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Asom : मूल निवासियों पर गहराता संकट, जनसांख्यिकी में तेजी से बदलाव

सन 41 तक असम बन जाएगा मुस्लिम बहुल राज्य!

-संजीव कलिता

असम में जनसांख्यिकी में तेजी से हो रहा बदलाव चिंता का कारण बनी हुई है। ऐतिहासिक असम आंदोलन के दिनों से ही यह मुद्दा भारत के सुदूर पूर्वी क्षेत्र के मूल निवासियों के दिलों को छूता रहा है। वह आंदोलन भले ही आंदोलनकारी छात्रों और आम लोगों की मूल मांग को पूरा करने में विफल रहा हो, लेकिन इसने क्षेत्र के मूल निवासियों को सचेत कर दिया। छह साल लंबे आंदोलन ने उन्हें विशेष रूप से अपनी ही भूमि पर अपने भविष्य पर मंडरा रहे एक बड़े खतरे से अवगत कराया। पूर्वी पाकिस्तान/बांग्लादेश के लाखों नागरिकों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने और उन्हें असम में रहने की अनुमति देने के लिए आधे-अधूरे समझौते के बाद स्थिति अस्थिर होने का इंतजार कर रही थी। उसी समझौते के आधार पर असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) को अपडेट करने से मूल आबादी को कुछ खास लाभ मिलने की उम्मीद नहीं थी, जिसने बाद में स्थानीय लोगों के हितों के खिलाफ भ्रष्टाचार और बड़े पैमाने पर कुप्रबंधन के साथ राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया। यह मुद्दा तब सामने आया जब असम के मुख्यमंत्री डॉ. हिमंत विश्व शर्मा ने एक चौंकाने वाली टिप्पणी की कि राज्य में मुस्लिम आबादी 1951 में 12 फीसदी से बढ़कर 40 फीसदी हो गई है। चालू वर्ष के जुलाई महीने में उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि असम 2041 तक मुस्लिम बहुल राज्य बन जाएगा। उन्होंने कहा था कि उन्होंने कहा कि यह एक हकीकत है और इसे कोई भी रोक नहीं सकेगा। फिलहाल, सरकार ने राज्य की मुस्लिम आबादी को कम करने के लिए कई कदम उठाए तो हैं पर ये कहां तक सफल हो पाते हैं, यह आनेवाले समय पर ही पता चलेगा।

आंकड़ों के मुताबिक असम के नगांव जिले में हिंदू आबादी 1991 में 51.73 फीसदी से घटकर 2001 में 47.78 फीसदी हो गई। इस दौरान मुस्लिम आबादी 1991 में 47.18 फीसदी से बढ़कर 2001 में 50.97 फीसदी हो गई। इस दौरान हिंदू आबादी की वृद्धि दर 12.96 फीसदी थी जबकि मुस्लिम वृद्धि 32.12 फीसदी थी। नगांव जिले के बारे में एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि 1971-91 के दौरान हिंदू वृद्धि दर 2.40 फीसदी थी जबकि मुस्लिम वृद्धि दर 34.90 फीसदी थी। यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि 1901 में अविभाजित नगांव जिले की कुल आबादी में मुस्लिम आबादी केवल 04 फीसदी थी। 1971 में मुस्लिम आबादी जिले की कुल आबादी का 39.40 फीसदी थी। एक सदी ने जिले की जनसांख्यिकी को अपूरणीय रूप से बदल दिया है। धुबड़ी जिले में 1991-2001 के दौरान हिंदू आबादी की वृद्धि दर 5.61 फीसदी थी, जबकि इस अवधि के दौरान मुस्लिम वृद्धि दर 29.58 फीसदी थी। 1991 में जिले में हिंदू 28.73 फीसदी थे। 2001 में यह घटकर 24.78 फीसदी रह गया। दूसरी ओर, मुस्लिम आबादी लगातार बढ़ रही है। मुख्य धारा के असमिया लोग, खासकर असमिया हिंदू, लंबे समय से सीमा पार से अवैध प्रवासियों के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से असम विभिन्न प्रवासी समुदायों की भूमि रही है। कई प्रवासियों ने यहां की स्वदेशी संस्कृति के साथ तालमेल बिठाया और आत्मसात किया। यह ‘देने और लेने’ की प्रक्रिया थी। हालांकि मुसलमानों के मामले में ऐसा नहीं कहा जा सकता। मुसलमानों में भी बहुत सारे असमिया हैं, लेकिन दुर्भाग्य से वे समुदाय के भीतर अल्पसंख्यक हैं।

स्वतंत्रता के बाद गोपीनाथ बरदलै जैसे नेताओं ने प्रवासन विरोधी रुख अपनाया। बरदलै ने असम को पाकिस्तान का हिस्सा बनाने की मुस्लिम लीग की साजिश के खिलाफ लड़ाई लड़ी। बरदलै जैसे नेताओं को एहसास था कि सीमा पार से बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रवासियों के असम में बसने का क्या असर हो सकता है। हालांकि, बाद में सीमा पार से मुस्लिम प्रवासियों के प्रति कांग्रेस की नीति में भारी बदलाव आया। कांग्रेस पार्टी ने प्रवासियों को अपने वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करके राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की। इसकी बांग्लादेशी समर्थक नीति ने पार्टी को मुख्यधारा के असमिया लोगों से दूर कर दिया है। कांग्रेस को अपनी बांग्लादेशी समर्थक नीति से अल्पकालिक लाभ हो सकता है लेकिन लंबे समय में असम को सबसे ज्यादा नुकसान होने वाला है। 19 जुलाई, 1948 के बाद राज्य में अवैध रूप से बसने वालों के मताधिकार पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। प्रवासी हिंदुओं को उन विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए नागरिकता दी जा सकती है जिसके तहत उन्हें अपना जन्मस्थान छोड़ना पड़ा था। असम में जनसांख्यिकीय परिवर्तन पर गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए राष्ट्रीय स्तर पर मुखर भगवा नेता तथा असम के मुख्यमंत्री डॉ. हिमंत विश्व शर्मा ने टिप्पणी की कि यह उनके और मूल लोगों के लिए एक बड़ा मुद्दा है। उन्होंने यहां तक कहा कि यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं बल्कि उनके लिए जीवन-मरण का सवाल है। मुख्यमंत्री का यह भी कहना है कि एक विशेष धर्म से संबंधित कुछ व्यक्तियों की बढ़ती आपराधिक गतिविधियों से उन्हें चिंता होती है। यहां तक कि मिया मुसलमान भी अब प्रशासन से नहीं डरते।

ध्यान रहे कि हाल ही में कामरूप (मेट्रो) जिले के सोनापुर इलाके में अतिक्रमणकारियों (ज्यादातर बांग्लादेशी मूल के मुस्लिम परिवार) को बेदखल करने की सरकारी पहल के दौरान उन्होंने ड्यूटी पर मौजूद पुलिसकर्मियों और प्रशासनिक अधिकारियों पर हमला करने का साहस किया। हाथों में धारदार हथियार लिए हजारों अतिक्रमणकारियों ने पुलिस व सुरक्षाकर्मियों के साथ भीड़ गए। परिणामस्वरूप 20 से अधिक सरकारी कर्मियों को गंभीर चोटें आईं और दो हमलावर मारे गए। यहां तक कि मिया मुसलमानों ने जनजातीय समुदाय को भी नहीं बख्शा, क्योंकि उन्होंने जनजातीय बेल्ट और ब्लॉक क्षेत्रों में अतिक्रमणकारियों के खिलाफ बेदखली अभियान का समर्थन किया था। इस घटना ने अतिक्रमणकारियों की बेदखली पर बड़े पैमाने पर बहस को जन्म दिया। विपक्षी पार्टी के नेताओं ने सरकार से ऐसे मुद्दों से निपटने में अधिक मानवीय होने के लिए कहा। हालांकि, नागरिक समाज समूह ने इस बात पर कड़ी टिप्पणी की कि सोनापुर के जनजातीय-क्षेत्र में बेदखली अभियान चलाने के दौरान बांग्लादेशी प्रवासियों द्वारा पुलिस पर किए गए हमले ‘केवल असम में बांग्लादेशियों के आत्मविश्वास और साहस को प्रदर्शित करते हैं’। असम के घुसपैठ विरोधी निकाय, प्रब्रजन विरोधी मंच ने भी कहा कि यह चुनाव में वोट पाने के लिए विदेशियों के तुष्टिकरण की नीति के कारण हुआ है। तुष्टिकरण की नीति ने उन्हें पुलिस पर हमला करने की हद तक सशक्त बनाया भले ही वे कथित तौर पर अतिक्रमणकारी हैं और जनजातीय भूमि पर अधिकार हासिल करने में असमर्थ हैं।

सिपाझाड़, छयगांव और मंगलदै से भी इस तरह की घटनाओं की खबरें हैं जहां स्थानीय लोगों को बांग्लादेश से आए संदिग्ध प्रवासियों द्वारा बार-बार निशाना बनाया जाता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सिपाझाड़ में 77,420 बीघा भूमि पर बांग्लादेशी मूल के लोगों का अतिक्रमण है। सरकार ने 2021 में घोषणा की कि पूरी भूमि को अतिक्रमणकारियों से मुक्त कराया जाएगा और एक कृषि परियोजना स्थापित की जाएगी। बेदखली अभियान से लगभग 2000 बीघा भूमि वापस मिल सकी और वहां कृषि-डेयरी परियोजना शुरू की गई। इसी तरह, छयगांव में, ब्रह्मपुत्र के मार्ग में परिवर्तन के कारण, पिछले वर्षों में कटाव के कारण कई गांव नष्ट हो गए थे और हाल ही में दक्षिण सरुवंशी मौजा में लगभग 20,000 बीघा ऐसी भूमि को बहाल किया गया है। जब मूल निवासी और उनके वंशज, जिनके पास वैध पट्टे थे, अपनी भूमि को पुनः प्राप्त करने गए, तो पाया गया कि उन भूमि पर पहले से ही बांग्लादेशी प्रवासियों का अतिक्रमण था। बार-बार की गई पुलिस शिकायतों और विरोध-प्रदर्शनों के बावजूद मूल निवासी अभी भी अपनी जमीन से वंचित हैं। मंगलदै में एक स्थानीय किसान अपनी उपज बाजार में बेचने गया, लेकिन उस पर बांग्लादेशी मूल के अन्य विक्रेताओं ने हमला कर दिया। यहां तक कि उसके बेटे को भी पीटा गया और उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। आरोपों के अनुसार संबंधित अधिकारियों द्वारा उन अपराधियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। क्या यह बदलती जनसांख्यिकी के कारण नहीं है जो असम में संदिग्ध नागरिकों की आपराधिक गतिविधियों को बढ़ाती है!

दशकों तक असम के सामाजिक-राजनीतिक विमर्श में हिंसा एक आवर्ती विषय रहा है। विभिन्न जातीय समूहों ने अक्सर हिंसक तरीकों से अपनी पहचान स्थापित करने की कोशिश की। सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के हिस्से के रूप में असम ने स्वतंत्रता के बाद से कई चुनाव देखे हैं। स्वतंत्रता के बाद से अधिकांश समय तक कांग्रेस पार्टी ने असम पर शासन किया है। असम में कांग्रेस के शासन के दौरान राज्य ने भाषा के लिए आंदोलन, अवैध प्रवासियों की पहचान और निर्वासन के लिए आंदोलन, कई अन्य घटनाओं के बीच उग्रवादी समूहों का उदय देखा है। मुख्यधारा के असमिया लोगों के अलगाव ने कई असमिया लोगों को हिंसा के रास्ते पर ले जाया। हालाँकि, हाल के वर्षों में, चीजें थोड़ी बदल गई हैं। कुछ उग्रवादी समूह बातचीत की मेज पर आ गए हैं। कामतापुर लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन, आदिवासी सुरक्षा बल, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम (अरबिंद राजखोवा गुट), कार्बी नेशनल लिबरेशन आर्मी, आदिवासी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी, डिमासा नेशनल लिबरेशन आर्मी जैसे उग्रवादी समूह मुख्यधारा में आ गए हैं या आ रहे हैं। बांग्लादेश के साथ छिद्रपूर्ण सीमा के कारण सीमा पार से असम में बड़े पैमाने पर घुसपैठ हो रहा है। इससे पहले सर सादुल्ला के नेतृत्व वाली असम सरकार ने पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) से हजारों मुसलमानों को लाकर असम में बसाया था। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने इसे असम की जनसांख्यिकी को बदलने का प्रयास बताया था। ये बांग्लादेशी उपनिवेश अब असम की राजनीति में नगण्य ताकत बन गए हैं। वे निश्चित रूप से असम में सरकार के परिवर्तन को प्रभावित कर सकते हैं। कई बार ऐसे उदाहरण भी मिले हैं जब बांग्लादेशी समर्थक लॉबी ने सरकार गिराने की धमकी दी। तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सइकिया द्वारा असम में बांग्लादेशियों की मौजूदगी को स्वीकार करने पर उनके मुस्लिम सहयोगी ने कड़ी धमकी दी और अगले ही दिन उन्होंने अपना बयान वापस ले लिया।

जनसांख्यिकी के बदलते परिदृश्य ने राज्य के कई हिस्सों में मुख्यधारा के असमिया लोगों को हाशिए पर धकेल दिया है। जनसांख्यिकी के बदलते परिदृश्य के कारण उनके लोकतांत्रिक अधिकार खतरे में हैं। मूल असमिया लोगों की वास्तविक शिकायतों को दूर करने के बजाय कांग्रेस सरकार ने आईएमडीटी अधिनियम लागू किया था। इस अधिनियम ने अवैध प्रवासियों के लिए ढाल का काम किया। सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 में इस अधिनियम को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए रद्द कर दिया। यह दो दशकों से अधिक समय तक प्रभावी रहा। अवैध प्रवासियों को संरक्षण देते हुए कांग्रेस पार्टी लंबे समय से बांग्लादेशी मुस्लिम लोगों को वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल कर रही है। यह धर्मनिरपेक्षता के नाम पर किया गया है। असम में बसने वाले मुस्लिम समुदाय ने न केवल राज्य के राजनीतिक मामलों में बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था में भी निर्णायक भूमिका निभानी शुरू कर दी है। असम के राजनीतिक परिदृश्य में ’मौलवी-व्यापारी’ बदरुद्दीन अजमल का उदय एक नई राजनीतिक स्थिति का संकेत देता है। उनकी राजनीतिक गतिविधियां केवल असम तक ही सीमित नहीं हैं। अजमल ने सार्वजनिक रूप से कहा है कि मुस्लिम युवा 20 साल के भीतर सभी सरकारी कार्यालयों पर कब्जा करने के लिए तैयार हो जाएंगे। संसद में अजमल ने भारतीय मुसलमानों के लिए धार्मिक आरक्षण की मांग की है। इससे पहले उनकी पार्टी के नेता ने मुसलमानों के लिए निचले असम में स्वायत्त परिषद की मांग की थी। राजनीतिक परिदृश्य में इस्लामी ताकतों के उदय के साथ ही उनमें से कुछ ने अपने लिए अलग राज्य जैसी व्यवस्था की मांग शुरू कर दी है। माल्टा, मालफा जैसे विभिन्न इस्लामी आतंकवादी समूह उभरे हैं। उनका उद्देश्य असम को इस्लामी राज्य बनाना है। आईएसआई, हुजी लंबे समय से असम को अस्थिर करने की कोशिश कर रहे हैं। असम गण परिषद के शासन के दौरान कई आईएसआई एजेंटों की गिरफ्तारी इस्लामी साजिश की ओर इशारा करती है। 2008 में धुबड़ी जिले में भारतीय सेना द्वारा सात हूजी सदस्यों को मार गिराया गया था।

असम में बसने वाले औपनिवेशिक मार्ग से नहीं आए थे। लेकिन यहां भी वे असम की राजनीति और अर्थव्यवस्था पर हावी हो गए हैं। असम की स्थिति इस मायने में अधिक गंभीर है कि जिम्बाब्वे में श्वेत बसने वालों के विपरीत मुस्लिम प्रवासियों की संख्या राज्य के कई जिलों में स्थानीय मूल निवासियों से अधिक है। असम में बदलते जनसांख्यिकी के मुद्दे पर मुख्यमंत्री डॉ.शर्मा का इस राजनीतिक कथन कि ‘मुस्लिम समुदाय से वोट पाने वाले नेता अगर जनसंख्या नियंत्रण के लिए अभियान चलाएंगे तो इसके बेहतर नतीजे सामने आएंगे। अगर राहुल गांधी जनसंख्या नियंत्रण अभियान के ब्रांड एंबेसडर बनते हैं तो इसके नतीजे खटाखट नहीं तो फटाफट जरूर दिखेंगे’, काफी मायने रखता है। क्योंकि, जनसंख्या नियंत्रण ही इस समस्या का सबसे बड़ा समाधान है। मुख्यमंत्री कहते हैं कि मुस्लिम नेता खुद जन्म नियंत्रण उपाय अपनाते हैं, लेकिन वे मुस्लिम समुदाय में इसे बढ़ावा नहीं देते। अगर पिछली सरकारों ने इन पहलुओं पर ध्यान दिया होता तो स्थिति अब बेहतर होती।

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