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सियासत के धूमकेतु बन कर उभरे धामी

पुरानी सदी के आखिरी साल में उत्तराखंड का जन्म हुआ लेकिन ग्रह नक्षत्रों का खेल देखिए, यह छोटा सा सूबा एक लंबी सियासी अस्थिरता की भेंट चढ़ गया। ऐसे में उत्तराखंड के राजनीतिक क्षितिज पर पुष्कर सिंह धामी एक धूमकेतु बन कर उभरे। नई युवा दृष्टि, नया विज़न और नई इच्छा शक्ति से उत्तराखंड तरक्की की नई डगर पर चल निकला है। उत्तराखंड भ्रष्टाचार के दलदल से बाहर निकला है, समान नागरिक संहिता, सख्त नकलविरोधी कानून देशभर में एक नज़ीर बन गए। धामी की कम बोलने और ज्यादा करने की अनूठी कार्यशैली ने उत्तराखंड के जनमानस को यकीन दिला दिया है कि उत्तराखंड की बागडोर सही और सशक्त हाथों में सौंपी गई है। अब इस यकीन को बनाए रखना ही उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। मौजूदा सदी में उत्तराखंड की 24 साल की विकास यात्रा का ब्योरा दे रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत।

हिमालय जैेसे जुझारु राज्य उत्तराखण्ड ने संसाधनों की कमी, राजनीतिक अस्थिरता, विषम भौगोलिक परिस्थितियों और एक के बाद एक आपदाओं के बावजूद अपने जन्मकाल से लेकर अब तक तरक्की की लम्बी पींगे भरी हैं। हिमाचल प्रदेश न केवल भौगोलिक दृष्टि से बल्कि सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से भी उत्तराखण्ड का सहोदर रहा है। इसलिए नये राज्य के लोग सदैव हिमाचल जैसे बनने की कामनाएं करते रहे हैं। और सुखद यह है कि उत्तराखण्ड इन 24 वर्षों में ही कुछ क्षेत्रों में हिमाचल प्रदेश से आगे निकल चुका है। हालांकि कार्य संस्कृति उत्तराखण्ड को हिमाचल से मिलने के बजाय अपने पैतृक राज्य उत्तर प्रदेश से मिली है जिससे निजात नहीं मिल पा रही है। कुछ क्षेत्रों में अब तक की सरकारें जनभावनाओं पर खरी नहीं उतरी पायीं। जैसे शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा, स्थाई राजधानी, पहाड़ के लोगों की जमीनें बचाने के लिए सशक्त भूमि कानून और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने वाले लोकायुक्त का गठन। वर्तमान युवा मुख्यमंत्री कुछ नया कर गुजरने को आतुर लगते हैं। इस दिशा में उन्होंने कई ऐसे प्रयास किये हैं जो कि अन्य भाजपा शासित राज्यों के लिए नज़ीर भी बन रहे हैं। फिर भी इस राज्य में अभी बहुत कुछ किये जाने की ज़रूरत है, क्योंकि यहां की परिस्थितियां मैदानी राज्यों से भिन्न हैं और शायद यही समझाने के लिये प्रदेश में भू-कानून और संविधान की पांचवीं अनुसूची की मांग की जा रही है।

अस्थिरता का दौर
उत्तराखण्ड राज्य का जन्म पैतृक राज्य से मिले राजस्व घाटे और कर्ज के बंटवारे के साथ हुआ था। नये राज्य के गठन की तात्कालिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बैंकों से ओवर ड्राफ्ट से काम चलाया गया था। मुझे याद है कि उत्तराखण्ड आन्दोलन के दौरान राज्य विरोधी पक्ष हमसे पूछा करता था कि अगर राज्य मिल भी गया तो नया राज्य कंगाली में पैदा होगा और बिना संसाधनों के कंगाली में ही मर जायेगा। लेकिन हमारी उम्मीद उत्तराखण्ड के प्राकृतिक संसाधनों और अन्य हिमालयी राज्यों के लिए विशेष प्रावधानों पर थी। वह इसलिए कि यह हिमालयी राज्य न केवल देश के सीमान्त प्रहरी हैं, बल्कि एशिया महाद्वीप के पर्यावरण के रखवाले भी हैं। लेकिन बदकिस्मती से प्रदेश का राजनीतिक चरित्र जन भावनाओं पर खरा नहीं उतरा। पदलोलुपता, सिद्धान्तहीनता और अवसरवादिता के कारण राजनीति का स्तर जन अपेक्षाओं केअनुकूल नहीं रहा। इसी कारण केवल 24 वर्षों में 10 नेता 13 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। जबकि पड़ोसी राज्य हिमाचल प्रदेश में पांच दशकों से अधिक समय में केवल 7 नेता मुख्यमंत्री बने। लेकिन अब यह क्रम टूटा है। पिछले दो टर्म से सूबे में बीजेपी की सरकार है। इस करिश्मे का सेहरा युवा नेता धामी के सिर बंधा।

विकास की दिलचस्प यात्रा
1 जनवरी 2007 को उत्तराचंल से उत्तराखण्ड बने इस नये राज्य की विकास की कहानी भी कुछ कम रोचक नहीं। राज्य गठन के समय 16 हजार से अधिक गांवों में से लगभग 12 हजार गांवों तक बिजली पहुंची थी और विकास की यह यात्रा लगभग समूचे उत्तराखंड के शत-प्रतिशत गांवों तक बिजली ले गयी है। अब यह बात दीगर है कि बिजली गांवों में कितनी देर तक और कितने दिनों तक टिकी रहती है। यही स्थिति पीने के पानी की भी है। सरकार की ओर से सभी गांवों तक पीने का पानी पहुंचा दिया गया है। जल जीवन मिशन ने तो पानी केकनेक्शन दो साल पहले हर घर पहुंचा दिये थे। अब नल पहुंचाने का काम तेजी से चल रहा है। राज्य गठन के समय 1999-2000 में राज्य के नागरिकों की प्रति व्यक्ति आय केवल 14,808 रुपए थी। 2021-22 में राज्य की प्रति व्यक्ति आय 2,05,000 रुपये थी जो कि 2022-23 में छलांग लगाकर 2,60,000 तक पहुंच गयी। यानी पिछले दो वर्षों में राज्य की प्रति व्यक्ति आय 26 प्रतिशत बढ़ी है, जो औसत राष्ट्रीय आय से बेहतर है। लेकिन समृद्धि की यह छलांग देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और उधमसिंहनगर के अलावा पहाड़ तक अपेक्षित गति से नहीं चढ़ पा रही है। अलग राज्य की मांग उत्तराखण्ड हिमालय के भले के लिए की गयी थी। पहाड़ी जिलों में मनरेगा की रोजगार गारंटी योजना के बावजूद प्रति व्यक्ति आय पहाड़ में एक लाख तक पहुंचने में हांफ रही है। रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी और चम्पावत जैसे जिलों में प्रति व्यक्ति आय एक लाख से कम है। जबकि हरिद्वार में प्रति व्यक्ति आय 3 लाख तक पहुंच गयी है। औद्योगीकरण आदि के कारण उत्तराखण्ड की जो राज्य आय 2000 में 11,60,669 लाख रुपये थी, वह 2023 में 2,70,63,195 करोड़ तक पहुंच गयी। प्रदेश को वर्ष 2000-01 में 2821,20,81,000 की राजस्व प्राप्ति थी जो 2023 तक 43056.99 करोड़ तक पहुंच गयी।

उद्योग-धंधे बढ़े
हमें याद है कि राज्य गठन के बाद नारायण दत्त तिवारी के नेतृत्व में गठित पहली निर्वाचित सरकार ने जब काम शुरू किया तो उस समय बैंकों का सीडी रेशियो यानी कि कर्ज-जमा अनुपात केवल 19 था जो कि अब 50 क्रास कर गया है। यानी कि बैंक ग्राहकों से अपनी जितनी पूंजी जमा कराते हैं उसका एक हिस्सा कर्ज के रूप में वापस समाज को दे देते हैं। इसी नीति के तहत औद्योगिक विकास हुआ और लोगों के व्यवसाय में वृद्धि हुई। इसका परिणाम भी दिखा। राज्य गठन के समय उत्तरांचल में कुल वृहद एवं मध्यम उद्योगों की संख्या मात्र 191 थी जिनमें से 122 ही कार्यशील थे जबकि 69 बंद थे। लेकिन सरकार के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में 2022-23 तक सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों की संख्या 79,445 हो गई। राज्य में 329 बड़े उद्योग स्थापित हो चुके हैं जिनमें हजारों लोगों को रोजगार मिला हुआ था।

औद्योगीकरण और सरकारी प्रयासों के बावजूद राज्य में बेरोजगारी घटने के बजाय बढ़ती जा रही थी। राज्य गठन के समय लगभग 3 लाख पंजीकृत बेरोजगार थे, यह संख्या 2023 तक 8.8 लाख तक पहुंच गयी है। पिछले कुछ वर्षों में उत्तराखंड में बेरोजगारी दर 4.5 दर्ज की गई है, जो राष्ट्रीय औसत 3.2 से अधिक थी। लेकिन अब हालात में बदलाव दिख रहा है। उत्तराखंड में बीते एक साल के दौरान युवा बेरोजगारी में 4.4 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) रिपोर्ट के मुताबिक सभी आयु वर्गों में इसकी दर 4.5 फीसदी से घटकर 4.3 प्रतिशत पर आ गई है। 15-29 वर्ष के आयु वर्ग में 14.2 से घटकर 9.8 प्रतिशत पर आ गई है। उत्तराखंड ने राष्ट्रीय औसत को भी पीछे छोड़ दिया है। बेशक यह सरकार के लिए कामयाबी है लेकिन अभी उसे लंबा सफर तय करना है।

मजबूत भू-कानून की ज़रूरत
पहली निर्वाचित सरकार ने 2003 में जनता की भारी मांग पर जमींदार विनाश एवं भूमि व्यवस्था अधिनियम की 154, 129 और 143 जैसी धाराओं में संशोधन कर नया भू-कानून बनाया था। हालांकि उसमें धारा 2 जोड़कर उसी सरकार ने अपने ही भू-कानून में स्वयं ही बड़ा छेद कर डाला था और नगरीय क्षेत्रों को उस कानून की बंदिशों से आजाद कर दिया था। लेकिन गैर कृषकों और भू-खोरों द्वारा लोगों की जमीनों को हड़पने पर थोड़ा बहुत अंकुश फिर भी था। लेकिन 2018 के बाद औद्योगीकरण के नाम पर उस कानून को तार-तार कर लगभग निष्प्रभावी बना दिया गया। एक मजबूत भू-कानून की मांग न केवल पहाड़ियों की जमीनें बचाकर उनकी पीढ़ियों के सतत आजीविका के साधन को बचाने के लिए थी अपितु लोग अपनी सांस्कृतिक पहचान भी बचाना चाहते थे। अब उम्मीद की जानी चाहिये कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी एक सशक्त कानून जरूर बनायेंगे जो भूमि सुधार के भी काम आये। वे इसका वायदा भी कर चुके हैं। हम अगर उत्तराखण्ड राज्य के पिछले 24 वर्षों पर सरसरी नज़र डाल रहे हैं तो मौजूदा सरकार के अच्छे-बुरे कामों को खंगालना भी जरूरी हो जाता है। इस सरकार की भी विपक्ष द्वारा काफी आलोचना होती रही है। खासकर अंकिता भण्डारी हत्याकांड में सरकार की काफी किरकिरी हुई है जबकि मुख्य आरोपियों को तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया था जो कि अभी तक जेलों में हैं।

मुश्किलों का पहाड़
शिक्षा और स्वास्थ पर सरकार का इतना भारी भरकम बजट खर्च होने पर भी हालात पूरी तरह काबू में नहीं आ सके हैं। सड़कों पर गर्भवती महिलाओं द्वारा बच्चे जनने और अस्पतालों की दुर्दशा के समाचार इन 24 वर्षों में सुर्खियों में रहे। पलायन की स्थिति में फर्क केवल इतना है कि पहले लोग आजीविका के लिए दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों का रुख करते थे लेकिन अब राज्य के अन्दर ही कस्बों, नगरों और महानगरों में रोजगार तलाशने के साथ ही वहीं बस भी रहे हैं। पहाड़ी नगर पलायन के बोझ तले दबे जा रहे हैं जिसका ज्वलंत उदाहरण जोशीमठ और कर्णप्रयाग जैसे खिसकते नगर हैं। अगर गांवों में सब कुछ ठीक ठाक है तो लोग गांव छोड़कर निकटवर्ती कस्बों में क्यों बस रहे हैं? इसका जवाब सीधा सा है। हर कोई बेहतर जीवन की चाह रखता है। जाहिर है हमारे पहाड़ी गांव आज भी अपेक्षित सुविधाओं से वंचित हैं। पलायन आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, 2008 से 2018 तक की दस वर्षों की अवधि में 1,18,981 लोगों ने अपने गांवों से स्थायी रूप से पलायन किया था। वहीं, 2018 से 2022 तक की अवधि में 28,531 लोग स्थायी रूप से पलायन कर चुकेहैं। इस प्रकार, 2008 से 2022 तक के 14 वर्षों में कुल 1,47,512 लोग उत्तराखंड से स्थायी रूप से पलायन कर चुके हैं। भूतिया गांवों की संख्या में भी वृद्धि हो रही है। पलायन आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. एसएस नेगी के अनुसार, 2008-2018 की अवधि में 3,83,726 लोगों ने अस्थायी पलायन किया, जबकि 2018-2022 की अवधि में यह संख्या 3,07,310 रही।

यह सही है कि उत्तराखण्ड राज्य ने इन 24 वर्षों में विकास की लम्बी छलांगें लगाई हैं लेकिन कई सवाल हैं जो कि अभी तक अनुत्तरित हैं। कई ऐसी अपेक्षाएं हैं जिनसे राज्य की सरकारें कतराती रही हैं। दो दशक से अधिक समय बीत गया मगर उत्तराखंड की स्थाई राजधानी बननी तो रही दूर, उस पर जनता को केवल गुमराह ही किया जाता रहा है। भराड़ीसैण में ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दी मगर वहां कभी कभार शीतकाल में दो तीन दिन तक ही सत्र चल पाता है और विधायक तथा सरकार ठंड से ठिठुरा कर देहरादून भाग आते हैं। ग्रीष्मकाल में वहां सत्र न चलाने के पीछे चारधाम यात्रा की व्यवस्थाओं में सरकारों का व्यस्त रहना माना जाता है। राजधानी का मतलब केवल दो-तीन दिन विधानसभा सत्र चलाना नहीं बल्कि वहां सचिवालय समेत विधिवत सरकार चलाना होता है। वैसे भी कर्ज तले दबा जा रहा उत्तराखण्ड दो-दो राजधानियों का बोझ कैसे झेल पायेगा?

कब मिलेगा लोकायुक्त
राज्य के दोनों ही बड़े राजनीतिक दल एक-दूसरे पर घोटालों के आरोप लगाते रहते हैं। विपक्ष में बैठने वाला दल सदैव सत्ताधारी दल पर अपने दल के भ्रष्टाचारियों को बचाने के आरोप लगता रहा है। इसी सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रीय राजमार्ग घोटाले समेत विभिन्न घोटालों का पर्दाफाश होने के साथ ही सरकार ने कई पीसीएस और आईएफएस रहे अफसरों को जेल में डाला। मगर जब मंत्रियों पर उंगली उठती है तो कानून के हाथ बौने हो जाते हैं। अगर राज्य में लोकायुक्त होता तो आम नागरिक भी किसी भी बड़ी हस्ती के खिलाफ जांच बिठवा सकता था। इसी सरकार ने राज्य के दो आला आईएएस अफसरों को जेल भिजवाने की तैयारी कर ली थी। राज्य सरकार की जांच में वे दोषी पाये गये थे। उन्हें सस्पेंड तक किया गया, मगर उनके खिलाफ मुकदमा चलाकर उन्हें कानून के हवाले करने की अनुमति केन्द्र से नहीं मिली। अगर लोकायुक्त होता तो दोनों आईएएस जेलों में होते। राज्य सरकार द्वारा दोषी और घोटालेबाज करार दिये जाने के बावजूद सरकार उनका बाल बांका नहीं कर सकी और उन्हें फिर महत्वपूर्ण जि़म्मेदारियां देनी पड़ी। चाहे सरकार किसी भी पार्टी की रही हो मगर मंत्रियों के खिलाफ शुरू से घोटालों के आरोप लगते रहे हैं। बिडम्बना ही है कि तिवारी सरकार के बाद कोई भी सरकार अपने विवादित मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई नहीं कर सकी। उत्तराखंड में बिना नाखून और बिना दांत वाला लोकायुक्त तो था ही लेकिन गत 2013 से करोड़ों रुपयों की बर्बादी कर वहां कार्यालय तो चल रहा है मगर लोकायुक्त नहीं है। जबकि उत्तराखण्ड देश का पहला राज्य था जिसने संसद द्वारा पारित मॉडल पर लोकायुक्त कानून बनाया था। अब धामी सरकार ने लोकायुक्त के गठन की प्रक्रिया शुरू कर दी है।

उम्मीद की किरण
तमाम आलोचनाओं के बावजूद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में राज्य सरकार ने पिछले सात वर्षों में कई ऐतिहासिक कदम उठाए हैं, जिनसे राज्य के विकास और नागरिक कल्याण में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। एक के बाद एक नकल घोटालों के उजागर होने के बाद धामी सरकार ने भर्ती परीक्षाओं में पारदर्शिता और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए सख्त नकल विरोधी कानून लागू किया। ऐसा करने वाला उत्तराखंड देश का पहला राज्य बना। इस कदम ने परीक्षा प्रक्रियाओं में सुधार लाने के साथ-साथ योग्य उम्मीदवारों को न्याय दिलाने में मदद की है। धामी सरकार का समान नागरिक संहिता का ऐसा मास्टर स्ट्रोक था जो कि आज सारे देश के लिए एक नज़ीर बन गया। उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है, जिसने समान नागरिक संहिता का कानून बना लिया है। जनवरी में ही इस कानून को लागू करने का निर्णय लिया गया है। इस नीति का मकसद सभी नागरिकों के लिए समान कानून सुनिश्चित करना है, जिससे सामाजिक समानता और एकता को बढ़ावा मिलेगा। प्रधानमंत्री और केन्द्रीय गृहमंत्री से शाबाशी मिलने के बाद गृहमंत्री संसद में घोषणा कर चुके हैं कि उत्तराखण्ड की पहल के बाद यह संहिता अगली बार पूरे देश में लागू होगी। लेकिन मौलिक अधिकारों के बीच में आने के कारण इस कानून को संभवत: अभी संविधान की कसौटी पर भी परखा जाना है। धामी सरकार ने प्रदेश की महिलाओं को सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत क्षैतिज आरक्षण देने का प्रावधान किया है, जिससे महिला सशक्तिकरण को बल मिला है और राज्य की महिलाओं को रोजगार के अधिक अवसर प्राप्त हुए हैं। पर्यटन की दिशा में भी बेहतर काम हो रहे हैं। शीतकालीन पर्यटन एक नया प्रयोग है जो धामी सरकार करने जा रही है। उत्तराखंड में स्थित चारों धामों के कपाट शीतकाल के लिए बंद होने के बाद अब सरकार ने शीतकालीन पर्यटन केलिए कमर कसी है।

चारों धामों के शीतकालीन गद्दीस्थलों ऊखीमठ, ज्योतिर्मठ, मुखबा व खरसाली अब सर्दियों में भी गुलजार होंगे। टिम्मरसैंण महादेव की यात्रा भी पर्यटकों को अपनी तरफ खींचेगी। विश्व प्रसिद्ध हिम क्रीड़ा केन्द्र औली में स्कीइंग और नैनीताल व मसूरी जैसे शहरों में शरदोत्सव के आयोजनों की रूपरेखा तैयार की जा रही है। बेशक इसके बेहतर नतीजे निकलेंगे। जबरन और प्रलोभन देकर धर्मांतरण पर रोक लगाने के लिए धामी सरकार ने सख्त कानून लागू किया। इस पहल का मकसद धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा और सामाजिक शांति बनाए रखना है। उत्तराखण्ड में गरीब और जरूरतमंद अंत्योदय परिवारों को साल में तीन मुफ्त गैस सिलेंडर प्रदान किए जा रहे हैं, जिससे उनके जीवन स्तर में सुधार हुआ है। राज्य सरकार ने तीन वर्षों में 17,000 से अधिक सरकारी नौकरियां प्रदान की हैं, जिससे बेरोजगारी में कमी आई है और युवाओं को रोजगार के अवसर मिले हैं। उत्तराखंड देश का पहला राज्य बना जिसने नई शिक्षा नीति 2020 को सबसे पहले लागू किया। यह कदम शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार और सुधार लाने के उद्देश्य से उठाया गया है। यही नहीं, उत्तराखंड देश का पहला राज्य है जिसने सकल पर्यावरण उत्पाद को मापने की शुरुआत की। यह पहल राज्य के प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरण संरक्षण के प्रति सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाती है।

इस सरकार ने सड़कों और हाईवे पर सुरक्षा के उपाय बढ़ाए हैं। सरकार ने सार्वजनिक सेवाओं में पारदर्शिता और दक्षता बढ़ाने के लिए डिजिटल प्रौद्योगिकी का उपयोग किया है। धामी सरकार ने सड़कों, पुलों और हाईवे के निर्माण में बड़े निवेश किए। साथ ही राज्य में पर्यटन और कृषि को बढ़ावा देने के लिए नई नीतियां लागू की गईं। सकल पर्यावरण उत्पाद मापन न केवल भारत में बल्कि विश्व स्तर पर एक नई दिशा दिखाने वाला कदम है। धामी सरकार की इन ऐतिहासिक उपलब्धियों ने उत्तराखंड को एक नई पहचान दी है और अन्य राज्यों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हैं। राज्य सरकार ने वर्ष 2025 तक उत्तराखण्ड को देश का अग्रणी राज्य बनाने का संकल्प लिया गया है। इसकेलिए दिसम्बर 2022 में मसूरी में आयोजित ‘चिंतन शिविर’ में राज्य के विकास के लिए गहन मंथन किया गया। इस शिविर में धामी सरकार के मंत्रियों और वरिष्ठ अधिकारियों ने मिलकर उत्तराखंड के समग्र विकास के लिए नई नीतियों और योजनाओं पर विचार-विमर्श किया। इसमें प्रशासनिक सुधार, पर्यावरण संरक्षण, और युवाओं को रोजगार के अधिक अवसर प्रदान करने पर विशेष ध्यान दिया गया। चिंतन शिविर ने सरकार की नीतियों को नई दिशा और गति प्रदान की। चिन्तन शिविर के मंथन के परिणाम स्वरूप राज्य में नीति आयोग की तर्ज पर ‘स्टेट इन्स्टिट्यूशन फॉर इम्पावरमेंट एण्ड ट्रांस्फॉर्मिंग उत्तराखण्ड (सेतु) का गठन किया गया है। बेशक इसके दूरगामी नतीजे निकलेंगे जो नई सदी के आने वाले दशकों में दिखेंगे।

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