बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी बिना पिये ही बन गए ‘जॉनी वॉकर’
“ज़मीर कांप तो जाता है कुछ भी कहिये
वो हो गुनाह के पहले या गुनाह के बाद।।”
स्तम्भ: इस शेर को अपनी असल जिंदगी में अमल कर आजीवन सादगी से लबरेज़ रहने वाला बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी जब 11 जुलाई 1926 में मध्यप्रदेश के इंदौर ज़िले में जन्मा, तब पिता ने कहां सोचा होगा कि मैंने इस बच्चे को पैदा कर हिंदुस्तानियों पर इतना बड़ा उपकार किया है। इंदौर की गलियों में धमा चौकड़ी करता हुआ बालक बदरुद्दीन की ज़िंदगी की रील ऊपरवाला सीन दर सीन बढ़ाता जा रहा था।
उन दिनों बदरुद्दीन के पिता सूरत में कपड़ा कारख़ाने में काम किया करते थे सो घर पर पिता की हाज़िरी कम ही रहती थी। इसका असर ये हुआ कि बदरुदीन को हिन्दी फिल्मों के पहले कॉमेडियन ‘नूर मोहम्मद चार्ली’ से फैन और फ़नकार वाला इश्क़ हो गया। इश्क़ इतना गहरा हुआ कि बदरुदीन हिन्दी फिल्मों में काम करने के लिये बम्बई जाने की सोचने लगे लेकिन घर का बड़ा बेटा होना इनके पांव की बेड़ियां बनीं और बंबई जाना टलता रहा।
मगर कहते हैं सपने अगर खुली आँखों से देखे गए हों तो वे सच होकर ही रहते हैं। बदरुद्दीन के सपने के साथ भी यही हुआ, कुछ साल बीतने के बाद उनके वालिद की कपड़ा कंपनी घाटे की वजह से बंद पड़ गयी और तब हम हिंदुस्तानियों व बदरुद्दीन के सौभाग्य से इनके वालिद बदरुदीन समेत अपने पूरे परिवार को बम्बई लेकर चले गए। पिता की बेकारी ने बदरुद्दीन पर जिम्मेदारियों का बोझ नुमाया कर दिया। ये दुबला पतला छरहरा नवजवान, जिसके चेहरे पर एक पेन्सिलनुमा मूंछ चिपकी सी थी, छोटा मोटा काम कर परिवार की ज़िम्मेदारी सम्हाल रहा था। उसी बीच एक दिन नवजवान के पिता के बड़े पुराने मित्र जो पुलिस महकमे में अच्छे ओहदे पर थे, सौभाग्य से पिता को टकरा गए। हाल चाल का दौर चला और पिता ने बदरू के लिए काम काज की बात छेड़ दी और यूं बदरू पहुंचे बेस्ट (BEST) में बस कंडक्टरी करने।
बदरू को ये नौकरी जम गई। वे दिन भर बस में ड्यूटी करते और वक़्त निकालकर फ़िल्म स्टूडियोज़ के चक्कर लगाते। एक बार फ़िल्म ‘आखिरी पैग़ाम’ में इन्हें क्राउड में खड़े होने का मौक़ा भी मिला और इस तरह बदरू ने फ़िल्म आख़िरी पैग़ाम से अपने अभिनय का पहला पैग़ाम भेजा लेकिन दुर्भाग्य से इस पैग़ाम पर किसी की भी नज़र इनायत नहीं हुई। यहां तक कि बाद में बदरू ने कहा कि उस फ़िल्म में मुझे खुद भी ख़ुद को ढूंढना पड़ता था।
बहरहाल बदरू 26 रुपये पगार पर उन दिनों लगातार दो साल तक बस कंडक्टर की भूमिका निभाते रहे और यात्रियों को, भिन्न भिन्न प्रकार की अदा दिखाकर उन्हें हँसते हंसाते मंज़िल तक पहुंचाते रहे। साल 1951 में उन्हीं दिनों एक बार उनकी बस में बेहतरीन अदाकार व संज़ीदा लेखक बलराज साहनी साहब भी उनकी बस में चढ़े और टिकट काटते हुए बदरू ने उनसे शराबी के अंदाज़ में पैसे मांगे तो बलराज साहब ने पैसे देते हुए उनसे कहा ‘अच्छा कर लेते हो, फिल्मों में ट्राय क्यों नहीं करते भाई?’तो बदरुदीन ने कहा ‘भाई साहब मैं अभिनेता ही हूँ फ़िल्म में जाना भी चाहता हूं बस काम की तलाश है।’
बलराज साहनी उन दिनों गुरुदत्त की फ़िल्म बाज़ी लिख रहे थे जिसमें मुख्य भूमिका में थे सुपरस्टार देवानंद। बलराज ने बदरुदीन जमालुद्दीन काज़ी को गुरुदत्त से मिलवाया। गुरुदत्त ने कहा-‘भाई मेरे यहाँ तो सारे रोल फ़ाइनल हो चुके हैं लेकिन फ़िर भी बलराज की बात पर, मैं ग़ौर करूँगा आप कुछ करके दिखाइए ज़रा।’ बदरुद्दीन ने उन्हें एक शराबी का अभिनय करके दिखाया वो अभिनय इतना शानदार था कि गुरुदत्त ने बलराज से कहकर फ़िल्म में शराबी का एक सीन अलग से जुड़वा दिया।
फ़िल्म बनकर तैयार हुई, पोस्ट प्रोडक्शन में एडिटिंग चल रही थी शराबी का रोल तो टाइम वाइज छोटा था पर अहम था। इसलिए क्रेडिट रोल में नाम जाना ज़रूरी था। एडिटर ने कहा इतना बड़ा नाम बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी डालें? गुरुदत्त उस वक़्त अपनी पसंदीदा व्हिस्की ‘जॉनी वॉकर’ पी रहे थे चूंकि ये रोल शराबी का था तो उन्होंने बदरुद्दीन का नाम ‘जॉनी वॉकर’ रखकर एडिटर को बोल दिया। क्रेडिट रोल में वही नाम गया। फ़िल्म ज़बरदस्त हिट रही। फ़िल्म तो फ़िल्म बदरुदीन जो अब जॉनी वॉकर हो चुके थे, का रोल भी दर्शकों के दिलों दिमाग पे छा गया। इस तरह हिन्दी फिल्मों को, साल 1951 में, उसका पहला कॉमेडियन सुपरस्टार मिला और बदरुदीन को उनका प्रसिद्ध नाम जॉनी वॉकर। उसके बाद तो गुरु दत्त की हर फिल्मों में जॉनी वॉकर दिखने लगे। दोनों की दोस्ती ने हिन्दी फ़िल्मी इतिहास के कई कोरे पन्ने गौरवशाली दास्तानों से भर दिए।
वे पहले और अब तक के आख़िरी, हिन्दी फिल्मों के ऐसे कॉमेडियन हैं, जिन पर एक से एक चार्टबस्टर गाने फ़िल्माये गए हैं। नूरमोहम्मद चार्ली की चाल और अदा को अपने ख़ास आवाज़ व अभिनय शैली में शामिल कर जॉनी साहब ने उन्हें एक सच्चा ट्रिब्यूट दिया। दशक 1950 और 60 उनके स्टारडम का सर्वोत्तम काल था। इस दौर के सभी महान कलाकारों के साथ उनका याराना रहा। इन्हीं में से अबरार अल्वी ऐसे राइटर थे जो उनको बहुत करीब से समझते थे।
स्वयं जॉनी साहब कहते हैं- ” कॉमेडी के लिए तीन बातों का होना बहुत महत्व रखता है एक तो परफेक्ट लिखावट दूसरा परफेक्ट टाइमिंग तीसरा लिखने को आत्मसात कर उस पर एक्ट करना। लिखावट के मामले में अबरार अल्वी जैसे लोग लिखते थे तो मुझे ज्यादा कुछ उसमें एफर्ट नहीं करना पड़ता था।” उस दौर को हिन्दी फिल्मों का स्वर्णिम काल भी कहा जाता है। उस वक़्त हिन्दी फिल्मों के पास जॉनी वॉकर समेत एक से एक क़ीमति हीरे थे। उसी दौर में एक गाना जॉनी पर फिल्माया गया था “मेरा यार बना है दूल्हा और फूल खिले हैं दिल के अरे मेरी भी शादी हो दुआ करो सब मिलके…” सबने मिलकर दुआ की और जॉनी साब की भी शादी हो गयी। वे, उस जमाने की मशहूर अदाकारा शकीला की अदाकारा बहन नूरजहां से इस पवित्र बंधन में बंधे।
जॉनी वॉकर फिल्मों में बहुत अच्छा कर रहे थे लेकिन कहीं से भी उनके व्यक्तित्व में गुमान और घमंड को स्थान न मिल सका था, जॉनी साब के चरित्र और जीवन शैली के बारे में जानना हो तो उनके सबसे अच्छे दिनों की एक बात याद आती है-दरअसल साल 1968 में जब उनके पास फिल्मों की लाइन लगी हुई थी उसी बीच एक दिन उनके मन में ख़याल आया “लोग बाग जब सफलता के बारे में सोच रहे होते हैं तब फैमिली को टाइम देने और उन्हें खुश रखने के बारे में सोच रहे होते हैं और जब सफ़ल हो जाते हैं तब पैसा कमाने के होड़ में इस कदर भागते रहते हैं कि फैमिली से ही दूर होने लगते हैं।
मैं भी तो ऐसा व्यस्त हो गया हूँ कि फैमिली तो क्या ख़ुदा को भी शुक्रिया अदा करने का समय नहीं निकल पा रहा। ख़ुदा भी सोचेगा किस नामुराद को मैने इतनी शोहरत बख्सी कि उसे मेरा शुक्रिया अदा करने का भी वक़्त नहीं।” और उसी दिन जॉनी वॉकर ने एलान कर दिया कि अब चाहे लाखों रुपये का नुकसान हो जाये वे शाम छः बजे के बाद व रविवार को काम बिल्कुल नहीं करेंगे। ये उस दौर में एलान था जब जॉनी वॉकर को सोचने की भी फुरसत नहीं थी। ये काम दूसरे किसी के भी हिम्मत से बाहर की बात थी।
ख़ैर गुरुदत्त और जॉनी की दोस्ती व दोनों के फिल्मों का सिलसिला गुरुदत्त के मरने तक बेहतरीन चलता रहा और फ़िर अचानक एक दिन गुरुदत्त साहब इस दुनिया को छोड़कर चले गए। तब जॉनी वॉकर को दोहरा झटका लगा। एक तो इंडस्ट्री का उनका सबसे अच्छा दोस्त उन्हें छोड़कर चला गया दूसरा अब जॉनी को समझकर उनके हिसाब का काम देने वाला कौन मिलेगा। हालांकि बाद में दिलीप कुमार ने उनका साथ दिया और वे फिल्में करते रहे लेकिन साल 1970 आते आते फिल्मों में बदलाव आने लगे कॉमेडी भी इससे अछूती न रही द्विअर्थी संवाद का सिलसिला कॉमेडी का ख़ास हिस्सा बन गया और तब जॉनी वॉकर ने द्विअर्थी संवाद न बोलकर, दिलेरी दिखाते हुए, फिल्मों से सन्यास ले लिया। इनकी निभाई सभी भूमिकाएं यादगार हैं।
एक बार गुरु दत्त के साथ जॉनी वॉकर कलकत्ता गए हुए थे। वहां एक मालिश वाले को देखकर गुरुदत्त ने कहा जॉनी इसे ध्यान से देखो तुम्हें ऐसा एक किरदार मेरी फ़िल्म के लिए करना होगा। और फिर इतिहास गवाह है अब्दुल सत्तार किस कदर लोगों के दिलों में घर कर गया था। ग़ौरतलब है प्यासा फ़िल्म का अब्दुल सत्तार मालिश वाला का किरदार इनका तारीख़ी किरदार बना और इनपर फ़िल्माया गया गाना ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए… ‘ आज भी लोगों की जुबान पर है। जॉनी वॉकर अपनी नाक से आवाज़ निकालते हुए एक ख़ास अंदाज़ में बोलकर भी सहज ही रहते थे और दर्शकों पर न जाने क्या जादू करते थे कि दर्शक हंस हंस कर लहालोट हो जाया करते थे। कहा जाता है कि जब जॉनी वॉकर की पर्दे पर एन्ट्री होती थी तो पूरा हॉल तालियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठता था।
फ़िल्म आनंद में निभाया गया ईशा भाई का किरदार कौन भूल सकता है भला। फ़िल्म के अंदर एक नाटक के दृश्य में जब जहाँपनाह, सलीम बने जॉनी भाई से कहते हैं तुम्हारे जैसे बेटे को जन्म देकर मैं शर्मिंदा हूँ। तब उन्हें सलीम बने जॉनी का उत्तर मिलता है-‘होना चाहिए अपनी गलती पर शर्मिंदा होना हर आदमी का फ़र्ज़ है।’ ये डायलॉग डिलीवरी दर्शकों को गुदगुदी करती है और दर्शक खुद को हंसने से रोक नहीं पाते। ऐसी वाक पटु शैली और सहजता लिए अभिनय से वे सहज तो बनते हैं साथ ही साथ असाधारण भी बन जाते हैं। उनका एक और फ़िल्मी दृश्य मैं आपको बताता हूँ।
कोर्टरूम में कटघरे में जॉनी भाई एक शराबी बने खड़े हैं वकील उनसे पूछता है शराब पीना कब शुरू किया? जॉनी कहते हैं -बीए पास करने के बाद बेकारी के दिनों में। वकील- तुम बेकार थे तो शराब के लिए पैसे कहाँ से आते थे? अपने चिर परिचित अंदाज़ में जॉनी- ‘सड़कों पर कितने बेकारी में ग़रीब पड़े हैं कभी तुमने पूछा उनसे वे खाना कहाँ से खाते हैं! ‘ ये था उनका अर्थपूर्ण अभिनय। ताज़िन्दगी जिसने शराब का एक कतरा होठों से न लगाया हो और शराबी का अभिनय नहीं हक़ीक़त उतारता हो वो कोई और नहीं जॉनी वॉकर ही थे। एक तरह से कहा जाय तो जॉनी वॉकर हिन्दी फिल्मों में हास्य आइटम नम्बर किया करते थे। उन दिनों हर फिल्म में कम से कम एक गाना उन पर ज़रूर फ़िल्माया जाता था।
असल जिंदगी में जॉनी वॉकर गंभीर शांत और बड़े संतोषी स्वभाव के भी थे। एक बार एक साक्षात्कार में जब जॉनी से पूछा गया कि फिल्में छोड़कर आप घर बैठ गए हैं तो कैसा महसूस करते हैं? तब बदरुद्दीन जमालुद्दीन काज़ी उर्फ जॉनी वॉकर ने कहा- जब काम करता था तब अच्छा महसूस करता था अब नहीं करता तो बहुत अच्छा महसूस करता हूँ।
क्या तेनज़िंग पहला एवरेस्ट पर्वतारोही एवरेस्ट पर झंडे गाड़ कर वहीं चिपक गया था, झंडे गाड़े वापिस आया और फिर कितने गए शान से देख रहा है। मैं भी झंडे गाड़ चुका अब घर में बैठकर शान से लोगों को आते जाते देख रहा हूँ।’ इतना संतोषी स्वभाव फ़िल्मी सितारों में अब शायद देखने को नहीं मिलता। खैर जॉनी वॉकर को फिल्मों से लेकर अस्लज़िन्दगी तक में जो ज़िम्मेदारियाँ मिलीं पूरी शिद्दत से निभाते चले गए। जॉनी वॉकर बहुत बड़े यारबाज़ भी थे। एक बार मशहूर फ़िल्म निर्देशक एम सादिक़ की स्थिति खस्ताहाल हो गयी थी तब जॉनी वॉकर उन्हें लेकर गुरुदत्त के पास गए और कहा कि आप इनकी फ़िल्म में मेरे अनुरोध पर काम कर लीजिए लेकिन ध्यान रहे बजट बहुत कम है कोई इनके प्रोजेक्ट पर पैसे लगाने को तैयार नहीं है तो कृपया आप अपना मेहनताना कम से कम कर लीजिए और काम ज़रूर कीजिये।
गुरुदत्त भी यारों के यार थे, सारी बात सुनकर जॉनी का मान रखने के लिये एम सादिक़ से कह उठे मुझे कहानी सुनाइये, कहानी सुनकर बोले ये फ़िल्म आप मेरे बैनर तले बनाइये और इसमें मैं और वहीदा रहमान मुख्य भूमिका अदा करेंगे और आप अपने निर्देशन का कौशल दिखाइए। ठीक वैसा ही हुआ फ़िल्म बनकर तैयार हुई ज़बरदस्त हिट हुई। हिन्दी फिल्मों की फ़ेहरिस्त में एक और रत्न जुड़ गया। फ़िल्म का नाम था ‘चौदवीं का चांद’। जॉनी वॉकर की वजह से हमें ऐसी शानदार फ़िल्म देखने को मिली ऐसे थे हमारे जॉनी वॉकर।
बाद के दिनों में एक बार कमल हासन फ़िल्म चाची 420 के लिए जॉनी वॉकर के पास गए। उन्हें यकीन दिलाया कि ये फ़िल्म और रोल उनके हिसाब का है, जॉनी सोच विचार में पड़े थे कि उनके दोस्त गुलज़ार जो उस फिल्म के लेख़क थे, का फ़ोन आया और उन्हें जॉनी साहब इनकार ना कर सके और इस तरह फ़िल्म चाची 420 उनकी आख़िरी फ़िल्म बनी। जॉनी साहब अपने बेहतरीन दिनों में ऐसे बड़े नाम हो चुके थे कि उन्हें कई बार उनकी फिल्मों के हीरो से अधिक पैसे मिलते थे।
जॉनी वॉकर को फ़िल्म मधुमती के लिए फ़िल्म फेयर बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर के अवार्ड से नवाज़ा गया और फ़िल्म शिकार के लिए फ़िल्म फेयर बेस्ट कॉमेडियन का ख़िताब भी मिल चुका है। फ़िल्म शिकार में उन्होंने अवधी भाषा में ज़बरदस्त बोलकर लोगों को ये भी दिखा दिया कि वे सिर्फ मुम्बइया अंदाज़ के फ्रेम में बंधे हुए नहीं हैं।
जॉनी साब ने दुनिया के कई कोनो में जाकर लाइव शोज़ भी करते हुए लगभग 300 फ़िल्मों में अभिनय किया था और कभी एक शब्द भी जॉनी का सेंसर बोर्ड ने नहीं काटा ऐसी साफ़ व श्लील शब्दों का चयन किया करते थे वे।
पतंगबाज़ी के शौक़ीन, बिना शराब पिये मशहूर शराब के नाम को अपने साथ जोड़कर उसे ताज़िन्दगी मशहूर बना देने वाले हिन्दी फिल्मों के पहले कॉमेडियन सुपर स्टार, किंग ऑफ कॉमेडी, हरदिल आजिज़ सख्शियत जॉनी वॉकर साहब अंत में 29 जुलाई साल 2003 में अपने क़रीब क़रीब 40 साला फ़िल्मी कैरियर को जीते हुए, ज़िन्दगी के 76 वसंत देखकर सुपर्द-ए-खाक़ हो गए।
(लेखक फ़िल्म स्क्रीन राइटर, फ़िल्म समीक्षक, फ़िल्मी किस्सा कहानी वाचक है)