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छाले दरक रहे हैं और पाँव गल रहे हैं: डॉ. मालविका हरिओम

(उमेश यादव/ राम सरन मौर्या): कोरोना महामारी(कोविड19)से समूचा विश्व दहला हुआ है।चारों तरफ लोग भयभीत नजर आ रहे हैं।इससे निजात पाने के लिये अधिकांश देशों में महीनों से लॉक डाउन चल रहा है।कारोबार ठप हो जाने से गरीब , मजदूर और मध्यम वर्ग की कमर टूट सी गयी है। रोजगार एकदम से बंद हो जाने से शहरों से हजारों की संख्या में मजदूरों का पलायन जारी है।सड़कों पर भूखे प्यासे लोग पैदल ही परिजनों के साथ सफर कर अपने गांव की तरफ जा रहे हैं।कोरोना के प्रति जागरूकता और गरीब मजदूरों की तमाम समस्याओं को साहित्यकार अपनी कविता,गजल और लेखनी द्वारा जिम्मेदारों तक पहुँचाने का प्रयास कर देश और समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाहन कर रहे है।प्रस्तुत है उनकी कविताएं…

डॉ मालविका हरिओम

 छाले दरक रहे हैं और पाँव गल रहे हैं…
” छाले दरक रहे हैं और पाँव गल रहे हैं,
वो भूख-प्यास लेकर सड़कों पे चल रहे हैं।
पन्नों पे जिनकी ख़ातिर सरसब्ज़ योजनाएँ,
वो धूप की तपिश में दिन-रात जल रहे हैं।
लानत है पक्षपाती उस तंत्र को हमेशा,
जिसकी दुआ से सारे धनवान फल रहे हैं।
खाली पड़ा जो पत्तल दिख जाए उसमें रोटी,
ये सोच करके बच्चे आँखों को मल रहे हैं।
मज़दूर थे वो जब तक सबके ही काम आए,
मजबूर हो गए तो सबको ही खल रहे हैं।

डॉ मालविका हरिओम


ये कैसी प्यास है पतवार की
डुबोए कश्तियाँ लाचार की
सड़क पर आदमी ही आदमी
कमी है एक बस सरकार की
बिलखते भूख से बच्चे जहाँ
वहाँ परवाह किसको मार की
कभी मज़दूर बनकर देख लो
ना बोली भाएगी धिक्कार की
वो मंज़र भूख का दिल चीर दे
जहाँ रोटी हो चाहत यार की

डॉ मालविका हरिओम

मूसा खान अशान्त बाराबंकवी

देश को उन्होंने विपत्ति में
देश को आत्मनिर्भर बनाकर
ततपश्चात आर्थिक पैकेज देकर
पटरी पर ला दिया। उन्होंने आपदा काल मे
इस प्रकार देश को महामारी से बचाकर
स्वावलंबन मन्त्र देकर
अपने पैरों पर खड़ा कर दिया।
उन्होंने इस प्रकार देश को कुछ देकर
आज फ़िर से कहीं न कहीं लाकर
पुनः खड़ा कर दिया ।
उनको मिलना चाहिए महान होने का भावपूर्ण समर्थन जो करना था
उन्होंने पुनः कर दिया।

मूसा खान अशान्त बाराबंकवी

कृष्ण कुमार द्विवेदी ‘ राजू भैया ‘ पत्रकार


सड़कों पे टूटी सांसे, बस लाशें पड़ी हैं…
“हाय रे विधाता कैसी, कठिन घड़ी है।
घर को वह लौटे कैसे, बाधा बड़ी
है मेहनतकश के आगे मौत खड़ी है
सड़कों पे टूटी सांसें, बस लाशें पड़ी हैं।।
घर को चले वह भूखे प्यासे,
अपनों की याद में रोते रुआँसे
असुवन भरी आंखों में सपने सजा के
अपनों से मिलने की चाहत बड़ी है
कॉल की लेकिन इन पर नजर गड़ी है,
सड़कों पे टूटी सांसे, बस लाशें पड़ी हैं
सब कुछ छोड़ कर घर को भागे,
कुछ साधन कुछ पैदल साधे, बीवी बच्चों को डांटते दुलराते,
मेहनत के फैले हाथ कैसी बेबसी है
रहेम ना आया मौत को वह इन पर खूब हंसी है
सड़कों पर टूटती सांसें, बस लाशें पड़ी है।
भाई-बहन मां -बापू के दुलारे, बेटा बिटिया के पापा पालनहारे,
कुछ ना मांगेंगे लौट के आ रे,, जीवनसंगिनी की तेरी छाती फटी है
पुछा सिंदूर जो उसका चूड़ी टूटी है,
सड़कों पर टूटी सांसे, बस लाशें पड़ी हैं,,
हाय रे विधाता कैसी, कठिन घड़ी है।

कृष्ण कुमार द्विवेदी ‘ राजू भैया ‘ पत्रकार

सरस्वती मिश्र

वह दुखी है कि, जाने क्यों अपने भी कतराते हैं
मुँह बाँध दूर से हाल पूछ जाते हैं वह नहीं समझती
गाँव के लोग भी सयाने हो चुके हैं
मोबाइल पर दिनभर देखते हैं  कोरोना की खबरें
अपना राशन सहेजना है उन्हें वे जानते हैं
अभी बुरे वक्त का चरम पर आना बाकी है
वह दुखी है क्योंकि वह महामारियों के शहर से
लौटी है अपने गाँव वह संदिग्ध है
टेस्ट की रिपोर्ट आने तक
लोगों के लिए प्रतीक्षा का समय है
और उसके लिए परीक्षा की घड़ियाँ मैं भी दुखी हूँ
क्योंकि मैंने अक्सर देखा है
ऐसी परीक्षाओं को लोगों की जान लेते हुए ।

सरस्वती मिश्र

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