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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : आखिर देवा भाऊ की हुई वापसी

आखिर देवा भाऊ यानी देवेंद्र फडणवीस की महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हो गई। यह बिलकुल आश्चर्यजनक घटनाक्रम नहीं था। मौका, समय और दस्तूर- तीनों देवा भाऊ के साथ थे। एक और चीज थी जिसने फडणवीस का साथ निभाया, और वह है किस्मत। कोई पांच साल पहले उद्धव ठाकरे ने उन्हें बहुत बेदर्दी से मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटा दिया था। ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई और देवेंद्र फडणवीस को सीएम पद से इस्तीफा देना पड़ा था।

बृजेश शुक्ला

20-22 में जब महायुति सत्ता में लौटी, तो फडणवीस को उप-मुख्यमंत्री पद मिला था। ये डिमोशन था। उन्होंने इस पर भी कोई आपत्ति नहीं की लेकिन वह कई मौकों पर कहते नजर आए मैं समंदर हूं…, लौटकर आऊंगा…। और वो आ गए जैसे लहरों के राजहंस पर सवार कोई समन्दर लौटता है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद ‘कौन बनेगा मुख्यमंत्री’ को लेकर कई दिनों तक भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना शिंदे गुट के बीच जोर-आजमाइश चलती रही। आखिरकार यह तय हो गया कि 149 सीट लड़कर 132 सीटों पर कामयाबी हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी का मुख्यमंत्री होगा और शिवसेर्ना ंशदे गुट और एनसीपी अजीत पवार का उपमुख्यमंत्री। भारतीय जनता पार्टी इस मौके को नहीं छोड़ना चाहती थी कि जब वह बहुमत के करीब पहुंच गई तो मुख्यमंत्री पद किसी और को दे दे। जबकि शिवसेना शिंदे गुट के नेता और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे लगातार यह प्रयास करते रहे कि महाराष्ट्र चुनाव उनके कारण जीता गया है, इसलिए मुख्यमंत्री पद पर उन्हीं का दावा बनता है। इसके लिए उन्होंने दबाव की राजनीति भी की। लेकिन भारतीय जनता पार्टी कुछ सुनने को तैयार नहीं थी। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी की यह यात्रा बाला साहब ठाकरे के समय तब शुरू हुई थी जब वह शिवसेना की जूनियर पार्टनर थी लेकिन धीरे-धीरे शिवसेना जमीन खोती गई और भाजपा उसे हथियाती चली गई। आज महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी जनाधार वाली पार्टी है और वह अपनी जमीन और मजबूत करती जा रही है । महाराष्ट्र और झारखंड विधानसभा के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले रहे। विशेष रूप से महाराष्ट्र में जो परिणाम आए हैं उसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की थी।

मतगणना के समय जब महायुती यानी एनडीए तेजी से आगे बढ़ रहा था, कांग्रेस नेताओं के घरों, दफ्तरों, शिवसेना भवन और उद्धव ठाकरे के निवास स्थान मातोश्री तथा शरद पवार के आवास पर सन्नाटा छाया हुआ था। महाविकास आघाड़ी के नेता यह कल्पना नहीं कर पा रहे थे कि आखिर चुनाव परिणाम ऐसे क्यों आ रहे हैं और उससे भी ज्यादा चिंता इस बात को लेकर थी की जिस गठबंधन के बल पर सिर्फ महीने पहले ही कांग्रेस और शरद पवार और उद्धव ठाकरे ने लोकसभा चुनाव में भारी सफलता पाई थी, वह पराजय में कैसे बदल गई। आखिर क्या कारण था? सबसे ज्यादा बेचैनी उद्धव ठाकरे के आवास मातोश्री में थी क्योंकि उन्हें लगता था की महाराष्ट्र के लोग मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को गद्दार मानते हैं और गद्दारी की सजा उन्हें देंगे। उद्धव ठाकरे और उनके समर्थक जिस चश्मे से चुनाव को देख रहे थे वैसा जमीन में नहीं था। उधर, कांग्रेस को तो यह लगता था कि लोग राहुल गांधी को वापस लाने के लिए बेचैन हैं और कांग्रेस के पक्ष में एक लहर चल रही है। यह तब था जब कुछ दिन पहले ही कांग्रेस हरियाणा चुनाव हार चुकी थी । लेकिन इसका भी कोई असर कांग्रेस पर नहीं पड़ा था। आखिर कांग्रेस, शिवसेना उद्धव ठाकरे और शरद पवार के समर्थनों के सामने एक सवाल था कि यह क्या हो रहा है? चुनाव परिणाम चौंकाने वाला था। वास्तव में भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन महायुती ने झाड़ू लगा दी थी और इस तूफान के सामने न तो शरद पवार का कहीं पता था न राहुल गांधी का और न ही उद्धव ठाकरे का। राजनीतिक प्रेक्षक इस बात से हतप्रभ थे कि आखिर यह परिणाम आए कैसे? वोटों की गिनती आगे बढ़ती जा रही थी और भाजपा गठबंधन यानी महायुती 235 सीटों में जाकर रुकी । 288 कुल विधानसभा सीटों में 235 सीट भाजपा गठबंधन के पास आ जाना राजनीतिक विश्लेषकों को भी परेशान कर रहा था लेकिन जनता के बीच इस करंट को कोई समझ नहीं पाया। इसके पीछे कई कारण थे।

शिवसेना (ठाकरे गुट) : छवि का संकट
मराठी मानुस न केवल असली शिवसेना बल्कि बाल ठाकरे जैसा असली नेता भी खोज रहे थे। उद्धव ठाकरे अपने फायरब्रांड पिता की छवि के एकदम विपरीत जा रहे थे। लोगों ने उद्धव ठाकरे को कांग्रेस का पिछलग्गू मान लिया और जिस तरह से राहुल गांधी हिन्दुत्व के मुद्दे पर बोल रहे थे, वह बहुत लोगों का नागवार लग रहा था। राहुल गांधी ने महाराष्ट्र को समय कम दिया और जो दिया भी उसमें अडानी और अंबानी की रट लगाए रहे। उद्धव के समर्थक मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे को गद्दार-गद्दार कह रहे थे जबकि आम लोगों के बीच शिंदे लोकप्रिय थे और उन्होंने लोगों से संवाद बना कर रखा था। ढाई वर्ष के शासन में एकनाथ शिंदे की छवि काम करने वाले मुख्यमंत्री की बनी। उद्धव गुट की शिवसेना इसी भ्रम में जिंदा रही कि उनके पास बाला साहेब ठाकरे की असली विरासत है, जबकि जनता के बीच यह विरासत एकनाथ शिंदे के पास चली गई थी उसके बीच लड़की यानी लाडली बहन योजना भी काम कर रही थी।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की जनसभाओं में जो समा बांधा, उससे स्थिति और पलटी। ‘बंटोगे तो कटोगे’ का नारा गांव-गांव गूंज रहा था। राजनीति प्रेक्षक इस चीज को समझ नहीं पाए। जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने और उसके सहयोगी दलों यानी शिवसेना शिंदे गुट और ऐन सीपी अजित दादा गुट ने भारी सफलता पाई है, उससे सबसे ज्यादा झटका कांग्रेस के साथ ही उद्धव गुट की शिवसेना को भी लगा है क्योंकि उद्धव की शिवसेना यह साबित करने में नाकाम रही है कि वही असली शिवसेना है। कमोबेश यही स्थिति शरद पवार की हुई है। महाराष्ट्र की राजनीति में लगभग चार दशक तक एक छत्र छाए रहे शरद पवार को अपने भतीजे के हाथ से ही शिकस्त झेलनी पड़ी है। राजनीतिक प्रेक्षक हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में भी यही दावा करते रहे कि भाजपा गठबंधन और कांग्रेस गठबंधन के बीच कांटे की लड़ाई है। हरियाणा में तो कांग्रेस के पक्ष में एकतरफा लहर बताई गई थी लेकिन जमीन में कोई लड़ाई ही नहीं थी। उद्धव गुट के शिवसेना के कार्यकर्ताओं में इस बात की बेचैनी है कि उन्होंने बीजेपी से गठबंधन तोड़ दिया। उद्धव ठाकरे को सिर्फ ढाई साल का मुख्यमंत्री पद मिला, उसमें भी ज्यादातर समय कोरोनाकाल में गुजर गया। आखिर पार्टी भी टूट गई। बुरी हार का सामना भी करना पड़ा और सबसे ज्यादा घाटे में उद्धव ठाकरे ही रहे। चुनाव परिणाम तो यही बताते हैं कि उद्धव ठाकरे अपने पिता बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत की जबरन हकदार बने हुए थे।

महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम के बाद कांग्रेस में इस बात को लेकर काफी बेचैनी है कि जो टेंपो लोकसभा चुनाव में बना था, वह मिट्टी में मिल गया। अब आगे दिल्ली का चुनाव है। उसमें संभावनाएं इतनी ज्यादा साफ नहीं है जितना महाराष्ट्र में दिखाई दे रहा था। कांग्रेस उद्धव और शरद पवार यह मानकर चल रहे थे कि महाराष्ट्र में उनकी सरकार आने वाली है। मतगणना के समय तक उनका यही आकलन था, लेकिन ज्यों-ज्यों परिणाम आगे बढ़े, इन दलों के नेताओं को यह समझ में आ गया कि लोकसभा चुनाव के सिर्फ 5 महीने के अंदर बाजी पलट चुकी है, लेकिन कैसे? पार्टी उसको लेकर असंमजस की स्थिति में थी। बेचैनी इस कदर आगे बढ़ी कि शिवसेना उद्योग गुट के सांसद संजय रावत मतगणना के दो घंटे बाद ही प्रेस के सामने आ गए और नतीजे को नकार दिया। उन्हें लगा की जनता तो उनके साथ थी लेकिन यह क्या हो गया।

बीजेपी : कोई नहीं है टक्कर में
लोकसभा चुनाव में सफलता मिलने के बाद कांग्रेस का जो गुब्बारा फूल गया था उसकी एक बार फिर हवा निकल गई। हरियाणा के बाद महाराष्ट्र में करारी हार ने पूरे कांग्रेस नेतृत्व को बेचैन कर दिया है। वास्तव में महाराष्ट्र के परिणाम यह संकेत भेजने के लिए काफी हैं कि फिलहाल देश की राजनीति में बीजेपी का कोई विकल्प नहीं है। अब सवाल यह उठ रहा है कि आने वाले दिनों में और देश की राजनीति में महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम का क्या असर होगा। वास्तव में लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस उस स्थिति में पहुंच गई थी कि यहां पर वह दबाव की राजनीति नहीं कर सकेगी। यह संदेश गया था कि कांग्रेस सत्ता में लौट सकती है और इसके लिए उसकी तैयारी भी पूरी है। लेकिन पहले हरियाणा की हार और फिर महाराष्ट्र की पराजय ने सारे समीकरणों को ही बदल डाला। नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि फिलहाल बीजेपी को कोई चुनौती नहीं दे पा रहा है। कांग्रेस यह समझ रही थी की हरियाणा में थाली सजाकर उसे जीत मिल जाएगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। राजनीति प्रेक्षक मानते हैं कि महाराष्ट्र की जीत में लाडली बहन जैसी योजना का पूरा असर हुआ है। महिलाओं के खाते में रुपए डालने से भारतीय जनता पार्टी महाराष्ट्र में जीती और झारखंड में झामुमो गठबंधन चुनाव जीत गया, लेकिन यह आकलन जल्दबाजी में किया गया लगता है। हरियाणा में ऐसा कोई लालच नहीं था जो बीजेपी को सत्ता तक ले आए।

वास्तव में हरियाणा में तो कांग्रेस ने लोगों के लिए खजाना खोलने के दावे किए थे। इसके बावजूद कांग्रेस हरियाणा में बुरी तरह हार गई। यदि बहुत गहराई से अध्ययन किया जाए तो महाराष्ट्र में लाडली बहना जैसी योजना का असर तो पड़ा लेकिन वहां पर सबसे ज्यादा असर भाजपा की रणनीति का भी था। उससे भी ज्यादा असर संघ परिवार का चुनावी मैदान में कूदकर प्रचार का था। महाराष्ट्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लगभग 60 हजार कार्यकर्ता घर-घर जाकर प्रचार कर रहे थे, उनके लिए या करो या मरो की लड़ाई थी। स्वयं भाजपा नेतृत्व भी इस बात को समझ रहा था। इसलिए व्यूह रचना भी बहुत जबरदस्त की गई थी। अब आने वाले दिनों में भाजपा नेतृत्व को पूरा मौका मिल गया है कि वह अपने पूरी चुनावी रणनीति को एक बार फिर दुरुस्त करें। वास्तव में महाराष्ट्र में विपक्ष के सामने एक बड़ा संकट पैदा हो गया है और देश में कांग्रेस के सामने यही संकट है। महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव परिणामों ने कुछ संकेत छोड़ दिए हैं। महाराष्ट्र में भाजपा का स्ट्राइक रेट लगभग 89 परसेंटेज रहा, यह बहुत बड़ी सफलता है और आश्चर्यजनक भी, जबकि कांग्रेस सिर्फ 16 प्रतिशत सफलता पर सिमट गई। शिंदे की शिवसेना को 57 सीटें मिलीं और उसका भी स्ट्राइक रेट लगभग 70 प्रतिशत रहा। अजीत पवार गुट के एनसीपी का स्ट्राइक रेट लगभग 75 प्रतिशत रहा। यह परिणाम एक तरफ महाराष्ट्र के दोनों दलों के लिए बहुत ही अच्छा संकेत है। वही उद्धव गुट शिवसेना और शरद पवार की पार्टी के लिए संकट का कारण बन गए हैं। वास्तव में राजनीति के इस धुरंधर नेता शरद पवार के पास इतना मौका नहीं है कि वह पार्टी को फिर से मजबूत कर सकें क्योंकि अब महाराष्ट्र में पांच साल बाद ही चुनाव होंगे। लगभग 40 साल तक महाराष्ट्र की राजनीति के छत्रप रहे शरद पवार की शिवसेना एनसीपी क्या और भी बिखर जाएगी? उद्धव गुट की शिवसेना तो अब एकजुट हो पाएगी, यह कहना कठिन है।

कांग्रेस फिर हाशिए पर
लेकिन कांग्रेस के सामने एक बड़ा देशव्यापी संकट है। वास्तव में उसके साथी दलों ने यह महसूस कर लिया है कि कांग्रेस उन्हें जीत नहीं दिला सकती। इसके कारण अब कांग्रेस पर दबाव आ गया है। क्षेत्रीय दल कांग्रेस को नेता मानेंगे, इसको लेकर संदेह है। तमाम सवाल उभर रहे हैं, क्या उसके सहयोगी दल अब अभी भी कांग्रेस के साथ जुड़े रहेंगे? शायद नहीं। आम आदमी पार्टी पहले से ही दिल्ली में कांग्रेस से अलग हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने 9 सीटों में से कांग्रेस को एक सीट भी नहीं दी और वह सभी सीटों पर चुनाव लड़ी। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी अपने को इंडिया खेमे में मानती है लेकिन कांग्रेस से दूरी बनाए हुए हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि कांग्रेस को साथ लेने से कोई फायदा नहीं है। कमोबेश यही हाल हर दल का है जो कांग्रेस से जुड़ा हुआ है। वास्तव में चुनाव परिणाम यह बताते हैं कि कांग्रेस वही पर मजबूती से लड़ पाती है, जहां पर वह क्षेत्रीय दल के कंधे पर सवार है। लेकिन जहां पर उसे अकेले बीजेपी से लड़ना होता है, वहां पर वह बुरी तरह मात खा जाती है। अब क्षेत्रीय दल इस बात पर गहराई से विचार कर रहे हैं कि कांग्रेस को कंधे पर बैठाकर चुनाव लड़ा जाए या नहीं। फिर ज्यादातर चुनाव में यह देखा गया है कि कांग्रेस अपने सहयोगी दलों की हार का कारण भी बन जाती है। इसलिए एक नई चर्चा शुरू हो चुकी है कि सहयोगी दल कोई नया मोर्चा बना लें और महाराष्ट्र के चुनाव के बाद असर पैदा हो रहा है कि कांग्रेस अब अपनों के बीच ही संदेह के घेरे में है। वास्तव में यदि सहयोगी दलों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा तो वह कुछ राज्यों में सिमट कर रह जाएगी, जहां पर वह सीधे चुनाव लड़ सकती है। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना आदि राज्य शामिल है और यह कांग्रेस के लिए बहुत घातक साबित होगा। कांग्रेस इस खतरे को भांप रही है। ईवीएम को लेकर जो आंदोलन शुरू करने की बात कांग्रेस कर रही है, उसके पीछे यही रणनीति है कि किसी तरह सहयोगी दलों को जोड़कर रखा जाए। साफ है कि महाराष्ट्र परिणाम के संकेत और संदेश दूर तक गए हैं।

आने वाले दिनों में इसका असर और भी दिखेगा। दूसरी ओर भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव बहुत असरकारी साबित हुए हैं। कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों को उम्मीद थी कि हरियाणा और महाराष्ट्र की हार के बाद अन्य सहयोगी दल भाजपा से दूर हटने की कोशिश करेंगे लेकिन अब भाजपा गठबंधन और भी मजबूत हो गया है। संदेश यही गया है कि चुनाव जीतने की सबसे मजबूत संगठन बीजेपी है। विपक्षी बिहार पर विशेष नजर गड़ाए थे लेकिन वहां पर भाजपा और जदयू ने जो भारी सफलता पाई है, उससे यह गठबंधन मजबूत हो गया है। दूसरी ओर झारखंड में जो कांग्रेस गठबंधन को सफलता मिली है, इसका श्रेय झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ले गए हैं, और वास्तव में वह इसके हकदार भी हैं। यह संकेत बहुत साफ है कि वहां पर झारखंड मुक्ति मोर्चा और उसके सहयोगी दलों यानी कांग्रेस की जो जीत हुई है, उसके पीछे हेमंत सोरेन और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन की कड़ी मेहनत और रणनीति है और हेमंत सोरेन इसको कहने में कोई गुरेज भी नहीं कर रहे हैं। शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने के लिए निमंत्रण पत्र देने हेमंत सोरेन अपनी पत्नी के साथ प्रधानमंत्री से मिलने गए। यही नहीं, मंत्रिमंडल विस्तार में भी वह कांग्रेस के दबाव में नहीं है। वह कांग्रेस को जो दे देंगे, वह कांग्रेस लेने को मजबूर है।

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