बुलडोजर बाबा ने बदला राजनीति का गणित
21वीं सदी के 25 वर्षों में उत्तर प्रदेश की सियासत की दशा और दिशा दोनों बदल गई। एक जमाने बाद यूपी को राजनीतिक स्थिरता का तोहफा मिला। यह तोहफा जनता ने हुकूमत को दिया। दूसरा तोहफा हुकूमत ने जनता को दिया। वह तोहफा है माफियावाद से मुक्ति का। नाथ सम्प्रदाय के संन्यासी से मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यनाथ देखते-देखते दुनिया में बुलडोजर बाबा के नाम से मशहूर हो गए। यूपी की बीते 25 के राजनीतिक बदलाव और उसके असर का लेखा-जोखा पेश कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक चिंतक बृजेश शुक्ल।
दृश्य एक : साल 1998 : अमरमणि त्रिपाठी एक रिक्शे में बैठ विधानसभा के इर्द-गिर्द के चक्कर लगा रहे हैं। पीछे उनके गनर दौड़ रहे हैं। मुख्यमंत्री के विरोध के कारण उन्होंने अपनी कार छोड़ दी है। त्रिपाठी बेहद नाटकीय अंदाज में पत्रकारों से कह रहे हैं कि मुख्यमंत्री ने उनकी बात नहीं मानी तो वह सरकार गिरा देंगे।
दृश्य दो : साल 2004 : विधान भवन की तरफ विधायक मुख्तार अंसारी बंदूकों से लैस अपने ब्लैक कमांडों और समर्थकों के हुजूम के साथ बढ़ रहे हैं। ज्यों-ज्यों वह आगे बढ़ते हैं, सचिवालय कर्मचारी दीवार से चिपककर और पीठ को नीचे तक झुका कर उनको सलाम बजाते हैं। खुद अंसारी भी जानते हैं कि यह सलाम उनके सम्मान का नहीं बल्कि एक खौफ का प्रतीक है। वह खौफ जो गोली चलने के बाद बंदूक के नली के धुंए से पैदा होता है।
यह नई सदी का शुरुआती दौर था। ज्यादातर नेता अपराधी थे और ज्यादातर अपराधी अब नेता बन चुके थे। बाहुबल से विधानसभा का टिकट तय होता और राइफल की बैरल से मंत्री का पद। अपराधियों का ऐसा खौफ कि जिस तरफ से भी राजनीतिज्ञ के अपराधियों का काफिला निकलता था, लोग सहम कर सड़क के किनारे खड़े हो जाते थे। उनकी कारों से निकली बंदूकों और राइफलों की बैरल यह बताने के लिए काफी थीं कि नेताजी जा रहे हैं। मुख्यमंत्री अपने ही विधायकों और मंत्रियों से डरते थे। जाने कब, कौन, किस बात पर सरकार गिरा दे। लेकिन अब लखनऊ की सड़कों पर ये नजारे नहीं दिखते। अपराधी होना अब रुतबे की बात नहीं रही। अपराधियों के लिए अब दो जगहें मुकर्रर हैं। एक जेल और दूसरा जहन्नुम, जहां कोई जाना नहीं चाहता।
यह कथा केवल मुख्तार अंसारी, अमर मणि त्रिपाठी की नहीं है। ये केवल प्रतीक हैं। यह दबदबा तो उन तमाम सफेद खद्दर माफिया का था जो अपराध की दुनिया से अपने पाप धोने राजनीति के गंगा सागर में डुबकी लगाने आए थे। 1985 से 2012 तक का वह दौर था जब उत्तर प्रदेश की राजनीति में ज्यादातर अपराधी ही सत्ता के केंद्र में थे। उत्तर प्रदेश की राजनीति का मूल मंत्र यही था कि जिताउ के नाम पर अपराधियों को टिकट दो और फिर उनकी शर्तों को भी को कबूल करो। इस राज्य ने वह दौर भी देखा है जब 100 सदस्यीय मंत्रिमंडल था और उनमें से आधे हार्डकोर अपराधी। वह दौर भी देखा जब यह अपराधी ही सरकार को बनाते और बिगाड़ते थे। वे मुख्यमंत्री बनाते थे और यह धमकी भी देते थे कि अगर उनकी बातें नहीं मानी गई तो वह सरकार को गिरा देंगे। वह दौर भी था जब श्रीप्रकाश शुक्ला जैसे कुख्यात अपराधी को राजनीति से ही संरक्षण मिल रहा था। तब यह कल्पना करना भी कठिन था कि उत्तर प्रदेश कभी अस्थिर राजनीति और अपराधियों से मुक्त होगा। विशेष रूप से उन अपराधियों से जो जरायम की दुनिया में दर्जनों अपराध करने के बाद राजनीति में आ गए थे और सत्ता का सुख भोग रहे थे। राजनीतिक दलों ने यह मान लिया था कि यदि उन्हें सत्ता में आना है तो अपराधियों को संरक्षण देना ही होगा। यूपी ने इस सच्चाई को नजदीक से देखा है जब सभी दलों के दरवाजे अपराधियों के लिए खुले हुए थे।
पूर्वांचल बना केन्द्र
पुरानी सदी के अंतिम दशकों में अपराध और राजनीति के काकटेल की इस शराब का पहला ठेका गोरखपुर में खुला था। पंडित हरिशंकर तिवारी ने राजनीति में प्रवेश किया और वह विधायक हो गए, वह भी तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर् सिंह को चुनौती देते हुए। इसी जमाने में वीरेंद्र शाही का राजनीति में उदय हुआ जो एक कुख्यात अपराधी थे। पूर्वांचल में ही मुख्तार अंसारी अपराध से राजनीति में आ गए। लगभग 40 साल पहले यह उत्तर प्रदेश की राजनीति के संक्रमण का दौर था। बहुजन समाज पार्टी यानी बीएसपी के साथ राजनीति के नए युग की शुरुआत हो रही थी। उत्तर प्रदेश नहीं बल्कि भारत की राजनीति में एक ऐसे दल का उदय हो रहा था जिसकी दलितों के बीच गहरी पकड़ थी। उसका कैडर गांव-गांव फैला हुआ था। 1989 के विधानसभा चुनाव में जब पहली बार बहुजन समाज पार्टी मैदान में उतरी और उसके 11 विधायक चुनाव जीत गए, फिर बसपा ने पीछे पलट कर नहीं देखा। बसपा ने सारे सियासी समीकरण तहस-नहस कर दिए। समाज के दलित वर्ग को जोड़कर सरकार बनाना आसान नहीं था। यह वह दौर था जब दलितों को वोट डालने के लिए बूथ तक नहीं जाने दिया जाता था। ऐसे में बसपा को बाहुबलियों की सख्त जरूरत थी। बसपा ने विधानसभा के टिकट के बदले अपराधी खरीद लिए। दलितों को वोट के बदले संरक्षण मिला और मायावती को सत्ता। इस फार्मूले ने उन्हें तीन बार मुख्यमंत्री का ताज पहनाया। फार्मूला इतना हिट रहा कि न केवल राष्ट्रीय दल बल्कि छोटे-छोटे सियासी दल यही प्रयोग करने लगे। सब वोट की ताकत हासिल कर कुर्सी की खरीद-फॅरोख्त में लग गए। इन हालात ने एक घोर राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। 2006 में राजनीति में एक नया बदलाव आया। बसपा ने यू टर्न लिया। जो बहुजन समाज पार्टी सवर्णों को किनारे कर अपनी राजनीति करती थी, उसने ब्राह्मणों को देवता मान लिया और जगह-जगह ब्राह्मण सम्मेलन होने लगे। बसपा ने ब्राह्मणों को बहुत महत्व दिया और उन्हें टिकट भी दिया। अपराध से लड़ने के नाम पर बड़े-बड़े अपराधियों को टिकट दे दिए गए और मायावती पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आ गयीं।
दलित राजनीति का पतन
यह एक ऐसा सुनहरा मौका था जब बसपा यह साबित कर सकती थी कि वही दलितों और पिछड़ों की हितैषी है, लेकिन ऐसा न हुआ और न होता दिखा। बसपा ने दलित चेतना के प्रसार के बजाए वही सब करना शुरू किया जो अन्य दलों के नेता अब तक करते आए थे। बसपा चाहे-अनचाहे उसी मनुवाद का हिस्सा बन गई जिसे वह कोसती थी। नतीजतन जमीन पर वही बिचौलिए और अपराधी हावी रहे जो अन्य सरकारों में रहते थे। आम लोगों को सत्ता परिवर्तन में कोई बदलाव नहीं दिखा। दलितों के लिए ऐसी योजनाएं नहीं आई जो उनके जीवन में बदलाव कर सकें। मायावती और आवाम के बीच की दूरी बढ़ी। वह सख्त प्रशासक के रूप में स्थापित तो हुई लेकिन आमजन से नहीं जुड़ सकीं। दलितों और गरीबों के जीवन में कोई बदलाव नहीं हुआ। जो बिचौलिए और दलाल पहले थानों में बैठते थे, वही मायावती की सरकार में भी बैठे दिखे। 1995 में 1997 और 2003 में मायावती ने कहा था कि जब उनकी पूर्ण बहुमत की सरकार आएगी तब वह दलितों के लिए कुछ कर सकेंगी और उनकी मुराद पूरी होगी। वह लगातार कहती रहीं कि मनुवादी भारतीय जनता पार्टी के समर्थन के कारण वह कुछ कर नहीं पा रही हैं। यह वह निराशा का समय था जब लोग इस बात से परेशान थे कि कैसे उत्तर प्रदेश में अपराधियों के बजाय आम लोगों की भी सुनवाई हो सके और अपराधियों से मुक्ति मिले। 2007 में बहुजन समाज पार्टी अपने बहुमत के बल पर सरकार बनाने में तो सफल रही। इस तरह राजनीतिक अस्थिरता का दौर खत्म हुआ लेकिन उसका यह नारा खोखला साबित हुआ कि ‘चढ़ गुंडे की छाती पर मोहर लगाओ हाथी पर’। यह सिर्फ दिलफरेब नारा था। मायावती के शासन में भी अपराधी बेखौफ और बेलगाम रहे। इसका कारण यही रहा की तमाम अपराधी चुनकर विधानसभा में आ गए थे। मायावती सरकार ने गुंडों पर कार्रवाई तो की लेकिन अपने उन विधायकों पर कोई एक्शन नहीं लिया जो कुख्यात अपराधी थे। सबसे ज्यादा निराशा उन दलित मतदाताओं को हुई जो यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि अब मायावती सरकार आ गई है और बहन जी मुख्यमंत्री हैं, इसलिए उनके दिन बहुरेंगे। लेकिन दलितों को पिछली सरकारों और मायावती की बहुमत की सरकार में कोई फर्क नहीं दिखा। विकास के नाम पर भ्रष्टाचार के महंगे स्मारक बने। दलित वोटरों का मोहभंग हो गया। यह दलित राजनीति के पतन की शुरुआत थी। मायावती सरकार की लॉ एंड आर्डर की तारीफ करने वाले गैर दलित भी सोचने लगे कि आखिर फिर इसका विकल्प क्या हो। 2012 के चुनाव का यह बड़ा मुद्दा था।
समाजवादी राज
2012 के विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की जनता ने एक बार फिर से प्रयोग किया। उस समय अखिलेश यादव समाजवाद की राजनीति में स्थापित किये जा रहे थे और उनसे लोग प्रभावित भी थे। वह अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात करते थे। उन्होंने पश्चिम उत्तर प्रदेश के माफिया धर्मपाल यादव को उनके आपराधिक पृष्ठभूमि के चलते सपा में लेने से इनकार कर दिया। वास्तव में अखिलेश यादव का यह ऐतिहासिक कदम था। जनता को एक बार अखिलेश के रूप में परिवर्तन की उम्मीद दिखाई दी। चुनाव में बहुजन समाज पार्टी की बुरी तरह हार हुई और समाजवादी पार्टी भारी मतों से जीती और उसे बहुमत मिला। यह साफ लगने लगा कि उत्तर प्रदेश राजनीतिक अस्थिरता के दौर से बाहर आ गया है, लेकिन अपराधियों से मुक्ति की उम्मीद अभी पूरी नहीं हुई थी। चुनाव परिणाम आने के बाद मुलायर्म ंसह यादव ने स्वयं मुख्यमंत्री न बनकर अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बना दिया। लेकिन अखिलेश के शपथ ग्रहण से ही यह संकेत मिलने लगे कि सपा में अपराधियों पर नकेल कसने की गुंजाइश कम है। जिस मंच से अखिलेश यादव ने शपथ ली थी, कुछ सपाई इस मंच पर चढ़ गए और उसकी सजावट को तहस नहस कर दिया। मंच पर लगे फूल तोड़कर फेंक दिए। वास्तव में यह अराजकता थी। अखिलश ने प्रदेश में विकास के कुछ अच्छे काम किए, लेकिन उन विकास कार्यों में हुए भ्रष्टाचार पर वे अंकुश नहीं लगा पाए। आगे सत्ता में यह बात और भी बार-बार दिखाई दी कि सपा अपने पार्टी के बाहुबलियों पर नकेल कसने में नाकाम है। सारे बड़े सियासी माफिया सपा से नत्थी थे। धीरे-धीरे अपराधियों की तूती बोलने लगी। प्रदेश एक बार फिर उसी रास्ते पर चल पड़ा जिस रास्ते से निकलने के लिए लोग तड़प रहे थे और मतदान कर सरकार बदल रहे थे।
दो साल बाद ही सपा को इसके नतीजे भी दिखने लगे। 2014 के लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ा झटका लगा और 80 में से सिर्फ पांच लोकसभा क्षेत्र में सफलता मिली। जबकि पतन की राह पर चल निकली बहुजन समाज पार्टी को एक सीट भी नहीं मिली। इसके बाद समाजवादी पार्टी संभली, लेकिन अपराधियों से उसके रिश्ते खत्म नहीं हो सके। वास्तव में सपा के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि वह अपना जनाधार बनाने के चक्कर में आम लोगों और अपराधियों के बीच फर्क करना भूल जाती है। चुनाव हारने के बाद समाजवादी पार्टी ने यह प्रयास किया कि किसी तरह पार्टी को फिर से विधानसभा चुनाव जीतने लायक बनाया जाए। इसके लिए विकास कार्य भी हुए। एक्सप्रेस वे बने। शहरों में मेट्रो दौड़ाने की तैयारी शुरू हो गई। अखिलेश यादव ने काफी मेहनत भी की। उन्होंने वह सारे प्रयास किये जिससे पार्टी का जनाधार फिर से वापस आ जाए, लेकिन अपराधियों की मंडली ने उनके हर प्रयास पर पानी फेर दिया। अखिलेश यादव को लग रहा था कि उनके प्रयासों के चलते समाजवादी पार्टी एक बार फिर उत्तर प्रदेश में बहुमत प्राप्त कर लेगी लेकिन विधानसभा चुनाव में अपराधी सबसे बड़ा मुद्दा बन गए। स्पष्ट है कि पिछले 30 वर्षों से अपराधियों को लेकर जो लोगों के मन में दहशत और नफरत थी, वह अपना काम दिखा रही थी। भारतीय जनता पार्टी ने इसे मुद्दा बनाया और उसे विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत मिला।
बुलडोजर बाबा
2017 में योगी आदित्यनाथ अचानक मुख्यमंत्री बन गए। उन्होंने सत्ता संभालते ही अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई शुरू कर दी, और ऐसी कार्रवाई जिसको लेकर बहुत से लोग योगी की कड़ी आलोचना भी करते हैं। राजनीति में एक नया युग आया उसे बुलडोजर युग के नाम से जाना जाता है। योगी बुलडोजर बाबा के नाम से मशहूर हो गए। अपराधियों को जेल भेजा गया जो अभियान आज भी जारी है। एनकाउंटर शुरू हुए। उत्तर प्रदेश में अपराधियों के खिलाफ जो सघन अभियान चला, इसका असर देखने को मिला। 2019 में सपा-बसपा गठबंधन के बावजूद लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को प्रचंड बहुमत मिला। 2017 के बाद से उत्तर उत्तर प्रदेश की राजनीतिक दिशा में बहुत से अपराधियों के लिए संकटकाल आ गया था। उनके खिलाफ कार्रवाई तेज हो गई। चुन-चुनकर अपराधी धीरे-धीरे राजनीति से किनारे होने लगे। यह उत्तर प्रदेश की राजनीति की बड़ी घटना है। लोगों ने पहली बार मुख्तार और अतीक अहमद जैसे अपराधियों को असहाय अवस्था में देखा। उनके बड़े-बड़े महल और दुमहले गिरते हुए देखे लेकिन यह कहना जल्दबाजी होगी कि तो राज्य में गुंडागर्दी बिल्कुल खत्म हो गई है। हां, इसमें कोई दो राय नहीं है कि सरकार ने गुंडों पर नकेल कसी है और उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की गई है। अपराधियों को जेल भेजा गया। बड़ी संख्या में अपराधी मारे जा चुके हैं। उनके बड़े-बड़े महल धराशाई कर दिए गए। उनकी बड़ी-बड़ी र्बिंल्डग बुलडोजर से गिरा दी गई। जमीनों पर कब्जा करके उन्होंने बड़े-बड़े महल खड़े किए थे, उन पर सरकार ने कब्जा कर लिया और उनमें से कुछ जो सरकारी भूमि पर कब्जा कर के बनाए गए थे, पर घर बनवा कर गरीबों को बांट दिया गया।
वास्तव में यह एक ऐसा मुद्दा है जो अपना असर दिखाता है। आम जनमानस को लगता है कि कानून व्यवस्था की स्थिति पर नियंत्रण करने में सरकार सफल रही है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि प्रदेश उस रास्ते से बाहर आया है, जहां पर सिर्फ गुंडों का राज चलता था। प्रदेश उस अंधेरी गुफा से भी बाहर आया जहां पर बड़े-बड़े अपराधियों की मर्जी पर लोग उन्हें ही सरकार मानकर चलते थे। एक परिवर्तन जरूर है। राजनीति में अभी भी अपराधी कब्जा करने का प्रयास करते हैं, लेकिन वह दौर तो खत्म हो चुका है या मिली-जुली सरकार थी और अपराधी इन सरकारों में मंत्री बन जाया करते थे। अपनी मनमानी चलाते थे।
लेकिन नई सदी के 25 साल के पहले पड़ाव की राजनीति पर गौर किया जाए तो साफ लगता है कि यह प्रदेश दो मुद्दों पर बिल्कुल विपरीत दिशा में है। एक तो अब राजनीतिक अस्थिरता नहीं है जो 2007 तक लगातार चली आ रही थी। और दूसरे अपराधी अब खुलेआम नहीं घूमते। 2007 के बाद जनता किसी एक पार्टी को बहुमत दे रही है। यह उन लोगों को राहत देता है जो मिली-जुली सरकारों से तंग आ चुके थे। वास्तव में सरकार उन लोगों के लिए वरदान की तरह हैं जिनके हाथ में लाठी है और वह अस्थिर सरकार होने के कारण अपनी बात मनवाते रहते हैं। लेकिन यह दौर कितने दिन चलेगा, यह समय बताएगा। फिलहाल उत्तर प्रदेश अब स्थिर सरकारों के दौर से गुजर रहा है। समय बदल चुका है। उत्तर प्रदेश त्रिकोणी राजनीति का गढ़ माना जाता था जिसमें भाजपा सपा और बसपा शामिल थी। लेकिन बसपा अब कमजोर पड़कर नैपथ्य में जाती दिख रही है। जो दलित आंदोलन अपना प्रभाव दिखाता हुआ आगे बढ़ा था, वह अब थम सा गया है। चन्द्रशेखर आजाद जैसे युवा नेता दलित युवाओं को नए सिरे से एकजुट कर रहे हैं, लेकिन व्यक्तिवादी राजनीति उनकी राह में सबसे बड़ा रोड़ा है।
कई सवाल हैं जिनके उत्तर आने वाले वर्षों में मिलेंगे। क्या बसपा का कोई भविष्य शेष रह गया है? मजबूत दिखती सपा क्या भविष्य में कोई करिश्मा कर पाएगी? क्या डबल इंजन से चल रही भाजपा सरकार अपना किला और रुतबा बचा पाएगी? इसके उत्तर अब दो साल बाद 2027 के विधानसभा चुनाव में ही मिलेंगे। लेकिन इतना तय है कि प्रदेश की जनता मिली-जुली खिचड़ी से ऊब चुकी है और वह अपना निर्णय स्पष्ट सुनाती है। यह साफ है कि जो भी अपराधियों के साथ खड़ा होगा, वह राजनीति के किनारे ही खड़ा रह जाएगा। ढाई दशक में यही परिवर्तन दिख रहा है।