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बॉम्बे हाईकोर्ट ने दफ्तर में यौन उत्पीड़न से जुड़े मामलों की अदालती कार्यवाही की मीडिया रिपोर्टिंग पर लगाई रोक

बॉम्बे हाईकोर्ट (Bombay High Court) ने कार्यस्थल यानी ऑफिस में यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment) से जुड़े मामलों की अदालती कार्यवाही (Court proceeding) की मीडिया रिपोर्टिंग (Media Reporting) को लेकर सोमवार को कड़ा रुख जाहिर किया. कोर्ट ने अपने एक आदेश में कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के मामलों की मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगा दी है. कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि इस तरह के मामलों में लगातर बढ़ा-चढ़ाकर रिपोर्टिंग देखी जा रही है जो कि आरोपी और पीड़ित पक्ष दोनों के ही अधिकारों का हनन है.

हाईकोर्ट के जस्टिस गौतम पटेल ने आदेशों और निर्णयों की मीडिया रिपोर्टिंग पर रोक लगाने का आदेश जारी किया है. इसके साथ ही हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि इन मामलों में आदेश भी सार्वजनिक या अपलोड नहीं किए जा सकते हैं. ऑर्डर की कॉपी में पार्टियों की व्यक्तिगत रूप से पहचान योग्य जानकारी का उल्लेख नहीं किया जाएगा. कोर्ट ने कहा कि कोई भी आदेश खुली अदालत में नहीं बल्कि न्यायाधीश के कक्ष में या इन कैमरा दिया जाएगा. कोर्ट ने कहा है कि यदि किसी भी पक्ष द्वारा इसका उल्लंघन किया जाता है तो इसे न्यायालय की अवमानना ​​माना जाएगा. कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि कोई भी पक्ष, उनके वकील या गवाह मीडिया को मामले में अदालत के आदेश या किसी अन्य फाइलिंग के विवरण का खुलासा नहीं कर सकते हैं. साथ ही कोर्ट ने कहा है कि सिर्फ अधिवक्ताओं और वादियों को सुनवाई में हिस्सा लेने की अनुमति होगी.

एक अन्य मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक स्वतंत्रता सेनानी की विधवा की पेंशन रोके जाने को अनुचित बताया और महाराष्ट्र सरकार से जवाब मांगा है. स्वतंत्रता सेनानी की 90 वर्षीय पत्नी ने याचिका में सरकार की पेंशन योजना का लाभ देने का अनुरोध किया है. महिला के पति की 56 साल पहले मौत हो गई थी. याचिकाकर्ता के वकील जितेंद्र पाठाडे ने अदालत को बताया कि शालिनी चव्हाण को पेंशन योजना का लाभ इस आधार पर नहीं दिया गया कि उनके पति की गिरफ्तारी और कारावास का रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है.

न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयां और न्यायमूर्ति माधव जमादार की पीठ ने 24 सितंबर को आदेश जारी किया और इसकी एक प्रति सोमवार को उपलब्ध कराई गई. अदालत रायगढ़ जिले की निवासी शालिनी चव्हाण की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उन्होंने ‘स्वतंत्र सैनिक सम्मान पेंशन योजना, 1980’ का लाभ देने का अनुरोध किया क्योंकि उनके दिवंगत पति एक स्वतंत्रता सेनानी थे. याचिका के अनुसार महिला के पति लक्ष्मण चव्हाण स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया था. चव्हाण को सजा सुनाई गई जिसके बाद उन्हें 17 अप्रैल, 1944 से 11 अक्टूबर, 1944 तक मुंबई की भायखला जेल में रखा गया. चव्हाण की 12 मार्च 1965 को मृत्यु हो गई.

पाठाडे ने दलील कि याचिकाकर्ता ने 1966 में अपने दिवंगत पति के कारावास का प्रमाण पत्र राज्य सरकार को प्रस्तुत किया था, लेकिन इसका सत्यापन नहीं हो सका क्योंकि भायखला जेल के पुराने रिकॉर्ड जिसमें उनके पति के कारावास का विवरण था, नष्ट हो गया था. अदालत ने मामले की संक्षिप्त सुनवाई के बाद कहा कि रिकॉर्ड में उपलब्ध सामग्री से लक्ष्मण चव्हाण के स्वतंत्रता सेनानी होने की स्थिति और याचिकाकर्ता के उनकी विधवा होने के संबंध में कोई विवाद नहीं लगता है.

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