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साल में दो बार मनाया जाता है छठ महापर्व, जानें कब से हुई शुरुआत

नई दिल्ली : हिन्दू धर्म का सबसे महत्वपूर्ण महापर्व छठ कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि को हर साल बड़े ही उत्साह से मनाया जाता है. इसके अलावा ये पर्व दूसरी बार चैत्र माह के शुक्ल पक्ष के षष्ठी तिथि को मनाया जाता है. इसे चैती छठ पूजा भी कहते हैं. ऐसी मान्यता है कि यह छठ पर्व मैथिल,मगही और भोजपुरी लोगों का सबसे बड़ा पर्व है. सूर्य देव की उपासना के लिए छठ पर्व प्रमुख रूप से बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है. यह पर्व बिहार या पूरे भारत का एक मात्र ऐसा पर्व है जो वैदिक काल से चला आ रहा है और अब तो यह बिहार की परंपरा बन चुका है.

साल 2024 में छठ की 12 अप्रैल दिन शुक्रवार से नहाय खाय के साथ शुरुआत होगी और ये पर्व 15 अप्रैल को सुबह अर्घ्य देने के बाद व्रत तोड़ने के साथ समाप्ति होगी. बता दें कि कार्तिक महीने के अलावा चैत्र माह में भी छठ महापर्व मनाया जाता है. हालांकि दोनों छठ में कोई खास अंतर नहीं है. इस माह में भी पूजा की विधि कार्तिक माह के छठ जैसी होती है, लेकिन दोनों की कथाएं व कहानियां अलग-अलग हैं.

पुराणों के अनुसार, ऐसी मान्यता है कि माता सीता ही नहीं, बल्कि द्रोपदी ने भी छठ पूजा का व्रत रखा था. जो भी छठ पूजा पुरे विधि-विधान के साथ करता है. उनकी सभी मनोकामना अवश्य पूरी होती है. वहीं अगर आप छठ महापर्व में ढलते सूर्य के साथ-साथ अगर आप उगते सूर्य को भी अर्घ्य देते हैं, तो इससे आपको जीवन में आने वाले सभी कष्टों और रोगों से छुटकारा मिलता है.

महिलाएं छठ के पहले दिन नदी या तालाब में जाकर स्नान करती है और उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ व्रत का संकल्प लेती हैं. इसके बाद नहाय-खाय के दिन चने की दाल, लौकी की सब्जी और चावल का प्रसाद बनाती हैं. इस प्रसाद को शुद्ध तरीके से खासतौर पर साफ चूल्हे पर बनाया जाता है. यह खाना कांसे या मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है.

छठ पर्व के दूसरे दिन के खरना कहते हैं. इसमें महिलाएं चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि व्रती महिलाएं पुरे दिन उपवास रखती हैं. इस दिन व्रती लोग अन्न तो दूर की बात है सूर्यास्त से पहले पानी की एक बूंद तक नहीं पीते हैं. फिर शाम को चावल गुड़ और गन्ने के रस से बनी खीर खाई जाती है. इस खीर को खाने के लिए परिवार के सभी लोग घर से बाहर चले जाते हैं ताकी कोई शोर न हो सके, क्योंकि किसी तरह की आवाज सुनना पर्व के नियमों के खिलाफ माना जाता है.

छठ के तीसरे दिन सुबह के समय प्रसाद तैयार किया जाता है और ये प्रसाद केवल व्रती महिलाएं ही बनाती है. जब प्रसाद बनकर तैयार हो जाता है तो उसके बाद महिलाएं शाम को अर्घ्य के लिए बांस की टोकरी सजाकर तालाब या नदी के किनारे सूर्य की उपासना करती हैं और सूर्यास्त से कुछ समय पहले सूर्य देव की पूजा का सारा सामान लेकर घुटने भर पानी में जाकर खड़े होकर पूजा करती हैं और अर्घ्य देती हैं.

छठ के चौथे दिन यानि चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि की सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है. सूर्योदय से पहले ही व्रती लोग घाट पर पहुंच जाते हैं. शाम की ही तरह उनके परिजन उपस्थित रहते हैं. संध्या अर्घ्य में अर्पित किए गए पकवानों को नए पकवानों से बदल दिया जाता है. सभी नियम-विधान सांध्य अर्घ्य की तरह ही होते हैं. सिर्फ व्रती लोग इस समय पूर्व दिशा की ओर मुंहकर पानी में खड़े होते हैं व सूर्योपासना करते हैं. पूजा समाप्त करने के बाद सभी व्रती लोग घर वापस आकर कच्चे दूध का शरबत पीकर तथा थोड़ा प्रसाद खाकर व्रत तोड़ते हैं. जिसे पारण कहा जाता है.

पौराणिक कथा के अनुसार, जब भगवान राम, रावण का वध करके अयोध्या वापस लौटे तो वशिष्ठ मुनि ने कहा था कि आपको ब्रह्महत्या लग चुकी है. इससे छुटकारा पाने के लिए आपको माता सीता और लक्ष्मण के साथ गंगा किनारे स्थित मुद्गल ऋषि के आश्रम जाना होगा और भगवान सूर्य की अराधना करनी होगी. माता सीता ने अपने पति की दीर्घायु के लिए बिहार के मुंगेर जिला स्थित मुद्गल ऋषि आश्रम के समीप गंगा किनारे सबसे पहले छठ पूजा कर सूर्य भगवान की उपासना की थी. जहां अभी भी माता सीता के पैरों के निशान मौजूद हैं. तभी से छठ महापर्व की शुरुआत हुई.

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