
नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि बिना ठोस साक्ष्यों के केवल “शारीरिक संबंध” शब्द का इस्तेमाल दुष्कर्म या शील भंग के आरोपों को साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इस टिप्पणी के साथ कोर्ट ने एक व्यक्ति को बलात्कार के मामले में मिली दोषसिद्धि और 10 साल की सजा को रद्द करते हुए उसे बरी कर दिया। यह फैसला 17 अक्टूबर को न्यायमूर्ति मनोज कुमार ओहरी ने सुनाया।
कोर्ट ने क्यों किया बरी?
न्यायमूर्ति ओहरी ने अपने आदेश में कहा, “इस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए, ‘शारीरिक संबंध’ शब्द का प्रयोग, बिना किसी सहायक साक्ष्य के, यह साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं है कि अभियोजन पक्ष ने अपराध को उचित संदेह से परे सिद्ध किया है।” कोर्ट ने स्पष्ट किया कि भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376 और पॉक्सो अधिनियम की धारा 6 के तहत दी गई दोषसिद्धि को बनाए रखना उचित नहीं है।
निचली अदालत की खामियां उजागर
हाई कोर्ट ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण मामला करार देते हुए कहा कि निचली अदालत और अभियोजन पक्ष ने पीड़िता से आवश्यक सवाल नहीं पूछे, जिससे यह स्पष्ट हो सके कि आरोपित पर लगाए गए अपराध के तत्व सिद्ध हुए हैं या नहीं। कोर्ट ने बताया कि पीड़िता और उसके माता-पिता ने बार-बार “शारीरिक संबंध” की बात कही, लेकिन इस शब्द का सटीक अर्थ या कथित कृत्य का कोई विवरण नहीं दिया गया।
यह मामला 2023 में दर्ज किया गया था, जिसमें 16 वर्षीय नाबालिग पीड़िता ने आरोप लगाया था कि उसके रिश्ते के भाई ने 2014 में शादी का झूठा वादा करके एक साल से अधिक समय तक उसके साथ शारीरिक संबंध बनाए। व्यक्ति ने अपनी दोषसिद्धि को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। कोर्ट ने पाया कि अभियोजन पक्ष का पूरा मामला केवल पीड़िता और उसके माता-पिता की मौखिक गवाही पर आधारित था, और रिकॉर्ड में कोई फॉरेंसिक साक्ष्य मौजूद नहीं था।
‘शारीरिक संबंध’ की परिभाषा पर सवाल
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि “शारीरिक संबंध” शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा न तो आईपीसी में दी गई है और न ही पॉक्सो अधिनियम में। न्यायाधीश ने जोर दिया कि पीड़िता के बयान में यह स्पष्ट नहीं किया गया कि “शारीरिक संबंध” से उनका क्या मतलब था और क्या इसमें शील भंग का प्रयास शामिल था। इस अस्पष्टता के चलते कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के दावों को अपर्याप्त माना।
कोर्ट का फैसला
हाई कोर्ट ने मामले के गुण-दोष के आधार पर फैसला सुनाते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष अपराध को साबित करने में विफल रहा। इस आधार पर कोर्ट ने याचिकाकर्ता को बरी कर दिया। यह फैसला कानूनी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि यह साक्ष्यों की आवश्यकता और अस्पष्ट शब्दावली के उपयोग पर सवाल उठाता है।