प्रमोद भार्गव : ब्रिटेन से नए रूप में अवतरित कोरोना विषाणु भारत में भले आ गया हो, लेकिन भारतीय जनता का आत्मविश्वास उसे हरा देगा। इससे लड़ने का आत्मविश्वास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना काल के शुरूआत में ही जगा दिया था।
वैक्सीन के आने के साथ अब इसका अंत तय है। हालांकि मानव इतिहास में भारत समेत ऐसा पहली बार हुआ कि दुनिया इस अदृश्य विषाणु की चपेट में आई और जानलेवा भय का वातावरण बन गया। इससे बचने का सरल उपाय परस्पर शारीरिक दूरी बनाए रखने में देखा गया, नतीजतन विश्व को लंबे समय तक लॉकडाउन का संकट झेलना पड़ा। बावजूद यही वह समय था, जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में नए शोध हुए और चिकित्सा उपकरणों में भारत ने आत्मनिर्भरता हासिल की। वैक्सीन निर्माण के क्षेत्र में भी भारत अग्रिम पंक्ति में है। साफ है, कोरोना के नए रूप में संक्रमण ब्रिटेन में भले ही 70 प्रतिशत की रफ्तार से बढ़ा हो, लेकिन इस अनुपात में यह भारत में फैलने वाला नहीं है। इससे ज्यादा डरने की जरूरत इसलिए भी नहीं है, क्योंकि मौतें नहीं बढ़ी हैं।
वैसे भी अबतक इसके परिवर्तित रूप पर वैज्ञानिक जो वैक्सीन लगाई जाने वाली हैं, उन्हें असरकारी बता रहे हैं। वैज्ञानिक इस वायरस को संक्रामक तो अधिक बता रहे हैं, किंतु उस अनुपात में घातक नहीं बता रहे हैं। इसके बदलते स्वरूप के साथ यह तथ्य यदि सही है तो संतोषप्रद है। इस बिना पर वायोएनटेक के सीईओ उगुर साहीन का कहना है, ‘इससे घबराने की जरूरत नहीं है। जहां तक इसे विज्ञान के स्तर पर समझा गया है, उस आधार पर कहा जा सकता है कि टीका कोरोना के नए स्वरूप पर भी असरकारी होगा।’ बायोएनटेक अमेरिकी कंपनी फाइजर के साथ मिलकर कोविड-19 का टीका विकसित कर रही है। हालांकि राष्ट्रीय कोविड-19 टास्क फोर्स के निदेशक डॉ. वीके पाल का कहना है कि ‘देश के कुल मरीजों में पांच फीसदी की जीनोम सीक्वेसिंग की जाएगी। इससे पता चलेगा कि वायरस कितना बदल रहा है।‘
इस महामारी से पहले तक जीनोम सीक्वेसिंग के बार-बार परीक्षण पर वैज्ञानिकों की रुचि नहीं होती थी। लेकिन इसके रूप परिवर्तन ने वैज्ञानिकों को जताया कि जब कोई नया वायरस अस्तित्व में आता है तो उसकी केवल शरीर में उपस्थिति की पहचान नहीं होनी चाहिए, बल्कि जीनोम सीक्वेसिंग भी आवश्यक है। इससे इसके बदलते रूप का पता चलने के साथ, इसकी घातकता का भी पता चल जाता है।
ब्रिटेन में कोरोना का जो बदला रूप मिला है, उसका प्रसार भारत समेत 10 देशों में हो गया है। 25 नवंबर से 23 दिसंबर तक भारत में 33 हजार यात्री ब्रिटेन से आए हैं। इनमें 233 लोग कोरोना पॉजीटिव पाए गए हैं, जिनमें से सात कोरोना के नए रूप से संक्रमित हैं। मसलन भारत में नया रूप दस्तक दे चुका है। अबतक वैज्ञानिकों की ऐसी धारणा है कि वायरस जब परिवर्तित रूप में सामने आता है तो इसके पहले रूप स्वयं समाप्त हो जाते हैं। लेकिन कुछ वैज्ञानिकों का यह भी मानना है कि अपवाद स्वरूप नया रूप खतरनाक अवतार में भी पेश आता है। इसी कारण अबतक एड्स के वायरस का टीका नहीं बन पाया है। दरअसल स्वरूप परिवर्तन की प्रक्रिया इतनी तेज होती है कि प्रयोगशाला में वैज्ञानिक एक रूप की संरचना को ठीक से समझ भी नहीं पाते और इसका नया रूप सामने आ जाता है। भारत में कोरोना के वर्तमान में छह प्रकार के रूप प्रसार में हैं, अब सातवां अवतार भी भारत आ चुका है। ब्रिटेन में इसकी पहचान सितंबर 2020 में ही हो चुकी थी। इसलिए यह आशंका की जा रही है कि यह अबतक दुनिया में फैल चुका होगा।
ब्रिटेन में बदले रूप में जो कोरोना मिला है उसे वीयूआई-202012-01 नाम दिया गया है। यह लंदन और दक्षिण पूर्वी इंग्लैंड में पहले के वायरसों से 70 प्रतिशत अधिक गति से फैल रहा है। कोरोना सबसे पहले चीन के वुहान में मिला था। यहीं से दुनिया में सबसे अधिक फैला है। इसे ही चीन के वैज्ञानिकों द्वारा निर्मित कृत्रिम वायरस भी कहा गया है। लेकिन अभीतक यह सच्चाई सामने नहीं आई है कि वाकई कृत्रिम है या प्राक्रतिक। इसके बाद 614 जी और ए-222 वायरस हैं, जो यूरोप में कहर ढा रहे हैं। ब्रिटेन में वायरस ने नया अवतार कैसे लिया, यह अभी स्पष्ट नहीं है। लेकिन इसकी संरचना पूर्व के वायरसों से बहुत ज्यादा भिन्न है, इसीलिए इसके फैलने की क्षमता भी ज्यादा है।
दरअसल वायरस अपनी मूल प्रकृति से परजीवी होता है।
इसलिए यह जब मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर जाता है तो कोशिका (सेल) पर अनाधिकृत अधिकार जमाकर विकसित होने लगता है। इसकी संख्या में तब और ज्यादा गुणात्मक वृद्धि होती है, जब इसे न्यूनतम प्रतिरोधी क्षमता वाला शरीर मिल जाता है। ऐसे रोगियों के शरीर से शक्ति ग्रहण कर यह अधिक ताकतवर होकर बाहर निकलता है। इसीलिए वैज्ञानिक यह कह रहे हैं कि अधिक शक्तिशाली वायरस के आ जाने से इसी किस्म के पूर्व वायरसों की किस्में आप से आप खत्म होती चलती हैं। फिलहाल यह वायरस तेजी से फैल तो रहा है, लेकिन उसी अनुपात में घातक भी है, ऐसे कोई वैज्ञानिक साक्ष्य मौजूद नहीं है। इसलिए यह मांग भी उठ रही है कि जबतक नए वायरस की संरचना ठीक से समझी नहीं जाती, तबतक टीके को न लगाया जाए।
ब्रिटेन में अभी तीन प्रकार की वैक्सीन लगभग टीकाकरण की स्थिति में हैं। ये शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सक्षम हैं। लिहाजा वायरस नए रूप में भले ही आ गया हो, टीका उसपर प्रभावी होगा। हालांकि धारणा के विपरीत ग्लास्गो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डेविड का कहना है, ‘हो सकता है वायरस ऐसा परिवर्तन कर ले, जो टीके के असर से बच जाए। यदि ऐसा हुआ तो फिर हालात फ्लू जैसे हो सकते हैं। नतीजतन वैक्सीन को अपडेट करना जरूरी हो जाएगा।’ कोरोना की जो वैक्सीन बन रही हैं, वे इतनी लचीली हैं कि उनमें कोरोना के बदलते स्वरूप के आधार पर बदलाव आसानी से किए जा सकते हैं।
कोरोना संक्रमण के साथ परेशानी व समस्या यह रही है कि इसने देखते देखते दुनिया में अपने पैर पसार लिए। चूंकि इसका तत्काल कोई उपचार नहीं था, इसलिए कोरोना संक्रमित से दूरी बनाए रखते हुए इम्यूनिटी यानी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की बात चिकित्सक और राजनेता करते रहे हैं। शरीर में यह नहीं बढ़े इस हेतु एलोपैथी, आयुर्वेद और होम्योपैथी की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने की दवाएं रोगियों को दी गईं। यदि वायरस का माइल्ड यानी हल्का रूप होता है तो प्रतिरोधकता बढ़ जाती है। यदि वायरस भारी हुआ तो जानलेवा साबित होता है। भारत ही नहीं दुनिया में व्यक्तिगत स्तर पर तो इम्युनिटी बढ़ाने की बात की जा रही है लेकिन सामुदायिक स्तर पर प्रतिरोधकता बढ़ाने की बात नहीं की जा रही। इसे हर्ड इम्युनिटी कहा जाता है।
यदि किसी एक बड़े समुदाय में 70 से 90 फीसदी लोगों में कोरोना वायरस से लड़ने की क्षमता विकसित कर दी जाए तो उस समूह में वायरस से लड़ने की शक्ति पैदा हो जाएगी। जब ऐसे प्रतिरोधक क्षमता वाले समूहों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे वायरस का खतरा कम होता जाएगा। इस वजह से वायरस की जो कड़ियां बन गईे हैं या बनती जा रही हैं, वे टूटती चली जाएंगी। नतीजतन वे लोग भी बच जाएंगे। जिनकी किसी कारण से प्रतिरोधक क्षमता कम है और वे कोरोना से लड़ने में समर्थ नहीं हैं।
सवाल उठता है कि हर्ड इम्युनिटी बढ़ाने की सलाह चिकित्सा विज्ञानी क्यों नहीं दे रहे हैं। दरअसल टीकाकरण का कारोबार सैंकड़ों अरब का होने के साथ, एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है। इसलिए सामुदायिक प्रतिरोधी क्षमता विकसित करने की बात नहीं की जा रही है। हालांकि भारत और अन्य एशियाई देशों में प्राकृतिक रूप से हर्ड इम्युनिटी है। इसीलिए ग्रामों की बजाय कोरोना का असर शहरी आबादी में ज्यादा है। यह हकीकत इस तथ्य से भी प्रमाणित होती है कि करीब डेढ़ दो माह पहले तक बिहार में विधानसभा चुनाव और मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश में कुछ सीटों पर उपचुनाव हुए थे। चुनावी सभाओं में हजारों लोग इकट्ठे हुए। इनमें से ज्यादातर के चेहरों पर मास्क नहीं थे। बावजूद कोरोना का संक्रमण नहीं फैला तो इसका एकमात्र कारण सामुदायिक प्रतिरोधकता का विकसित होना ही है। इसे हम दिल्ली सीमा पर आंदोलनरत किसानों में भी अनुभव कर सकते हैं। शहरों और अन्य इलाकों में कोरोना संक्रमण का फैलना पर्यावरणीय क्षति अर्थात इलाकों को वृक्षविहीन करने के साथ वायु और जल को दूषित कर देना भी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)