चार्ली चैपलिन भी थे वी.शांताराम के प्रशंसक
भारत की पहली द्विभाषिक फिल्म और पहली रंगीन फिल्म के लिए प्रयास करने वाले नवाचारी निर्देशक वी.शांताराम की उपलब्धि पर विशेष
वर्ष था 1985, दिन था 16 मई और अवसर था सुप्रसिद्ध फिल्म निर्माता निर्देशक वी.शांताराम द्वारा दादा साहब फाल्के अवार्ड और पद्म विभूषण अवॉर्ड लेने का। इंडियन सिनेमा की दुनिया से जुड़े किसी व्यक्ति के लिए ये बेहद खास पल होता है जब वह फिल्म जगत को अपने अपने दिए उपहारों के बदले फिल्म जगत की तरफ़ से सबसे बड़ा उपहार प्राप्त कर रहा होता है।
वी.शांताराम के लिए ये भावुक कर देने वाला पल था। एक साल पहले ही सत्यजीत रे और उससे पहले ममतामयी मां के अभिनय में पारंगत दुर्गा खोटे को इस पुरस्कार से नवाजा गया था। ग़ौरतलब है कि महान फिल्मी हस्तियों जैसे राजकपूर, दिलीप कुमार, दादा मुनि अशोक कुमार, देवानंद और लता मंगेशकर को वी.शांताराम के बाद ही इस पुरस्कार से नवाजा गया। ये तुलना महज एक सूचना है और यह किसी भी कलाकार के महत्व को कमतर आंकने के लिए नहीं है, हां यह जरूर है कि इससे भारतीय सिनेमा के लिए वी.शांताराम के महत्व का पता चलता है।
वी.शांताराम की मराठी फिल्म ‘मानूस’ देखकर चार्ली चैपलिन ने उनकी सराहना की थी। वे भारतीय सामाजिक तानेबाने की गहरी समझ रखते थे, इसीलिए उनकी फिल्मों में गरीब और कमजोर वर्ग को बड़ा महत्व दिया गया। उनकी बनाई फिल्मों का जनमानस पर भी गहरा प्रभाव था।
पिता राजाराम और माता कमला के पुत्र के रूप में 18 नवंबर, 1901 को वी.शांताराम का जन्म हुआ था। इनके पिता घर के खर्चे को चलाने के लिए रात में संगीत नाटक खेला करने वाली नाटक कंपनियों को पेट्रोमैक्स की बत्तियां किराए पर दिया करते थे। उनको यह नहीं पता था कि कुछ ही समय बाद उनका बालक हिंदी सिनेमा को पूरी दुनिया में प्रकाशमान कर देगा।
बचपन में वी.शांताराम मिमिक्री करने का शौक था। एक महान रंगमंच कलाकार गोविन्दराव टेंबे की नजर शांताराम पर पड़ी और उन्हें अपनी गंधर्व नाटक मंडली में शामिल कर लिया जो उन्होंने गणपतराव बोडस और बाल गंधर्व के साथ मिलकर बनाई थी। एक रेलवे वर्कशॉप में भी वी शांताराम ने परिवार की आर्थिक बदहाली के चलते काम किया था। वर्ष 1921 में सुरेखा हरण नामक मूक फिल्म से बतौर अभिनेता अपने सफर की शुरुआत करने वाले शांताराम बाद में फिल्म निर्देशन से जुड़ गए और उन्होंने करीब छह दशक तक सिनेमा जगत में योगदान किया।
जब वी शांताराम मिले “सिनेमा केसरी” से
कला के प्रति समर्पण के भाव ने वी.शांताराम को अपने मौसेरे भाई बाबूराव पेंढारकर से मिलने की लगन को पैदा किया। बाबूराव पेंढारकर महाराष्ट्र के वो मशहूर चित्रकार और फिल्मकार थे जिन्हें लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने सिनेमा केसरी की उपाधि दी थी। बाबूराव पेंटर ने ही ज्योतिबा फूले की पहली प्रतिमा बनाई थी। भविष्य के अपने गुरु से वी.शांताराम की यह पहली मुलाकात थी। यहीं काम मांगने गए वी.शांताराम को काम मिल गया।
धीरे—धीरे मेहनत करते हुए वी.शांताराम ने नाम बनाना शुरू कर दिया और एक ऐसा समय आया जब केशव राय धायबर, विष्णुपंत दामले, एस. फतेलाल और सीताराम कुलकर्णी के साथ मिलकर 1 जून, 1929 को कोल्हापुर में प्रभात फिल्म कंपनी की नींव रखी। इसके पूर्व 1927 में बाबूराव पेंटर ने उन्हें ऐतिहासिक फिल्म नेताजी पालकर में निर्देशन का दायित्व सौंपा और इसी के साथ निर्देशक के रूप में उनके करियर की शुरुआत हो गई। 1929 में आई उनकी फिल्म गोपाल कृष्ण काफी मशहूर हुई। फिल्म में बैलगाड़ियों की दौड़ के दृश्य की बड़ी चर्चा रही। 1931 में शिवाजी की वीरता को प्रदर्शित करती उनकी फिल्म आई उदयकाल (थंडर ऑफ द हिल्स)। इस फिल्म में निर्देशन के साथ साथ वी.शांताराम ने खुद शिवाजी की भूमिका निभाई।
भारत की पहली द्विभाषिक ( दोनों भाषाओं में फिल्म ) फिल्म और भारत की पहली रंगीन फिल्म की कहानी
1932 में भारत की पहली द्विभाषिक फिल्म अयोध्येचा राजा (मराठी) अथवा अयोध्या का राजा (हिंदी) बनाई गई। इसके निर्देशक वी.शांताराम जी ही थे। 1933 में वी.शांताराम ने भारत की पहली रंगीन फिल्म महाभारत के लोकप्रिय चरित्र पर बनानी शुरू की थी जिसका नाम था सैरंध्री। उस समय के प्रभात स्टूडियों और जर्मनी के उफा स्टूडियों ने इसे हक़ीक़त बनाने का पुरजोर प्रयास किया था लेकिन यह मूर्त रुप नहीं ले पाया।
सैरंध्री फिल्म के निर्माण के दौरान जब वी शांताराम जर्मनी में थे तो उन्होंने जर्मनी के कुछ महान फिल्मकारों से प्रभावित होकर 1933 में उन्होंने अपनी फिल्म अमृत मंथन में छाया प्रकाश का अभिनव प्रयोग किया। वी.शांताराम वह पहले भारतीय निर्देशक थे जिन्होंने अमृत मंथन में क्लोज अप फिल्माने के लिए टेलीफोटो लेंस का नूतन प्रयोग किया। ये उनके नवाचारी रचनाधर्मिता का साक्ष्य था। फिल्मों में तकनीकी पक्ष को समझने के लिए ही वे जर्मनी गए थे। हिंदी सिनेमा में मूविंग शॉट लेने वाले शांताराम पहले व्यक्ति थे, इसके साथ ही फिल्म ‘चंद्रसेना’ में उन्होने पहली बार ट्रॉली का प्रयोग किया था।
एक ही सिनेमाघर में पच्चीस हफ्तों तक प्रदर्शित की जाने वाली उनकी फिल्म अमृत मंथन सिल्वर जुबली मनाने वाली पहली फिल्म साबित हुई थी। 1936 में उनकी फिल्म अमर ज्योति में दुर्गा खोटे और शांता आप्टे जैसे महान महिला अभिनेत्रियों ने अभिनय किया। 1942 में शांताराम ने राजकमल कला मंदिर स्टूडियो का निर्माण किया।
1955 में उन्होंने झनक झनक पायल बाजे नामक फिल्म बनाई क्योंकि इससे पहले उनकी कुछ फिल्में नहीं चल पाई थीं। दो नर्तकों की प्रेम कहानी झनक झनक पायल बाजे बेहद सफल रही। वर्ष 1957 में झनक-झनक पायल बाजे के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का फिल्मफेयर अवॉर्ड दिया गया था। इसके बाद आई 1957 में दो आंखें बारह हाथ जिससे आप सभी परिचित ही हैं कुछ खास गीतों के लिए भी।
बर्लिन फिल्म समारोह में इसे सिल्वर बेअर अवॉर्ड से सम्मानित किया गया था। इसे गोल्डन ग्लोब अवॉर्ड समारोह में भी सम्मानित किया गया था। इसने सर्वश्रेष्ठ फिल्म निर्देशक का फिल्म फेयर अवार्ड भी उन्हें दिलाया। ये फिल्म एक ऐसे आदर्शवादी जेलर की कहानी थी जो खुले कारागार में कैदियों को सुधारने का अवसर देता है।
इसमें छः खूंखार अपराधियों को नैतिक आचार के आधार पर सुधारने का प्रयास किया गया है। अमर भूपाली फिल्म के लिए उन्हें कान फिल्म समारोह में बेहतरीन साउंड रिकॉर्डिंग के लिए ग्रां प्री पुरस्कार से नवाजा गया था। दो आंखें बारह हाथ उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी। गीत गाया पत्थरों (1964) और जो बूंद बन गई मोती (1967) भी एक कर्णप्रिय संगीत से सजी उनकी फिल्में थीं। मशहूर अभिनेता जितेंद्र को सबसे पहले वी.शांताराम ने ही फिल्म ‘गीत गाया पत्थरों ने’ में ब्रेक दिया था। हिंदी सिनेमा को तकनीकी पक्ष की अहमियत बताने वाले वी.शांताराम ही थे।
30 अक्टूबर साल 1990 में 88 साल की उम्र में फिल्म जगत के ऐसे कलाकार ने अलविदा कह दिया था, जिनकी बनाई हुई फिल्में नई पीढ़ी के लिए धरोहर है।
(लेखक संगीत, साहित्य, कला संबंधी मामलों के जानकार हैं)