगे बढ़ा। इब्राहिम अपने एक लाख सिपाही और एक हजार हाथी लेकर निकला था। लेकिन पानीपत पहुंचने तक लोदी के 50 हजार सैनिक कम हो चुके थे। वे बाबर की तोपों से डर कर पहले ही मैदान छोड़ भाग गए। फरिश्ता ने लिखा- ‘सुल्तान इब्राहिम लोदी ने न शत्रु पर आक्रमण किया, न उसकी सैन्य-संख्या, सैन्य-व्यवस्था को जानने का प्रयास किया और न ही उसने शत्रु के पास रसद पहुंचने वाली व्यवस्था पर कुठाराघात ही किया और न उसने राणा संग्राम सिंह अथवा पूर्वी प्रदेशों के अफ़गानों से ही किसी प्रकार की सहायता लेने का प्रयास किया। और न ही उसने अपने सैनिकों को पंक्ति-बद्ध किया और न कोई नई युद्ध-प्रणाली ही अपनायी। ऐसा प्रतीत होता है कि बाबर की तोपों ने उसे तथा उसके सैनिकों को पहले से ही भयभीत कर दिया था। इसी कारण अगले आठ दिनों तक उसने बाबर के विरुद्ध किसी प्रकार की सैनिक कार्यवाही नहीं की और चुपचाप बैठा रहा।’ (फरिश्ता, ‘तारीख-ए-फरिश्ता’, (मू० ग्रन्थ.) पेज 205)
बाबर को मौका मिल गया। उसने इन आठ दिनों में एक रणनीति के तहत इब्राहिम की सेना को चारों तरफ से घेरकर अचानक हमला कर दिया। इब्राहिम लोदी की सैन्य-व्यवस्था बिगड़ गई। अब उसकी सेना से न कोई भाग कर निकल सकता था न आगे बढ़ सकता था और न पीछे हट सकता था। दोपहर तक घोर युद्ध होता रहा। अंत में युद्ध करते-करते सुल्तान इब्राहिम लोदी मैदान में मारा गया। (बाबर नामा (अनु०) भाग 2, पेज 473-74, अन्दुल्लाह, ‘तारीख दाऊदी’ (अलीगढ़), पेज 103-104; अकबरनामा (अनु०) भाग 1, पृ० 244-6; तारीख-ए-रशीदी, (अनु०), पेज 357-59, गुलवदन बेगम, ‘हुमायूंनामा’ (अनु०), पेज 4, नियामत उल्लाह ‘मखजने अफग़ाना’, (अनु०) पेज 78 79)
जब युद्ध समाप्त हुआ तो मैदान हजारों की संख्या में लाशों से पटा हुआ था। फरिश्ता के अनुसार 5000 सैनिक तो सुल्तान इब्राहिम लोदी के निकट मरे हुए पड़े थे। इस युद्ध में 16000 अफ़गान मारे गए। पानीपत के युद्ध में एक ओर हज़ारों की संख्या में सैनिक थे, और दूसरी ओर सैनिक और तोपें दोनों। जिसके चलते इब्राहिम लोदी तथा बाबर के बीच जो संघर्ष हुआ वह बराबरी का नहीं था। कुछ भी हो, इस युद्ध ने यह सिद्ध कर दिया कि बाबर यह युद्ध अपनी नई युद्धप्रणाली, तोपखाने, अश्व-रोहियों, अच्छी गुप्तचर व्यवस्था, तथा अपने सैनिकों के अदम्य उत्साह के कारण जीता। बेशक पानीपत का युद्ध उन निर्णायक युद्धों में से एक था। (तारीखे अलफ़ी, रिज़वी, “मुग़ल कालीन भारत”, (बाबर), पेज 636)
पानीपत की इस जीत के तुरंत बाद बाबर को राणा सांगा का ख्याल आया। उसने शाही खजाने की रक्षा के लिए तुरंत हुमायूं को आगरा भेज दिया। और खुद तीन दिन में दिल्ली पहुंचकर वहां के खजाने को भी सुरक्षित कर लिया। आगरे में मलिक दाद कर्रानी, मिल्लसी सरदुक तथा फिरोज़ खान मेवाती जैसे अफगानों ने हुमायूं का विरोध किया लेकिन मुगल सेना ने उन्हें अपने कब्जे में लेकर कैद कर लिया। उन्हें मौत की सजा सुनाई। बाबर 10 मई, 1526 को पहली बार आगरे में दाखिल हुआ। और उसने सुल्तान इब्राहिम लोदी के महल को अपना निवास स्थान बना लिया। कई दिनों तक स्थानीय लोगों ने मलिक दाद को क्षमा करने के लिए उससे आग्रह किया। बाबर ने तीनों युद्ध अपराधियों को क्षमा कर दिया तथा उनकी सम्पत्ति उन्हें वापस कर दी। बाबर ने उन्हें परगने भी प्रदान किए और इब्राहिम लोदी की माता के प्रति भी उदारता दिखाते हुए उन्हें सात लाख मृल्य का एक परगना मुआवजे में दे दिया। इसी के साथ बाबर का हिंदुस्तान को फतह करने का आधा सपना पूरा हो गया। आधा इसलिए क्योंकि अभी राणा सांगा से उसकी लड़ाई बाकी थी। आप देखिए इस लंबे चौड़े वृतांत में किसी हिंदू या मुस्लिम इतिहासकार ने ये नहीं लिखा कि दिल्ली पर हमले के लिए राणा सांगा ने बाबर को आमंत्रित किया था। इसका जिक्र केवल बाबरनामा के दूसरे भाग में हुआ है।
बहरहाल 16वीं सदी में दुनियाभर के राजवंशों में ख़त-ओ-किताबत आम बात थी। एक राजा दूसरे राजा को खत लिखते थे। ये खत भी राणा की रणनीति का हिस्सा था। राणा जानते थे कि बाबर के हमले के बाद लोदी जीत भी जाए तो वह कमजोर हो जाएगा। बाबर, मुहम्मद बिन कासिम और महमूद गजनी जैसे आक्रांताओं की तरह लूटपाट कर वापस चला जाएगा। पर पंजाब के सूबेदार दौलत खान के हश्र के साथ वह समझ गए कि बाबर के इरादे नेक नहीं हैं। इसलिए बाबर और इब्राहिम लोदी के इस युद्ध में महाराणा तटस्थ रहे। लोदी राणा को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था। अहंकारी लोदी ने राणा से मदद तक नहीं मांगी। राणा को भरोसा था कि इस जंग में अगर बाबर जीत गया तो उससे वह निपट लेंगे। बाद में बाबर को उनकी राजपूतों की सेना ने बयाना की जंग में हराया। उन्होंने समझ लिया कि विदेशी आक्रांता जीत भी गया तो उनकी विशाल सेना के आगे ज्यादा देर टिक नहीं पाएगा। लेकिन शतरंज के खेल की तरह युद्ध के नतीजे भी अप्रत्याशित रहते हैं। एक छोटी सी चूक पूरी बाजी पलट देती है। आगे की कहानी यही सबक देती है।
राणा सांगा से सामना
मुस्लिम आक्रान्ताओं के देश में पांव जमाने के करीब 500 साल बाद भारत के इतिहास में यह पहला मौका था जब राजपूत विदेशी हुक्मरानों को भारत की सरजमीं से बाहर निकाल फेंकने की स्थति में आ गए थे। मौके की नजाकत को समझते हुए देश के पश्चिमी क्षेत्रों में मेवाड़ के शासक राणा सांगा उर्फ महाराणा संग्राम सिंह ने राजपूत शासकों एवं सामंतों का एक संघ बना लिया था। राणा की महत्वाकांक्षाएं उसे अपने राज्य की सीमाओं को आगे बढ़ाने और उसे राजपूतों की खोई हुई शक्ति को फिर से हासिल करने के लिए प्रेरित कर रही थीं। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने निकटवत्र्ती शासकों से लगभग 18 युद्ध किए और प्रत्येक यृद्ध में सफलता मिलने पर उसके गौरव में चार-चांद लग गए, उसकी ख्याति चारों तरफ फैल गई थी।
उधर अफगान अमीर भी खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे थे। वे भी बाबर के खिलाफ एकजुट होने लगे। उन्होंने दरिया खान लोदी के बेटे बहादुर खान को अपना नेता चुन कर उसे सुल्तान मोहम्मद की पदवी तक दे डाली थी। राणा ने कई अफगानों को अपनी सेना में भरती किया। सिकंदर लोदी का बेटा सुल्तान महमूद राणा की शरण में आया। राणा ने उसके अधिकारों की सुरक्षा का जिम्मा ले लिया। राणा ने उन इलाकों पर कब्जा करना शुरू कर दिया जो दिल्ली सल्तनत के अधीन थे जो अब तकनीकी रूप से बाबर के कहे जा सकते थे। इनमें ग्वालियर के करीब एक कंदारा का किला था, जो एक अफगान सरदार के जिम्मे था, जिसे राणा ने जीत लिया। अफगान सरदार ने राणा से संधि कर ली थी। राणा का अब अगला निशाना बयाना था।
बयाना पर फतेह
राणा सांगा ने बाबर को पहली चुनौती बयाना में दी। बयाना एक तरह से राजस्थान का प्रवेश द्वार था। आगरा से बयाना की दूरी कोई सौ किलोमीटर दूर थी। यहां एक किला था जो बाबर और राणा दोनों के लिए सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण था। बाबर ने बयाना के स्वतंत्र सरदार निजाम खान को पैगाम भिजवाया कि वह मुगलों की अधीनता कबूल कर ले। राणा के दम पर निजाम खान ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। दरअसल निजाम बहुत चालाक आदमी था। राणा ने बार बार उससे कहा कि वह बयाना उनके हवाले कर चैन से रहे। पर बाबर का डर दिखा कर वह इसे टालता रहता था। अब जब बाबर का पैगाम आया तो उसने बाबर को राणा का हवाला देकर मुगलों की अधीनता कबूल करने में आनाकानी की। इसी बीच मेवात के अफगानी सरदार हसन खान मेवाती ने राणा से हाथ मिला लिया। राणा ने उसका स्वागत किया। इस तरह राजपूत और अफगानों का एक संघ बन गया। इस खबर से बाबर का घबराना लाजमी था। बाबर ने आगरे में तोप बनाने का कारखाना लगा लिया था। तोप कारीगरों को वह काबुल से लाया था। वह खुद सामने खड़े रह कर तोपों का निर्माण कार्य देखता था। इसका बाबरनामा में विस्तार से जिक्र है कि कैसे लोहे को पिघलाते हुए करीगर ने तोप की नली के सांचे में डाला और पिघली हुई धातु और सांचे का अनुपात गड़बड़ा गया। राणा सांगा बयाना की तरफ बढ़े तो निजाम खान ने बाबर के सामने घुटने टेक दिए। बाबर ने बयाना की हिफाजत के लिए अपनी सेना की टुकड़ी भेज दी। लेकिन राणा सांगा ने मुगलों को निकाल कर बयाना के किले पर कब्जा कर लिया।
सांगा ने बेहद संगठित तरीके से बयाना के किले की घेराबंदी की थी। उनकी सेना चार भागों में विभाजित थी जिसने किले को घेर रखा था। इस घेराबंदी से मुगलों का मनोबल टूट गया और उन्होंने किला राणा को सौंप दिया। बाबर ने राणा को आगे बढ़ने से रोकने के लिए अब्दुल अज़ीज़ के नेतृत्व में एक सेना भेजी, लेकिन राणा सांगा के नेतृत्व में राजपूतों ने मुग़लों को पराजित कर दिया और उन्हें तितर-बितर कर दिया। बयाना की हार ने मुग़ल सेना का मनोबल और गिरा दिया। अब राणा सांगा को खानवा (भरतपुर, राजस्थान) की ओर सुरक्षित रूप से कूच करने का मौक़ा मिल गया। इतिहासकार जी.एन. शर्मा ने लिखा- ‘हालांकि बाबर और मुगल इतिहासकारों ने बयाना की लड़ाई को बहुत महत्व नहीं दिया है, लेकिन यह राणा सांगा के उतार-चढ़ाव भरे राजनैतिक जीवन की आखिरी बड़ी जीत के रूप में सामने आता है, जिसके हाथों में अब चित्तौड़, रणथंभौर, कंदारा और बयाना के किले थे, जो मध्य हिंदुस्तान के मुख्य केन्द्र थे। इस अवसर पर मुगलों को राजपूतों के हाथों छोटी और तीखी मुठभेड़ों का सामना करना पड़ा, जिसमें उन्हें बुरी तरह से पीटा गया था, जिससे मुगल सेना में भय और निराशा की लहर दौड़ गई।’ डा गोपीनाथ शर्मा, मेवाड़ और मुगल सम्राट (1526-1707 ई.) पेज 27-31।
खानवा का युद्ध
खानवा में बाबर अपने लाव लश्कर के साथ राणा सांगा का इंतजार कर रहा था। तब खानवा जूनागढ़ का एक छोटा सा गांव था। बाबर को हिंदुस्तान से बाहर निकालने के लिए महाराणा संग्राम सिंह ने युद्ध के नगाड़े बजवाने का आदेश दिया और चित्तौड़गढ़ की शाही गद्दी पर कार्यरत सभी राजपूत जागीरदारों को कर्तव्य पत्र भेजा गया। राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, सिंध और उत्तरी गुजरात से लगभग 120 जागीरदार उनके साथ शामिल हुए। इस तरह इतिहासकार हरबिलास शारदा के अनुसार, महाराणा संग्राम के अधीन 1,10,000 से अधिक सैनिक थे, जिनमें से 55,000 से अधिक पैदल सेना, 45,000 घुड़सवार सेना और महमूद लोदी के 10,000 साहसी सैनिक थे। यह एक बड़ी फौज थी।
इतनी भारी सेना देखकर मुगल सेना डर गई। राणा सांगा अपने खिलाफ भेजी गई सभी मुगल टुकड़ियों को नष्ट कर चुके थे। सब राणा के पराक्रम से भयभीत थे। खुद बाबर ने लिखा- ‘मूर्तिपूजक सेना की उग्रता और वीरता’ ने सैनिकों को ‘चिंतित और भयभीत’ बना दिया।’ बाबर की सेना में अफगानों ने भागना शुरू कर दिया। बाबर के साथ आए तुर्कों ने उस भूमि की रक्षा करने से मना कर दिया जहां की गर्मी से वे नफरत करते थे। उन्होंने बाबर से अनुरोध किया कि वे लूट का माल समेट कर काबुल वापस चले जाएं। बाबर ने लिखा- ‘मैंने किसी से भी कोई मर्दाना शब्द या बहादुर सलाह नहीं सुनी।’ राजपूतों की अधिक संख्या और कथित साहस ने बाबर की सेना में भय पैदा करने का काम किया। अपने सैनिकों के गिरते मनोबल को बढ़ाने के लिए, बाबर ने हिंदुओं के खिलाफ लड़ाई को एक धार्मिक रंग दिया। बाबर ने एलान किया कि वह आगे से कभी शराब नहीं पीएगा। उसने अपने पीने के प्याले तोड़ दिए, शराब के सभी भंडार जमीन पर उड़ेल दिए और पूर्ण संयम की शपथ ली। अपनी आत्मकथा में बाबर ने लिखा कि यह वास्तव में एक अच्छी योजना थी, और इसका मित्र और शत्रु दोनों पर अनुकूल प्रचारात्मक प्रभाव पड़ा।
लेकिन बाबर को हारने की परवाह नहीं थी क्योंकि उसके पास तोपें और बंदूकें थीं। भारत में उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं था। उसने खास रणनीति के तहत अपनी सेना, बंदूकें और तोपें सजाईं। जबकि राणा सांगा ने पारंपरिक तरीके से लड़ते हुए मुगलों की कतारों पर हमला किया। उनकी सेना बड़ी संख्या में मुगल बंदूकों से धाराशायी हो गई, बंदूकों की आवाज़ से राजपूत सेना के घोड़ों और हाथियों में डर पैदा हो गया, जिससे वे अपने ही लोगों को कुचलने लगे। राणा सांगा के लिए मुगलों की सेना के उस केंद्र पर हमला करना असंभव हो गया था जहां से युद्ध संचालित हो रहा था। दोनों तरफ़ से तीन घंटे तक लड़ाई जारी रही, जिसके दौरान मुगलों ने राजपूतों की कतारों पर तीरों से वार किया और बंदूकों से गोलीबारी की जबकि राजपूत केवल नज़दीकी इलाकों में ही जवाबी कार्रवाई कर सकते थे। (भारत का सैन्य इतिहास, जदुनाथ सरकार, पृ. 56-61) जदुनाथ सरकार ने लिखा- ‘केंद्र में राजपूतों की सेना लगातार गिरती रही, लेकिन वे जवाबी हमला करने या नजदीकी पकड़ बनाने में सक्षम नहीं थे। हथियारों के मामले में वे पूरी तरह से पिछड़ चुके थे और उनकी घनी व्यूह रचना ने उन्हें निराशाजनक नरसंहार को ओर धकेल दिया, क्योंकि हर गोली अपने स्थान पर जा रही थी।’
इसी दौरान राणा सांगा को एक गोली लगी और वह बेहोश हो गए। इससे राजपूत सेना में भ्रम की स्थिति पैदा हो गई और थोड़े समय के लिए लड़ाई थम गई। बाबर ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि ‘शापित काफिर एक घंटे तक भ्रमित रहे।’ कुछ राजपूत सरदार बेहोश राणा को पालकी में लेकर युद्ध स्थल से भाग गए। राजपूत ये निर्णायक लड़ाई हार चुके थे क्योंकि उनकी किस्मत में अगले 300 साल मुगलों की गुलामी लिख गई थी। बाबर ने दुश्मनों की खोपड़ियों का एक मीनार बनाने का आदेश दिया। ये प्रथा तैमूर ने शुरू की थी। खोपड़ियों का एक मीनार बनाने के पीछे का मकसद सिर्फ़ एक बड़ी जीत दर्ज करना नहीं था, बल्कि विरोधियों को आतंकित करना भी था। बाबर इसमें कामयाब रहा। शाम को उसने अपने शिविर में छुपकर शराब के प्यालों के साथ जीत का जश्न मनाया।
राणा की जहर देकर हत्या
राजपूताना इतिहास की सबसे ज्यादा प्रामाणिक किताब ‘वीर विनोद’ में इतिहासकार कविराज श्यामलदास लिखते हैं- ‘कुछ दिन बाद जब महाराणा की मूर्छा खुली, तो उन्होंने अपने लोगों को पूछा कि फ़ौज की क्या हालत है? और मैदान में फ़तह किसकी और शिकस्त किसकी हुई? तब लोगों ने कहा कि बाबर की फ़तह हुई और हमारी सारी फ़ौज कट गई। आपको ज़ख्मी और मूर्छित हालत में लेकर हम लोग कई सरदारों समेत वहां से निकले हैं। यह सुनकर महाराणा ने कहा, कि तुमने बहुत बुरा किया, कि मुझको लड़ाई की जगह से ले आये। वे बोले- मैं बाबर को फ़तह किये बिना चित्तौड़ नहीं जाऊंगा। इसके बाद उन्होंने फ़ौज फिर से एकत्र करने के लिए काग़ज़ मंगाए। कहते हैं कि महाराणा के इस दोबारा लड़ाई करने के इरादे को बहुत आदमियों ने रोका, लेकिन उन्होंने अपना इरादे को नहीं छोड़ा। एक दिन कुछ नमक हराम सरदारों ने उनको ज़हर देकर मौत की नींद सुला दिया। यदि महाराणा जिंदा रहते, तो सबको यक़ीन था, कि बाबर से ज़रूर दोबारा मुक़ाबला करते। इसमें संदेह नहीं कि राजपूतों में वतनी कुब्वत बाकी थी, यदि फिर हमला होता, तो बाबर को भारत छोड़ कर भागना पड़ता। इस लड़ाई के बाद बाबर ने अपना नाम ‘ग़ाज़ी’ रख लिया।