उत्तर प्रदेशदस्तक-विशेषसाहित्य

हास्य व्यंग : लठैत कक्का के कुंवारे गाल…

पंकज प्रसून

लम्पटगंज गांव के लठैत कक्का ऐसे शख्स थे जिनके गाल निपट कुंवारे थे। होली के जाने कितने त्योहार आये और गए, मजाल कि मुई रंग की एक लकीर भी उनके गालों पर किसी ने खींची हो। अगर कोई कोशिश भी करता तो वह उसके माथे पर चिंता की लकीरें ज़रूर खींच देते थे। ऐसा माना जाता था कि इलाके में कोई रणबांकुरा पैदा ही नहीं हुआ जो उनको रंगनशी कर सके। कारण यह था कि एक तो वह पुराने जमाने के पहलवान रहे, ऊपर से 6 फिट का मोटा लट्ठ लेकर चलते थे। वह लट्ठ को 360 डिग्री पर भांजना भी जानते थे। अब कौन उनको लाल करने के चक्कर में अपनी खोपड़ी रंगवाये। लठैत कक्का रंगों से इतनी नफरत करते थे कि अगर कहीं रंग बरसे भीगे चुनरवाली बजता तो वह लट्ठ बजाने लगते…।

ऐसा नहीं कि कक्का को रंगने की कोशिशें नहीं हुई। होली के दिन उनको रंगने को लेकर गांव के लल्लन तिवारी और बबलू पांडे के बीच अक्सर हजार-हजार रुपए की शर्त लगा करती थी। लल्लन तिवारी हर बार जीत जाते थे और बबलू पांडे रंग लगाने के चक्कर में 2-4 लट्ठ खाकर वापस आ जाते थे लेकिन बबलू पांडे हर बार शर्त लगाते। इस बार तो शर्त की रकम दो हजार थी…। लल्लन तिवारी हमेशा की तरह इस बार भी जीत के प्रति आश्वस्त थे।

होली का दिन आ गया था। लठैत कक्का अपना 6 फुट लंबा लट्ठ लेकर दरवाजे पर बैठे हुए थे। होली वाले दिन उनके अंदर का बीरप्पन जाग जाता था। दूर से ही होरियारों को आता देख वह लट्ठ भांजने लग जाते। तकरीबन सुबह के 11 बजे लठैत कक्का के मोबाइल की घन्टी बजी। उनको लगा कि कोई ज़रूर रंग लगाने के लिए ललकार रहा होगा। अक्सर होली वाले दिन ऐसा होता था कि बबलू पाण्डे के चुनौतीभरे फोन आते थे। वह भी गुस्से से फोन की ओर लपके लेकिन ग्रीन बटन दबाते ही उनके बंजर दिल पर अचानक सरसों की फसल लहलहाने लगी। गाल बिना रंग के ही सुर्ख गुलाबी हो गए। पथराई आंखों में प्रिज़्म सी चमक आ गई। भौतिक शरीर में तमाम रासायनिक परिवर्तन होने लगे। फुर्ती से उठे, शरीर में करंट सा दौड़ने लगा। उन्होंने काकी से कॉटन का नया कुर्ता मांगा, नई धोती पहनी। इत्र की शीशी लगभग पूरी छिड़क डाली…।

काकी यह सब देखकर बोली, ‘अरे सुनीता के दादा, जवानी चर्राई है का? कुटजारिष्ट की जगह इत्र ही पी लिया करो।’ लेकिन आज उनके पास से काकी से भिड़ने का टाइम नहीं था, वह जूतों को चमकाने में जुटे थे। काकी फिर बोल उठी, तनिक थोड़ी पालिश मुंह में भी लफोद लो, बुझी चमड़ी में चमक आ जाएगी लेकिन जब अंतर्मन में प्रेम धुन बज रही होती है, वाह्य दुनिया की आवाज सुनाई ही कहां पड़ती है। वह यह भी भूल गए कि उनको रास्ते में रंग दिए जाने का खतरा भी है। लेकिन परवाना तो आज शमां से मिलने को मचल रहा था। कुछ दिन पहले ही दांतों का नया सेट लाये थे जिसे वह खास मौके पर ही लगाते थे। उन्होंने दांत जबड़ों में सेट किये जिससे उनके पिचके गालों में उभार आ गए थे। चेहरे का क्षेत्रफल बढ़ गया था अब वह शेप में आ गया था। उन्होंने साइकिल की धूल साफ की, उसकी हैंडल में गजरा लगाया और अक्सर साइकिल में लट्ठ खोंसकर चलने वाला आज लड्डू का डिब्बा लटकाकर निकल पड़ा था इश्क के सफर पर… नदिया के तीरे।

वह पूरे रास्तेभर मिलन के गीत गाते रहे, पनघट की यादों में खोए रहे। जैसे-जैसे मन में प्यार हिलोरे लेता, पैडल तेज हो जाती। उनका बांवरा मन फ्लैश बैक में जा रहा था और याद आ रही थी चालीस साल पहले की चंचल मदमस्त धानी चुनरिया वाली जमुनिया, जिसे वह मन ही मन प्यार किया करते थे। लेकिन इजहार करने से डरते थे, कहीं प्यार का बंधन टूट न जाये। याद आ रहे थे जमुनिया को दिए गए गिफ्ट- एलोवेरा जेल की शीशी, आईलाइनर, मेहंदी… वह भी तो मेंहदी हाथों में लगाकर नदिया किनारे मिला करती थी और वह इस आशावादी एहसास से भर जाते थे कि आज मेरी खरीदी मेहंदी लगाई है, कल को मेरे नाम की मेंहदी ज़रूर लगाएगी। उनको लगता था कि एक दिन यह आईलाइनर मेरी लाइफ लाइनर ज़रूर बनेगी। जब उनके लिए एलोवेरा जेल ही जीवन हो गया था, जब वह हर पल जमुनिया को एहसास कराते रहते थे कि वह पूर्व जन्म की अप्सरा थी।

जमुनिया भी तो उनको प्यार से लट्टू बुलाती रही। कक्का को चालीस साल पुरानी वह काली होली भी याद आ रही थी जब जमुनिया ने उनके गालों पर गुलाल लगाने की इच्छा जताई थी और वह इसी नदिया के किनारे अपने कुंवारे गालों के साथ बैठे तसव्वुर कर रहे रहे कि जमुनिया उनको गुलाल लगाएगी और वह उसी वक्त उसकी मांग में सिंदूर भर देंगे। लेकिन उन्होंने 40 साल उस घड़ी को कोसते हुए बिताया, जब उनको भुल्लर ने आकर बताया था कि जमुनिया की तो कल मंगनी हो गई। यह सुनकर वह नदी में डूब जाना चाहते थे लेकिन अन्तरात्मा ने कहा तुम आलरेडी प्यार में डूबे हो, तुम्हें नदी की क्या ज़रूरत। उन्होंने वहीं पर नदी का जल हाथ में लेकर भीष्म प्रतिज्ञा कर डाली थी कि अगर ये गाल जमुनिया के नहीं हुए तो किसी के नहीं होंगे। तभी से उन्होंने रंग न लगवाने की शपथ ले डाली थी। यह बात अक्सर पर अपनी पत्नी को भी बताया करते थे और जमुनिया की यादों में खो जाया करते थे।

आज एक बार फिर वह यह सोचते हुए जा रहे थे कि इतने वर्षों बाद जब जमुनिया उनके निपट कुंवारे गालों पर रंग लगाएगी तो कहीं मारे खुशी के होश न खो दें… अटैक न आ जाये… आज उनके प्रण के टूटने का सुखद दिवस आ गया था। नदी यूं तो तीन किलोमीटर थी जहां तक पहुंचने में सामान्य स्थिति में कक्का को 20 मिनट लगते थे लेकिन आज महज 10 मिनट में सफर तय कर डाला था। उनके अन्दर हीमोग्लोबिन कम था लेकिन हार्मोन की ताकत आज पर्याप्त थी। उन्होंने साइकिल नदी के किनारे खड़ी कर दी। तभी सामने नदी के किनारे पर पीली साड़ी में बैठा उनका प्यार दिखाई पड़ा। एक बार लगा कि कहीं धड़कनें छाती से निकल कर बाहर ही न गिर पड़ें। वह जमुनिया, जमुनिया कहते हुए किनारे की तरफ भागे और बोले, वही धानी चुनरिया ओढ़कर आई हो मेरे लिए…। वह कक्का की तरफ पीठ करके बैठी हुई थी, कक्का से रहा न गया, वह अधीर होकर बोले, जमुनिया घूंघट उठा दे एक बार, जी भर के देख लूं तुझे… चालीस सालों से आंखें प्यासी हैं मेरी…।

वह धीमी आवाज में बोली- खुद ही उठा लो हमदम। कक्का शर्माते हुए बोले, बुढ़ापे में भी एकदम जवानी वाली आवाज है। उन्होंने पर्दानशीं को बेपर्दा कर दिया। अन्दर भयानक दृश्य था, चांद जैसे मुखड़े की जगह कांटों वाला कैक्टस नज़र आया जिसमें मोटी मूछों वाली झाड़ियां भी उगी हुई थीं। यह देखकर वह गश खा गए। जमुनिया के वेश में बबलू पांडे बैठा था। तभी वहीं झाड़ियों में छुपे उसके अन्य होरियारे साथी भी आ धमके और फाग गाते हुए लठैत कक्का को ऊपर से नीचे तक लाल पीला कर दिया। शरीर का कोई कोना नहीं बचा जहां रंग की परत न चढ़ाई हो। कक्का बार-बार उस लट्ठ को कोसते रहे जो घर में छूट गया था, लड्डू का डिब्बा भी सबने लूट डाला। लुटे-पिटे कक्का समझ नहीं पा रहे थे कि धोखा दिया तो किसने दिया।

बबलू पांडे शर्त जीत चुका था और कक्का के घर पहुंचने से पहले ही वह काकी के पास पहुंच गया। उनके हाथों में हज़ार रुपये रखते हुए बोला, काकी होली मुबारक हो… आधी रकम भी…। काकी उसको आशीर्वाद देते हुए बोली, बेटा, जीते रहो, आज तुमने बुढ़ऊ के सिर से इश्कबाजी का भूत उतार दिया। प्राण निकलने से पहले इनका प्रण तोड़ना जरूरी था। इस शपथ ने उनको खुशियों के पथ से भटका दिया था। आज के बाद बुढ़ऊ हमारे साथ मिलकर होली खेलेंगे। शाम को भांग की ठंडाई मेरी ओर से…।

बबलू घर से जा चुका था। थोड़ी देर में कक्का घर पहुंचे और मोबाइल को उठा के पटक डाला, फिर तमतमाते हुए बोले, इस बबलुआ को ऐसे ही पटकूंगा और इसके प्राण बैटरी की तरह बाहर निकल जाएंगे…। काकी मुस्कुरा कर बोलीं, लठैत हो तुम, बकैत न बनो… और ऐसा कहते हुए उनके गालों पर गुलाल मल दिया। जैसे काकी के दिन बहुरे, वैसे सबके बहुरें।

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