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बिहार चुनाव : बाहुबलियों के बिना अधूरी है बिहार की सियासत

बिहार चुनाव : बाहुबलियों के बिना अधूरी है बिहार की सियासत

बिहार: बिहार में चुनावी शंखनाद हो चुका है और सियासी हलचल तेज हो गई। राजनीति की बिसात पर शह-मात का खेल चल निकला है। सभी ओर से जोरआजमाइश शुरू हो चुकी है। सत्तारूढ़ दल और विपक्ष अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते हैं।

ये हालत सिर्फ बिहार में होने वाले चुनाव के नहीं है बल्कि देश में कहीं भी चुनाव होते हैं तो तकरीबन यही हालत होती है। सिर्फ एक खास पहलू ऐसा है जो बिहार के चुनाव को दूसरे प्रदेशों में होने वाले चुनावों से कुछ अलग करता है लेकिन यह फॉर्मूला भी अब हर प्रदेश में आजमाया जाने लगा है।

यह फॉर्मूला है चुनाव में बाहुबलीयों का मैदान में होना। यूं तो हर प्रदेश में कई बाहुबली विधानसभा और संसद तक की शोभा बढ़ा रहे हैं लेकिन बिहारी की राजनीति बिना बाहुबलीयों के अधूरी सी लगती है। बाहुबली विभिन्न राजनीतिक दलों के सहारे सत्ता का सुख भोगते रहे हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में सरकार चलाते रहे हैं।

मौजूदा वक्त में कभी बिहार में आतंक का माहौल पैदा करने वाले बहुत से बाहुबली आजकल या तो जेल में अपने गुनाहों की सजा काट रहे हैं या फिर अदालत द्वारा माफी के बाद राजनीतिक जमीन की तलाश में जुटे हैं। राजनीति के चुनावी नजरिए से देखा जाए तो बिहार के तकरीबन हर विधानसभा क्षेत्र में कोई न कोई स्थानीय दबंग प्रभावी है और सभी पार्टियां इनका सहयोग लेने को आतुर दिखती हैं।

बिहार की राजनीति में 80 के दशक के पहले राजनेता चुनाव में इनका सहयोग लेते थे। बाद में ये बाहुबली खुद ही चुनाव में उतरने लगे। सबसे हैरत की बात तो यह है कि इन बाहुबलीयों को चुनकर जनता से विधानसभा से लेकर संसद की चौखट पार कराने में अहम भूमिका निभाई। धीरे-धीरे इन दबंगों का राजनीति में दखल बढऩे लगा। बिहार के बाहुबलीयों की सूची जो नाम सबसे ज्यादा चर्चा में रहा है वह शहाबुद्दीन का।

शहाबुद्दीन पर पहला मुकदमा 21 साल की उम्र में दर्ज हुआ। 1990 में निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीतने के बाद लालू प्रसाद की नजर उन पर पड़ी और मुस्लिम-यादव के अपने राजनीतिक समीकरण को ध्यान में रखते हुए राजद में शामिल करा लिया।

फिलहाल तेजाब हत्याकांड में शहाबुद्दीन तिहाड़ की शोभा बढ़ा रहे हैं। लेकिन शहाबुद्दीन की पत्नी को लालू की पार्टी टिकट देने में गुरेज नहीं करती है। शहाबुद्दीन दो बार विधानसभा और चार लोकसभा का चुनाव जीते।

फिर वक्त बदला और इसी इलाके में एक और बाहुबली अजय सिंह का अभ्युदय हुआ जिनकी पत्नी कविता सिंह वर्तमान में सीवान लोकसभा क्षेत्र से सांसद हैं। अजय ने सिवान में मोहम्मद शहाबुद्दीन के प्रभुत्व को एक हद तक खासी चुनौती दी। कविता सिंह ने हिना को हरा कर ही लोकसभा का चुनाव जीता।

प्रभुनाथ सिंह भी एक ऐसा ही नाम है जिसकी चर्चा हमेशा से ही सत्ता की गलियारों में होती रही है। अपने ही शागिर्द से चुनाव हारने के बाद उसकी हत्या का आरोप प्रभुनाथ सिंह पर है।

सारण विधानसभा क्षेत्र से 1985 में जीत दर्ज करने वाले सीमेंट कारोबारी रहे प्रभुनाथ सिंह को कभी नीतीश कुमार तो कभी लालू प्रसाद यादव का साथ मिलता रहा है। 1990 में जनता दल के टिकट पर चुने गए किंतु 1995 में जब वे अपने ही शागिर्द अशोक सिंह से चुनाव हार गए तो उसे बम से उड़वा दिया। अशोक की हत्या में प्रभुनाथ सिंह और उनके भाई दीनानाथ सिंह को आरोपित किया गया।

1998 में समता पार्टी के टिकट पर वे महाराजगंज सीट से लोकसभा पहुंचे। 2004 में उन्होंने जदयू के टिकट पर चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। 2012 में प्रभुनाथ राजद में शामिल हो गए और 2013 में इसी सीट से लोकसभा का उपचुनाव जीता जो राजद के उमाशंकर सिंह के निधन के कारण रिक्त हुई थी। इनका रसूख देखिए, ये खुद तो माननीय बने ही अपने रिश्तेदारों को भी लोकतंत्र के मंदिर तक पहुंचा दिया।

भाई केदारनाथ सिंह बनियापुर (सारण), बेटे रणधीर सिंह छपरा (सारण), समधी विनय सिंह सोनपुर (सारण), तो बहनोई गौतम सिंह मांझी (सारण) से विधायक रह चुके हैं। विधायक अशोक सिंह की हत्या के आरोप में भाइयों समेत दोषी पाए जाने पर वे अभी आजीवन कारावास की सजा काट रहे हैं।

अनंत सिंह का नाम लिये बिना बिहार की सियासत में बाहुबलीयों के दखल का अध्याय पूरा ही नहीं हो सकता है। भाई दिलीप सिंह की हत्या के बाद राजनीति में आए अनंत सिंह 2005 में पहली बार विधायक बने। तरह-तरह के चश्मों व घोड़े की सवारी के शौकीन अनंत सिंह को कभी नीतीश कुमार का करीबी माना जाता था।

2015 में जदयू से रिश्ते तल्ख होने के बाद इलाके में छोटे सरकार के नाम से मशहूर अनंत सिंह ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। एके-47 बरामदगी के मामले में वे फिलहाल पटना की बेउर जेल में बंद हैं। अनंत पर रंगदारी, हत्या व अपहरण के 30 से अधिक मामले दर्ज हैं।

बिहार के कोसी को शायद ही कोई ऐसा हो जो न जनता हो लेकिन 90 के दशक में दो ऐसे नाम इस क्षेत्र में उभरे जो जल्द ही बिहार की राजनीति में खासा दखल रखने लगे। ये दो नाम हैं, आनंद मोहन और पप्पू यादव।

आनंद मोहन 1990 में पहली बार सहरसा से विधायक बने। उन दिनों लालू यादव के काफी करीबी रहे पप्पू यादव से इनकी खासी अदावत रही। ये दो बार सांसद बनने में भी कामयाब रहे। बाद में इनकी पत्नी लवली आनंद भी सांसद बनीं। गोपालगंज के डीएम जी. कृष्णैया की हत्या में दोषी ठहराए जाने पर ये अभी उम्रकैद की सजा काट रहे हैं। इनकी पत्नी लवली आनंद राजनीति में सक्रिय हैं।

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कभी लालू के खासमखास रहे राजेश रंजन यादव उर्फ पप्पू यादव मधेपुरा जिले की सिंहेश्वर विधानसभा क्षेत्र से 1990 में पहली बार विधायक बने। कई बार वे सांसद भी बने। लोकसभा में अच्छा काम करने वाले सांसदों में उनका नाम भी लिया जाता है। कहा जाता है कि पप्पू ने लालू का उत्तराधिकारी बनने की मंशा पाल रखी थी। लेकिन वे कामयाब न हो सके और 2015 में पप्पू को राजद से बाहर कर दिया गया।

तब उन्होंने जन अधिकार पार्टी (जाप) की स्थापना की। करीब 15 से ज्यादा मामलों में आरोपित पप्पू यादव को पूर्णिया के माक्र्सवादी विधायक अजीत सरकार की हत्या में दोषी ठहराते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें बरी कर दिया।

पप्पू यादव अभी राजनीतिक व सामाजिक जीवन में पूरी तरह सक्रिय हैं और इस बार के विधानसभा चुनाव में नीतीश सरकार को शिकस्त देने की कोशिश में जुटे हैं। ऐसा नहीं है कि बाहुबलीयों की सूची इन्हीं नामों के साथ खत्म हो जाती है।

इनके अलावा सांसद रहे सूरजभान सिंह (बेगूसराय) व रामा सिंह (वैशाली), विधायक रहे सुनील पांडेय (भोजपुर), राजन तिवारी (चंपारण), मुन्ना शुक्ला (वैशाली), सुरेंद्र यादव (जहानाबाद) एवं अवधेश मंडल (पूर्णिया), पूनम यादव के पति रणवीर यादव (खगडिय़ा), गुड्डी देवी के पति राजेश चौधरी (सीतामढ़ी) व गोपालगंज के कुचायकोट से निवर्तमान जदयू विधायक अमरेंद्र पांडेय भी उन बाहुबलीयों में शुमार हैं जिनकी दबंगई आज भी अपने-अपने इलाके में कायम है।

वही रामा सिंह भी एक ऐसा नाम हैं जिनकी राजद में इंट्री को लेकर अंतिम दिनों में रघुवंश प्रसाद सिंह से लालू प्रसाद का विवाद हो गया था। रामा सिंह ने ही 2014 में पिछले लोकसभा चुनाव में रघुवंश बाबू को पराजित किया था। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाया।

इस फैसले के बाद जो किसी न किसी मामले में आरोपित ठहरा दिए गए थे, उन्हें चुनाव लडऩे के अयोग्य ठहरा दिया गया। ऐसे बाहुबलीयों ने अपनी पत्नियों के सहारे सत्ता के गलियारे में पहुंचने की कोशिश की और कुछ कामयाब भी रहे।

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