खास परिणाम नहीं दे सकी विदेश नीति
डॉ. रहीस सिंह
व र्ष 2015 में भारत की विदेश में कुछ परिवर्तन दिखा जिसे कुछ सीमा तक भारत की कूटनीतिक सक्रियता के काल के रूप में देखा जा सकता है। प्रधानमंत्री ने स्वयं इसे ‘फास्ट ट्रैक’ की विदेश नीति के खांचे में रखकर देखा है। हालांकि इससे जुड़ी उपलब्धियों या अनुपलब्धियों का सम्पूर्ण आकलन नहीं किया जा सकता है। लेकिन वर्ष 2015 जाते-जाते भारत सरकार में कुछ यू-टर्न दिखे तो सरकार शिथिलता और सॉफ्टनेस के उस मुकाम पर खड़ी दिखी जहां से वह 2014 में चली थी। भले ही नरेन्द्र मोदी ने रॉक स्टार बनकर लोगों के मन को गुदगुदाया हो लेकिन इससे देश को कोई मजबूती मिली और देश के नाम कुछ उपलब्धियां जुड़ीं, यह कहना नैतिकता के लिहाज से उचित नहीं होगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पद की शपथ ग्रहण के समय ही ‘नेबर्स फस्र्ट’ की नीति को आगे बढ़ाने की कोशिश की थी लेकिन अब तक की स्थितियों को देखने से पता चलता है कि भारत अपने पड़ोसियों की तरफ से उभरने वाली चुनौतियों का समाधान शांतिपूर्ण तरीके से नहीं ढूंढ पाया। पड़ोसियों की तरफ से उभरने वाली चुनौतियों के बीच ‘इनोवेटिव इनीशिएशन्स’ की आवश्यकता थी लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ‘हिट’ और वाग्जाल से आगे नहीं बढ़ पाए। किसी भी राष्ट्र के लिए उसके पड़ोसियों की अहमियत, उसे आगे बढ़ाने या फिर द्वन्द्वों एवं चुनौतियों के ट्रैप में फंसाने, दोनों ही मामलों में अतिमहत्वपूर्ण होती है। राष्ट्रीय हितों के विस्तृत क्षितिजों को तलाशने और उन्हें स्थायी आधार देने में पड़ोसी देश बेहद निर्णायक होते हैं। दुर्भाग्य से भारत के पास ऐसे पड़ोसी हैं नहीं अथवा भारत ऐसे पड़ोसी बना नहीं पाया। उन्हें प्राय: ऐसे गैर-प्रगतिशील, रूढ़िवादी, विभाजक और प्रतिशोध आधारित बलों से सम्पन्न देखा गया है जो भारत की प्रगति को प्रभावित करने वाले या भारत की चिंता बढ़ाने वाले अहम कारक सिद्ध हुए हैं। वैश्विक प्रतियोगिता के इस युग में भी इन देशों में ऐसी शक्तियां अपना स्थान प्रबलता के साथ बनाए हुए हैं, जिनके प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव (नकारात्मक) भारत पर लगातार पड़ रहे हैं। नरेन्द्र मोदी की शुरुआती नीतियों से लगा था कि ये स्थितियां बदलेंगी लेकिन आज की स्थिति यह बता रही है कि भारत ने नई दिल्ली, उफा, इस्लामाबाद, बैंकाक…..में आगे बढ़कर पाकिस्तान को ले चलने की कोशिश की। लाहौर में नरेन्द्र मोदी नवाज शरीफ के घर जाना इसकी पराकाष्ठा थी लेकिन बदले में मिला क्या? सीमा संघर्ष, गुरुदासपुर, उधमपुर, पठानकोट…। मतलब सीधा है कि पाकिस्तान के साथ भारत जिस नीति पर चल रहा है वह प्राथमिक शिक्षा प्राप्त बच्चे की सोच जैसी है, इससे कुछ भी बदलने वाला नहीं है लेकिन पता नहीं सरकार की क्या विवशताएं हैं कि पाकिस्तान के सामने घुटने टेके रहती है। नेपाल को हिट मंत्र देने और भूकम्प के समय मदद करने के बाद से ही नेपाल भारत से दूर जाता दिखा। ओली सरकार ने तो आभासी भ्रातृत्व बचा था उसके बीच में भी एक ठोस दीवार खड़ी करने की व्यवस्था, चीन के साथ 11 समझौते कर, कर दी। बांग्लादेश भारत के लिए पाकिस्तान से कम खतरनाक नहीं है लेकिन अभी तक भारत किसी ठोस रणनीति के आधार पर आगे नहीं बढ़ पाया है, बार्डर लैण्ड एग्रीमेंट पिछली सरकार का इनीशिएटिव था जिसे इसने पूरा किया है और परमाणु समझौता सम्पन्न किया जिसके कुछ लाभ भारत को मिल सकते हैं लेकिन पूर्वोत्तर के राज्यों में बांग्लादेश जिस तरह से डेमोग्रॉफिक इम्बैलेंस करा रहा है, इस पर सरकार का ध्यान नहीं जा रहा। ध्यान रहे कि बांग्लादेश में इस्लामी स्टेट का प्रभाव बढ़ रहा है जो इसी जनसंख्या के सहारे भारत में प्रवेश करेगा, यह तय है।
भारत के पड़ोसी देशों में चीन और पाकिस्तान बेहद महत्वपूर्ण लेकिन चुनौतीपूर्ण देश हैं। चीन भारत का भौगोलिक रूप से सबसे बड़ा, ताकतवर एवं महत्वाकांक्षी पड़ोसी है, जिसका कोई भी महत्वाकांक्षी कदम भारत के लिए एक नयी चुनौती लेकर आता है। वर्ष 2015 की उसकी दो अतिमहत्वाकांक्षी परियोजनाएं भारत के लिए बड़ी चुनौती बनेंगी। पहली- ब्रह्मपुत्र नदी (तिब्बत में यारलंग-शांगपो) पर जिएशू, जांगमू और जियाचा तथा इन जैसे कुछ और चीनी बांधों का निर्माण जिन्हें चीन अपनी ऊर्जा और सिंचाई आपूर्तित का साधन बताता है लेकिन सही अर्थों में ये ब्रह्मपुत्र (सांगपो-ब्रह्मपुत्र) के ‘ट्रांस-बाउंड्री नदी’ होने के भारत के लिए आर्थिक व सामरिक चुनौती बनकर पेश होंगे। दूसरी- उसकी ‘वन बेल्ट वन रूट’ परियोजना है जिसके जरिए चीन एशिया, अफ्रीका और यूरोप को जोड़ने की महत्वाकांक्षा रखता है। ‘सिल्क रूट इकोनॉमिक बेल्ट’ और ‘मैरी टाइम सिल्क रूट’ जैसे दो हिस्सों में विभक्त योजना एक तरफ चीन को यूरोप से वाया मध्य एशिया जोड़ेगी और दूसरी तरफ यह चीन की बंदरगाह सुविधाओं को अफ्रीकी तटों से जोड़कर स्वेज नहर से लेकर भू-मध्य सागर तक विस्तारित करेगी। चीन इनके जरिए अपने दायरे को मध्य एशिया से आगे बढ़कर मास्को, रोस्टरडैम और वेनिस तक ले जाना चाहता है। यही नहीं चीन तिब्बत में मिसाइलों की तैनाती बढ़ाकर और कोको द्वीप से ग्वादर तक एक सामरिक शृंखला स्थापित कर भारत को घेर रहा है और दूसरी तरफ तिब्बत में इन्फ्रास्ट्रक्चरल निर्माण कर भारतीय सीमा तक अपनी सेवाओं को पहुंचाना चाहता है। चूंकि चीन के साथ भारत का सीमा विवाद, चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ, पाकिस्तान के साथ चीन की लगातार बढ़ती नजदीकियां, इन सबके कारण भारत की चीन के साथ डोर काफी कमजोर है। चूंकि चीन के साथ भारत का सीमा विवाद, चीनी सैनिकों द्वारा भारतीय सीमा में घुसपैठ, पाकिस्तान के साथ चीन की लगातार बढ़ती नजदीकियां, इन सबके कारण भारत की चीन के साथ डोर काफी कमजोर है। अर्थात इनके बीच ‘ट्रस्ट ऑफ डेफिसिट’ से इन्कार नहीं किया जा सकता। रक्षा व हथियारों से जुड़ी कुछ रिपोर्टों से यह भी पता चलता है कि चीन दक्षिण एशिया में अपनी सामरिक व हथियार नीति को कारगर बनाने के लिए ‘की क्राइसिस’ और ‘थ्रेट मैनेजर’ की भूमिका में पहुंच रहा है अथवा पहुंच चुका है। भारत सरकार पिछले दो वर्षों में इसे काउंटर करने का कोई सूत्र नहीं खोज पायी।
हिन्द महासागर में बसा मालदीव सामान्यतया तो एक बहुत ही छोटी सी आर्थिक ताकत है लेकिन सामरिक दृष्टि से यह भारत के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इसका कारण यह है कि यहां चीन और पाकिस्तान लगातार ऐसी रणनीतियों पर काम कर रहे हैं, जो भारत के सामरिक हितों के विपरीत हैं। हाल ही में मालदीव ने एक बड़ा निर्णय लिया है जिसके तहत मालदीव में जमीन खरीदने व स्वामित्व धारण करने की अनुमति दी गयी है। ध्यान रहे कि मालदीव में पहले विदेशियों के भूमि खरीदने की मनाही थी, हालांकि उन्हें 99 वर्षों के लिए लीज पर जमीन दी जाती थी परन्तु नए संशोधन के तहत उन विदेशियों को जमीन खरीदने की अनुमति दी जाएगी जो परियोजना स्थल के भीतर 1 अरब डॉलर से अधिक की राशि जमीन खरीदने में निवेश करे। खास बात यह है कि इसके तहत 70 प्रतिशत खरीद हिन्द महासागर में होना है। राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सामरिक विशेषज्ञों के मुताबिक मालदीव सरकार का उपर्युक्त कदम चीन को अपना सैन्य अड्डा स्थापित करने में मदद करेगा, जहां वह पहले से ही मारओ में सामरिक गतिविधियों के लिए सैन्य निर्माण कर रहा था। एक बात और, हिन्द महासागर में मालदीव महत्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय पूर्वी-पश्चिमी जहाज मार्ग पर स्थित है और चीन इस सामरिक जगह पर सैन्य अड्डा के जरिए अपना सैन्य प्रभाव बढ़ाना चाहता है। यानि इस द्वीप पर चीन का अप्रत्यक्ष नियंत्रण होने जा रहा है, जो कभी भारत के पास था। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हिन्द महासागरीय देशों की यात्रा के क्रम में मालदीव की यात्रा को रद्द कर दिए जाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि समुद्र में बसे एक पिद्दी भर के देश की आंखों में भी भारत डर नहीं रह गया है।
वर्ष 2015 में भारत वाशिंगटन और मॉस्को तथा जापान व बीजिंग के बीच में एक संतुलन तथा यूरोप के साथ नया संयोजन बनाने में सफल रहा है। इसलिए सामान्य तौर पर यह माना जा सकता है कि वैश्विक शक्तियों की तरफ से भारत के समक्ष कोई खास अड़चन आने वाली नहीं है लेकिन महान शक्तियों के खेल भी महान होते हैं, जिन्हें शायद नंगी आंख से नहीं देखा जा सकता है। इसके लिए रणनीतिक दृष्टि से मैगनीफाइंग ग्लास की जरूरत होती है क्योंकि यदि रूस मध्य एशिया में अपनी नीतियों पर ऐसे ही आगे बढ़ता रहा तो वाशिंगटन और मॉस्को के बीच दूरी बढ़ेगी। भारत का वाशिंगटन की तरफ झुकाव मॉस्को को भारत से थोड़ी दूर कर गया। अहम बात यह है कि अमेरिकी रक्षा मंत्री एस्टन कार्टर का भारत आगमन हुआ जिसके दौरान भारत-अमेरिका ने ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम ऑफ एग्रीमेंट’ पर सैद्धांतिक सहमति व्यक्त की। इस समझौते के सम्पन्न होने के बाद भारत और अमेरिका की सेनाएं सैन्य आपूर्ति, रिपेयर और दूसरे कार्यों के लिए एक-दूसरे के आर्मी बेस, एयर बेस और नौ-सैनिक बेस का उपयोग कर सकेंगे। इसके साथ ही भारत और अमेरिका द्विपक्षीय रक्षा समझौते को मजबूती देते हुए अपने-अपने रक्षा विभागों और विदेश मंत्रालयों के अधिकारियों के बीच ‘मैरीटाइम सिक्योरिटी डायलॉग’ स्थापित करने पर भी सहमत हुए हैं। दोनों देशों ने नौ-वहन की स्वतंत्रता और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कानून की जरूरत पर जोर दिया है। दोनों देशों ने पनडुब्बी से संबंधित मुद्दों को कवर करने के लिए नौसेना स्तर की वार्ता को मजबूत करने का निर्णय लिया और आश्वस्त किया कि दोनों देश निकट भविष्य में ‘व्हाइट शिपिंग’ समझौता कर समुद्री क्षेत्र में सहयोग को और बढ़ाएंगे। भारत और अमेरिका रक्षा वाणिज्य एवं प्रौद्योगिकी पहल के तहत दो नई परियोजनाओं पर सहमत हुए हैं। इसमें सामरिक जैविक अनुसंधान इकाई भी शामिल है। हालांकि रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर ने यह स्पष्ट किया है कि इस समझौते का मतलब भारत की धरती पर अमेरिकी सैनिकों की तैनाती नहीं है। लेकिन सच इसके उलट है। इस प्रकार की भारतीय विदेश नीति को भारत परस्त विदेश नीति नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि रूस पाकिस्तान को सैन्य मालवाहक हेलीकॉप्टर सहित तमाम सैन्य उपकरण उपलब्ध करा रहा है, जो भारत के सामरिक हितों के प्रतिकूल है, लेकिन भारत इसे रोक पाने में अक्षम है। रही बात एशिया विशेषकर ट्रांस-पेसिफिक क्षेत्र में, सक्रियता या पूरब के साथ एक्ट ईस्ट की तो यह पुरानी बोतल में नयी शराब जैसी स्थिति है क्योंकि अभी भारत उन्हीं समझौतों, उन्हों समायोजनों पर चल रहा है जो पुरानी सरकार के समय सम्पन्न हुए थे। केवल नये नामकरण मात्र से स्थितियां और प्रभाव बदलने वाले नहीं है। ऐसे में स्वाभाविक है कि भारत को अपनी विदेश-रक्षा नीति के खांचे तय करने होंगे और उन्हीं से अमेरिका व अमेरिकी उद्देश्यों को देखते हुए अपने लिए एक राह बनानी होगी। ध्यान रहे कि अमेरिका, पाकिस्तान को 15 वाइपर अटैक हेलीकॉप्टर और मिसाइलें देगा। यदि यह सौदा सम्पन्न हुआ तो यह पिछले एक दशक का अमेरिका और पाकिस्तान का सबसे बड़ा सौदा होगा। यदि भारत अमेरिका को रोक पाने में असमर्थ रहा तो यह रॉक स्टार का सबसे ज्यादा नकारात्मक परिणाम होगा। यह तय है कि भारतीय नेतृत्व और राजनय के पास इतनी क्षमता नहीं है, यह अलग बात है कि अमेरिकी सांसद ही इसे रोक दें और उसका श्रेय भारतीय नेतृत्व प्राप्त कर ले। यूरोप के साथ भारत के रिश्ते सामान्यत स्थिति से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। हां मध्य एशिया और अरब देशों के साथ एक पहल अवश्य हुयी है। ईरान के साथ नई साझेदारी कुछ अच्छे परिणाम दे सकती है क्योंकि ईरान भारत के लिए कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है, इसलिए ईरान के साथ साझेदारी कई मायनों में लाभदायक हो सकती है। ईरान एक ऐसी शक्ति है जिसकी मदद से बलूचिस्तान के जरिए पाकिस्तान की ताकत को कमजोर किया जा सकता है। कारण यह है कि पाकिस्तान बलूचिस्तान बार्डर से दक्षिणी ईरान सीमा पर ठीक वैसा ही कर रहा है, जैसा कि कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर करता है। बलूचिस्तान के परोम, पंजगुर, मश्किल जैसे सीमांत क्षेत्रों से आये दिन ईरानी गांवों में गोलियों और राकेट की बरसात होती है। ईरान का चाबहार बंदरगाह बलूचिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से मात्र सत्तर किलोमीटर की दूरी पर है। ग्वादर बंदरगाह पूरी तरह चीन के नियंत्रण में है और ग्वादर से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर तक चीन ने जिस तरह से भू-राजनीतिक स्थिति बदली है, उसे देखते हुए चाबहार महत्ता भारत के लिए बहुत बढ़ गयी हैै। चाबहार के जरिए भारत चीन की ‘स्ट्रिंग ऑफ पल्र्स’ नीति को कमजोर कर सकता है। चाबहार के जरिए भारत पाकिस्तान को बाइपास कर अफगानिस्तान के लिए मार्ग बना सकता है। चाहबहार से ईरान के वर्तमान रोड नेटवर्क को अफगानिस्तान में जरांज तक जोड़ा जा सकता है जो बंदरगाह से 883 किलोमीटर दूरी पर है। हालांकि भारत ने 2009 में जरांज-डेलारम हाईवे द्वारा अफगानिस्तान के गारलैंड हाइवे तक कनेक्टिविटी प्राप्त की थी जो अफगानिस्तान हेरात, कंधार, काबुल और मजार-ए-शरीफ को जोड़ता है। इस तरह से भारत ईरान के जरिए अफगानिस्तान के साथ सम्बद्ध होकर पाकिस्तान को उसी तरह से घेर सकता है जिस तरह से चीन पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत को घेर रहा है। लेकिन यह तभी संभव है जब भारत इसे केन्द्र में रखकर रक्षा रणनीति पर आगे बढ़े, जिसकी संभावनाएं फिलहाल अभी नहीं दिखती।
फिलहाल पिछले दो वर्षों में वैदेशिक नीति की सक्रियता का अध्ययन करने से सीधा और सपाट निष्कर्ष यह निकलता है कि इस क्षेत्र में हलचल तो तेज हुयी है, लेकिन उसमें प्रचारात्मक पक्ष ज्यादा प्रभावशाली रहा है, रक्षा, रणनीति, राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय सुरक्षा, पड़ोसियों के यहां तीसरी ताकत की गतिविधि को रोकने के प्रयास शून्य परिणाम वाले ही हैं। =