हम सफर में हैं…
हां वो सफ़र में हैं
आज से नही
विगत कई वर्षों से
उसने अपना घर द्वार छोड़ा
गांव गली मोहल्ला छोड़ा
चार पैसे और दो जून की
रोटी की दरकार में वो
निकल गया सफ़र पर और
जा पहुंचा हज़ारों हज़ार
किलोमीटर दूर इक अनजान शहर में
हां उसने सड़कें चमकाई
सफाईगीर बनकर
गगनचुंबी इमारतें बनाई
मज़दूर और मिस्त्री बनकर
लखपतियों के महले दुमहले भी बनाये
बड़े लोगों की तीमारदारियाँ की
सेवादार और सुरक्षा गार्ड बनकर
ऑटो रिक्शा और गाड़ियां चलाई
ड्राइवर बनकर..आख़िर
उसने क्या नही किया..??
अपने परिवार की खुशियों के ख़ातिर
अनगिनत स्मार्ट सिटी खड़ी हो गई
उस मेहनत कश के खून पसीने पर
पैसे ठेकेदार और बिल्डर्स ने बनाये
घटिया माल लगाया, बिल्डिंग
पुल और सड़कें ज़मीदोज़ हुये
तो उसने अपनी जाने भी गवाई
फ़िर भी उसने हार नही मानी
अपने परिवार की दो रोटियों के लिए
वो सब कुछ सहता रहा, कौड़ी भर
पैसों की ख़ातिर ठेकेदार और
मालिकों की मारपीट गाली गलौज़ भी…
पर उसने उफ़ नही किया वो
ख़ुशी ख़ुशी अपनी ड्यूटी बजाता रहा।
फ़िर अचानक से एक दिन
कोरोना आ गया वैश्विक
महामारी बनकर सरकार ने
लॉक डाउन लागू किया और
देश का हर छोटा बड़ा आदमी
ख़ुद की जान बचाने के लिए
अपने-अपने घरों में कैद हो गया
बाज़ार हाट फैक्टरी दफ्तर कारखाने
कंस्ट्रक्शन वर्क सारे कामधंधे भी
लॉक डाउन के चलते बंद हो गए
वो लाखों प्रवासी मज़दूर
यानी मज़बूर आदमी काम
धंधे से बाहर होकर सड़क पर
आ चुके थे अब न ही उनके सर पर
छत थी उस बेगाने शहर में और
न ही पेट भरने के लिये पैसे..
जो बचे खुचे थे भी, वो भी
कुछ ही दिनों में खर्च हो गए।
अब वो कहां जाए क्या करे…??
हां वही मज़बूर आदमी जो
शहर आया था ज़िन्दगी की तलाश में
अब वो जिये तो जिये कैसे….??
ये विकट प्रश्न अचानक से
खड़ा हो गया था उसके सामने..??
अब वो अपने घर गांव
वापिस जाना चाहता है
इस मुश्किल घड़ी में
नमक रोटी खाकर भी
अपने परिवार के साथ रहना चाहता है
लॉक डाउन के चलते
आवागमन के सारे साधन
बंद कर दिए गए हैं सरकारी आदेश पर
उन लोगों ने मिलकर
प्रदेश और देश की सरकारों से
गुहार भी लगाई, नतीजन
कुछ व्यवस्था भी की गईं
पर वो व्यवस्था…
इतनी पर्याप्त नही थी के
इन भिन्न-भिन्न प्रान्तों में फंसे हुए
लाखों बेघर मज़लूमो को उनके घर पहुंचा पाती।
वो सब पैदल ही चल पड़े
सड़क मार्ग से हज़ारों हज़ार
किलोमीटर की यात्रा पर
अपने अपने घरों की ओर
पर वहां भी चैन नही था
कानून व्यवस्था और
लॉकडाउन के अनुपालन में
पुलिस डंडे बरसाकर इन्हें
तितर बितर करने लगी
डर के मारे ये लोग
भूखे प्यासे रेलवे ट्रैक पर
चलने को मज़बूर हो गए
अपने-अपने घरौंदों की दिशा मे,
दक्खिन से पूरब, पश्चिम से उत्तर,
पश्चिम से दक्षिण, लाखों की संख्या में..
थोड़ी सी बची खुची रोटियां और
कुछ कपड़े झोले में रखकर
कांधे पर लादे हिम्मत के साथ
भूखे प्यासे अपनी मंज़िल की ओर
चलते जा रहे हैं…चलते ही जा रहे हैं….
रास्ते में कितने ट्रेन की पटरी पर
सोते हुए अपनी जान गवां बैठे,
कितने भूख प्यास से टूटकर
थक हार कर अचानक ही परलोक सिधार गए
कितनों को पीछे से टक्कर
मार के गाड़ियों ने कुचल दिया,
कितनों ने संसाधन आत्मबल और
शक्ति ख़त्म होने से घबराकर
स्वयं ही मृत्यु को गले लगा लिया।
कौन है जिम्मेदार इस त्रासदी का..??
कौन देगा इसका हिसाब किताब
ईश्वर को ऊपर पहुंचकर..??
व्यथित मानवता रुदन कर रही है
मूर्छित होकर गिर पड़ी है धरा पर
फ़िर भी हमारा हृदय नही पसीजता
इन असहायों के लिए
हां कुछ करुणामयी सहृदय मनुष्यों और
स्वयं सेवी संस्थाओं ने मिलकर उनकी
मदद भी की है भोजन सामग्री व अन्य
जरूरी चीजें उपलब्ध करवाकर
पर शायद
हमारी सरकार और समाज दोनों के ही
सम्मिलित प्रयास भी इतनी बड़ी संख्या को
राहत पहुंचाने में नाकामयाब रहे।
ऐसा लगता है इक्कीसवीं सदी की
इस भौतिकता वादी दौड़ में हम सबकी
मानवीय संवेदनाएं कुछ मर सी गई हैं
या शायद हम आज भी सो रहे हैं।
वक्त आ गया है…
शायद अब हमें जाग जाना चाहिए….
अब भी….
इन लाखों मज़लूमों का पैदल सफ़र जारी है
अहम सवाल ये है के ये उन्हें उनके
घरों को ले जाएगा या जीवन के इस
कटु सत्य को ज़ब्त करते करते वो
इन राहों में ही खो जायेंगे…??
कल्लू मुन्ना बबलू शाहिद जावेद
तुम सबन गांव आउत हो ना बेटवा …??
हम तोहार माई अउर तोहार बाल बच्चा
कबही से तुमाए घरवा आवै की बाट ज़ोहत है रे…..
सुनो माई..
तुम चिंता जिन करौ…
हम अभी भी सफ़र में हूँ …….
(सह निदेशक, मानव संसाधन विकास केंद्र, इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय, प्रयागराज)