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2024 का चक्रव्यूह भेदने की बेताबी

जितेन्द्र शुक्ला

2014 और 2019 के चुनावों से इस बार का चुनाव थोड़ा भिन्न है। इस बार फर्क यह है कि भाजपा को अपनी चुनौतियों का पता है। उसे एकजुट विपक्ष की ताकत और नरेंद्र मोदी के 10 साल के राज को लेकर बन रहे सत्ताविरोधी माहौल का अंदाजा भी है। तभी वह चुनाव के एक साल पहले से तैयारियों में जुट गई है। दरअसल, भाजपा की मुश्किल दो तरह की है। एक मुश्किल अंदरूनी है और दूसरी बाहरी। बाहरी मुश्किल का मतलब विपक्ष की चुनौती से है। इससे पहले 2019 के चुनाव में विपक्ष चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। लोकसभा चुनाव पुलवामा कांड और उरी व बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में हुए थे। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी। साथ ही अपनी सरकार के पहले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने दर्जनों योजनाएं शुरू की थीं, जिनसे आम लोगों में अपना जीवन बदल जाने की उम्मीद बंधी थीं। लोग अच्छे दिन आने का इंतजार कर रहे थे और उनको लग रहा था कि सरकार की योजनाएं अगर पूरी होती हैं तो निश्चित रूप से अच्छे दिन आएंगे।

चुनावी महासंग्राम की रणभेरी बज चुकी है। राजनीतिक दलों की सेनाओं ने मोर्चा भी संभाल लिया है। एक ओर विपक्ष है जो सत्ता में वापसी के लिए हाथ-पैर मार रहा है तो वहीं दूसरी ओर सत्तापक्ष है जो लगातार तीसरी बार सरकार बनाने के लिए हर संभव प्रयास कर रहा है। यूं तो चुनावी महासंग्राम भाजपा नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानि एनडीए है तो वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों का इण्डिया गठबंधन है। लेकिन मुख्य लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच मानी जा रही है। एक ओर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने हर वादे को ‘गारंटी’ का नाम दे रहे हैं तो वहीं कांग्रेस न्याय के साथ ‘गारंटी’ की ही बात कर रही है। यानि सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी का विकसित भारत और मोदी की गारंटी का नारा दिया है तो दूसरी तरफ कांग्रेस ने पांच न्याय का। दरअसल 14 जनवरी से शुरू हुई राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में कांग्रेस इसे लोगों के बीच रखा है। भाजपा का मोदी की गारंटी का नारा वैसा ही है जैसा 2014 में अबकी बार मोदी सरकार का नारा भाजपा ने दिया था। हालांकि गारंटी को नारे के रूप में कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनावों में दिया था, लेकिन बड़ी राजनीतिक चतुराई से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे मोदी की गारंटी में बदल दिया और अब कांग्रेस को नया नारा गढ़ने की जरूरत पड़ी है, यानि अब राजनीतिक दल 2024 के चक्रव्यूह को भेदने के लिए पालाबंदी में जुटे हैं। ज्यादातर ने पाले तय कर लिए हैं। गठबंधन की सीटें तय हो गई हैं, प्रत्याशी तय हो रहे हैं। दलबदल और घर वापसी लगातार जारी है। जो कल तक विपक्ष में बैठकर सत्ता को लानतें दे रहे थे, वे तेजी र्से ंसहासन के हिस्सेदार और बगलगीर होने को व्याकुल हैं। महंगाई, बेरोजगारी से ज्यादा राममंदिर से उत्सवी माहौल बना हुआ है।

लेकिन, 2014 और 2019 के चुनावों से इस बार का चुनाव थोड़ा भिन्न है। इस बार फर्क यह है कि भाजपा को अपनी चुनौतियों का पता है। उसे एकजुट विपक्ष की ताकत और नरेंद्र मोदी के 10 साल के राज को लेकर बन रहे सत्ताविरोधी माहौल का अंदाजा भी है। तभी वह चुनाव के एक साल पहले से तैयारियों में जुट गई है। दरअसल, भाजपा की मुश्किल दो तरह की है। एक मुश्किल अंदरूनी है और दूसरी बाहरी। बाहरी मुश्किल का मतलब विपक्ष की चुनौती से है। इससे पहले 2019 के चुनाव में विपक्ष चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। लोकसभा चुनाव पुलवामा कांड और उरी व बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक की पृष्ठभूमि में हुए थे। बतौर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता चरम पर थी। साथ ही अपनी सरकार के पहले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने दर्जनों योजनाएं शुरू की थीं, जिनसे आम लोगों में अपना जीवन बदल जाने की उम्मीद बंधी थीं। लोग अच्छे दिन आने का इंतजार कर रहे थे और उनको लग रहा था कि सरकार की योजनाएं अगर पूरी होती हैं तो निश्चित रूप से अच्छे दिन आएंगे। पहले पांच साल में सरकार का फोकस राजनीति पर कम और योजनाओं पर ज्यादा था। तभी लोगों ने पहले से ज्यादा बहुमत देकर नरेंद्र मोदी को दूसरी बार प्रधानमंत्री बनाया था। अब भाजपा ने मोदी की गारंटी को लोकसभा चुनावों के लिए अपना मुख्य नारा बना लिया है। इसके साथ ही 22 जनवरी को अयोध्या में संपन्न हुए राम मंदिर में श्रीराम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के भव्य और दिव्य आयोजन से देश में जो राममय माहौल बना, भाजपा को उससे भी अपना चुनावी बेड़ा पार होने की उम्मीद है। हाल ही में हुए राज्यसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में सपा व कांग्रेस में हुई क्रॉस र्वोंटग से भाजपा ने जिस तरह अपने अतिरिक्त उम्मीदवारों को जिताया है, उससे जाहिर होता है कि जीत के लिए भाजपा हर रणनीति अपनाने से पीछे नहीं हटती है।

उधर, भाजपा को सत्ताच्युत करने के लिए विपक्ष एकजुट तो जरूर हुआ है लेकिन बावजूद इसके उसमें बिखराव जारी है। विपक्ष के इण्डिया गठबंधन के सूत्रधार नीतीश कुमार वापस भाजपा के साथ चले गए और उन्होंने एक ही विधानसभा में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद और कुल नौ बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने का रिकॉर्ड कायम किया है। इस उलटफेर के साथ बिहार में यह उम्मीद बनी कि भाजपा नीत एनडीए गठबंधन 2024 में भी 2019 जैसी कामयाबी हासिल करेगा। इण्डिया गठबंधन अभी नीतीश के पैतरे की काट ढूंढ भी नहीं पाया था कि यूपी में राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) के नेता जयंत चौधरी ने भी एनडीए की ओर कदम बढ़ा दिया। दिलचस्प बात यह है कि समाजवादी पार्टी ने जयंत चौधरी को गठबंधन में सात लोकसभा सीटें दी थीं लेकिन भाजपा ने उन्हें दो ही दीं फिर भी जयंत चौधरी इससे संतुष्ट हैं। पहले कभी अपने बयानों में यह कहने वाले कि मै चव्वनी नहीं हूं जो पलट जाऊंगा लेकिन अब भाजपा के साथ जाने पर कह रहे हैं कि मैं पलटा नहीं बल्कि पटखनी दी है। उधर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और जम्मू-कश्मीर में फारूक अब्दुल्ला ने भी इंडिया गठबंधन में रहते हुए भी अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। आम आदमी पार्टी भी पंजाब में अकेले चुनाव लड़ने और दिल्ली में कांग्रेस को महज एक सीटे देने की बात हुई है। इसी बीच विपक्ष के खासकर कांग्रेस के कुछ नेताओं अशोक च्हवाण, र्मिंलद देवरा, विभाकर शास्त्री, आचार्य प्रमोद कृष्णम, गौरव बल्लभ आदि के पाला बदलने से जहां कांग्रेस निराश है वहीं भाजपा उत्साहित। विपक्ष के बनते-बिगड़ते समीकरण को देखते हुए ही भाजपा ने अबकी बार एनडीए के लिए चार सौ पार का नारा भी दे दिया है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भाजपा के लिए 370 और एनडीए के लिए चार सौ से ज्यादा सीटों का लक्ष्य तय किया है। इसके लिए भाजपा को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, जनता में उनकी विश्वसनीयता, मोदी सरकार की उपलब्धियां, राम मंदिर की लहर और विपक्षी गठबंधन में बिखराव और निराशा से बन रही भाजपा की तीसरी लगातार विजय की अवधारणा से काफी उम्मीदें हैं।

हालांकि कांग्रेस को भारत जोड़ो न्याय यात्रा के जरिए मोदी सरकार के खिलाफ उसके मुद्दों को मिलने वाली धार और बचे खुचे विपक्षी इंडिया गठबंधन की ताकत के जरिए भाजपा को चुनावों में पराजित करने का भरोसा है। उधर, किसानों के एक बार सड़क पर उतरने से विपक्ष उत्साहित है। लेकिन बिहार, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, दिल्ली, पंजाब, तमिलनाडु, प.बंगाल वो राज्य हैं जहां कांग्रेस को क्षेत्रीय दलों के साथ समझौते में चुनाव लड़ना है। जबकि मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, छत्तीसगढ़, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उड़ीसा, गोवा, असम, मेघालय, अरुणाचल, मिजोरम, मणिपुर, हरियाणा, कर्नाटक, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश में ज्यादातर उसे अकेले ही चुनाव लड़ना है। असम और पूर्वाेत्तर के राज्यों में कहीं कुछ क्षेत्रीय दलों से समझौता हो सकता है। इसलिए अगर कांग्रेस को भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन से मुकाबला करना है तो उसे गठबंधन वाले राज्यों में जल्दी से जल्दी व्यवहारिक सीट साझेदारी करनी होगी और जहां अकेले लड़ना है वहां जल्दी से जल्दी उम्मीदवारों की घोषणा करके उन्हें चुनाव में जुट जाने देना होगा। कांग्रेस को दक्षिण भारत से काफी उम्मीद है। उसे लगता है कि कर्नाटक, तेलंगाना और केरल में उसे इस बार खासी सफलता मिलेगी जबकि तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में भी उसकी कुछ सीटें आ सकती हैं। केरल में कांग्रेस को अपने इंडिया गठबंधन के सहयोगी वाम मोर्चे के साथ ही मुकाबला करना होगा। कमोबेश यही स्थिति पंजाब में भी हो सकती है जहां कांग्रेस आम आदमी पार्टी और अकाली दल का तिकोना मुकाबला हो सकता है। मैदान में भाजपा भी होगी लेकिन उसकी ताकत पंजाब में बेहद कम है और हाल ही में शुरू हुए किसान आंदोलन ने भी भाजपा के लिए इस सूबे में चुनौती बढ़ा दी है।

भाजपा के रणनीतिकारों का मानना है र्कि ंहदी भाषी राज्यों में पीएम मोदी के पक्ष में जबरदस्त करंट है। मोदी की गारंटी, रामलला की स्थापना, मथूरा जन्मभूमि मुक्ति अभियान और सउदी में मंदिर का निर्माण भाजपा की मजबूती का आधार आधार बनेगा। विधानसभा चुनावों के इफेक्ट का आकलन करें तो यूपी और बिहार में ही भाजपा अधिकतम सीटें जीत सकती है। मगर पूर्ण बहुमत के लिए पार्टी को बंगाल, असम, महाराष्ट्र और गुजरात में भी 2019 का प्रदर्शन दोहराना होगा। 2019 के चुनाव में बंगाल में भाजपा को 18, महाराष्ट्र में 23 और गुजरात की सभी 26 सीटों पर जीत मिली थी। यहां यह उल्लेखनीय है कि पिछले दो लोकसभा चुनाव में भाजपा नरेंद्र मोदी के चेहरे के सहारे मैदान में उतरी है। इस कारण लगातार दो बार पूर्ण बहुमत भी मिला। मगर मोदी लहर के बावजूद कई बड़े राज्य ऐसे हैं, जहां भाजपा का खाता भी नहीं खुला। भाजपा कश्मीर से बिहार तक अगर उत्तर भारत की सभी सीटें जीत जाती हैं तो उसे 245 सीटें मिलेंगी। ऐसा चमत्कार भारत की राजनीति में संभव नहीं है। 400 का आंकड़ा पार करने के लिए पार्टी को केरल, तमिलनाडु, तेलंगाना, आंध्रप्रदेश में भी 10-10 सीटों की जरूरत होगी। इसके लिए पार्टी ने रणनीति बना ली है। वर्तमान में इन राज्यों की कुल 118 सीटों में से भाजपा के पास सिर्फ चार सीटें हैं, जो तेलंगाना में मिली थीं। पिछले आम चुनाव में भाजपा ने 28 में 25 सीटें दक्षिण भारत के राज्य में जीती थीं। इस बार पार्टी ने जेडी एस के साथ चुनावी समझौता किया है। समझौते के कारण भाजपा को 4 सीटें जेडी-एस को देनी होगी। यानी उसे उम्दा प्रदर्शन के लिए अपने खाते की सभी 24 सीटों पर जीत दर्ज करनी होगी। इसके अलावा बिहार में भी महागठबंधन में शामिल आरजेडी और जेडीयू भी दम रखती है। वहां भाजपा के लिए खुद की सीटों का बढ़ाना भी चुनौती है। 2014 के चुनाव में भाजपा अपने दम पर सर्वाधिक 22 सीट ही जीत सकी थी। भाजपा के पास ओडिशा से केवल आठ लोकसभा सांसद हैं, जबकि बीजेडी के पास 20 सीटें हैं। इस पूर्वी राज्य में भी भाजपा के लिए विस्तार की अपार संभावनाएं हैं। सपने पूरे करने के लिए बंगाल में भी भाजपा को अपने पुराने रेकॉर्ड 19 सीटों से आगे बढ़ने की जरूरत होगी। आंध्रप्रदेश, केरल और तमिलनाडु में भाजपा का खाता नहीं खुला था। पूर्वाेत्तर के राज्यों की कुल 25 लोकसभा सीटों में से अभी तक भाजपा 11 क्षेत्रों में काबिज है। 400 का आंकड़ा पार करने के लिए भाजपा को सभी 25 सीटें जीतनी होंगी। इसके अलावा भाजपा को खुद गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीटों को विपक्ष के हाथों में जाने से बचाना होगा।

लेकिन इस सब के बीच भाजपा ने ‘तीसरी बार मोदी सरकार,’ ‘अबकी बार चार सौ पार’ जसै नारे गढ़ कर विपक्ष पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बना ली है। बीते दो मुकाबलों की तरह इस बार भी एक तरफ अब तक अजेय ब्रांड मोदी है, तो दूसरी ओर एकसाथ आने की कोशिश में लगातार बिखरता विपक्ष हैर्। ंहदुत्व व राष्ट्रवाद की जमीन और मजबूत होने के बीच भाजपा वोट प्रतिशत और सीटें बढ़ाने के लिए एक-एक कर पुराने सहयोगियों को साध रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने नई सामाजिक न्याय की अवधारणा पेश करते हुए गरीब, युवा, महिला और किसान को चार जातियां बताया है। वहीं, बीते दो मुकाबलों में ब्रांड मोदी से पार पाने में अक्षम विपक्ष पहले की तरह ही महंगाई, बेरोजगारी जैसे पुराने मुद्दे उठा रहा है। वास्तव में ब्रांड मोदी की चुनौती विपक्ष के लिए नई नहीं है। गुजरात के सीएम से लेकर प्रधानमंत्री तक, ब्रांड मोदी विपक्ष के लिए अभेद्य किला रहा है। सीएम पद की शपथ लेने के बाद गुजरात में 2012 तक तो 2014 से केंद्र में कांग्रेस को लगातार मुंह की खानी पड़ी है। इसी ब्रांड के सहारे भाजपा नया वोट बैंक स्थापित करने में सफल रही है। वर्ष 2009 में जब भाजपा लोकसभा चुनाव हारी, तब उसे महज 7.84 करोड़ वोट मिले थे। हालांकि भाजपा में मोदी-शाह युग की शुरुआत के बाद बीते दो चुनावों में उसके मत में 15 करोड़ से अधिक की बढ़ोतरी हुई है। 2019 के चुनाव में तो उसे 224 सीटों पर 50 फीसदी से अधिक वोट मिले। उधर, विपक्ष की अगुवाई कर रही कांग्रेस मत प्रतिशत नहीं बढ़ा पा रही। 2009 में कांग्रेस को 28.55 फीसदी मत (11.92 करोड़ वोट) मिले। वर्ष 2014 में यह घटकर 19.31 फीसद (10.69 करोड़ मत) रहा गया। 2019 में थोड़ा बढ़कर 19.6 फीसदी (11.90 करोड़ मत) हो गया। कांग्रेस का मत प्रतिशत स्थिर रहा, लेकिन भाजपा का तेजी से बढ़ा। 2019 में भाजपा को 37.7 प्रतिशत वोट मिले, यानि कांग्रेस से लगभग दो गुना। एक तथ्य यह भी है कि एनडीए व इंडिया में सबसे बड़ा अंतर जमीनी स्तर पर और संगठन के स्तर पर है। नयी भाजपा ने बूथ स्तर पर प्रबंधन पर सर्वाधिक मेहनत की है। वहीं, विपक्षी गठबंधन में शामिल आप, डीएमके के अलावा किसी दल ने बूथ स्तर पर बेहतर प्रबंधन नहीं किया है। कांग्रेस ने किसी भी राज्य में संगठन मजबूत करने के लिए मेहनत नहीं की है।

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