राजकीय अवकाश घोषित कर दिया था बड़ा संदेश
देहरादूनः उत्तराखंड के पारंपरिक लोकपर्व ’इगास’ को राज्य के कैलेंडर में एक विशेष पहचान दिलाने का श्रेय मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को जाता है। यह पर्व, जिसे छोटी दिवाली या बूढ़ी दिवाली भी कहा जाता है, सदियों से उत्तराखंड के पहाड़ों में श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता रहा है, लेकिन इसे राजकीय सम्मान धामी सरकार के प्रथम कार्यकाल (2021) में मिला। वर्ष 2021 में, जब पुष्कर सिंह धामी ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना पहला कार्यकाल संभाला था, तब उन्होंने राज्य की संस्कृति और विरासत के प्रति अपनी गहरी निष्ठा का परिचय दिया। इगास पर्व के ठीक पहले पुष्कर सिंह धामी ने एक बड़ा और ऐतिहासिक फैसला लेते हुए घोषणा की कि इगास के दिन राज्य में सार्वजनिक अवकाश रहेगा। पहले इस त्योहार को गढ़वाल के जिलों में ही उत्साह के साथ मनाया जाता था, लेकिन वर्ष 2021 के बाद पूरे प्रदेश में इसे धूमधाम से मनाया जाने लगा।

इस लोक पर्व के और अधिक स्वीकारिता मिले इसके लिए पुष्कर सिंह धामी सरकार ने इस बार प्रत्येक जिले में इसे सरकारी तौर पर आयोजित कराने का निर्णय लिया। इस बार सभी जिला मुख्यालयों में इसे मनाया गया। रुद्रप्रयाग के गुलाबराय क्रीड़ा मैदान में जिला प्रशासन के तत्वाधान में भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया। इस दौरान डीएम प्रतीक जैन का गढ़वाली में संबोधन सबसे खास रहा। जिलाधिकारी रुद्रप्रयाग प्रतीक जैन ने अपने संबोधन की शुरुआत गढ़वाली बोली में करते हुए कहा कि, आज उत्तराखंड कु संस्कृति कु संगम ईगास पर्व च. आज अपनी पहाड़ी संस्कृति एवं लोक परंपरा ते याद करणों कु दिन च. आज का दिन मा अपनु पुर्खों की याद मा घर घर मा दीप जालोंण च. यू पर्व अपनु सामूहिक एकता, प्यार, अपनु संस्कार अपनी पहचान कु दिन च. मैं बाबा केदार से प्रार्थना करदू कि बाबा सबू तै सुखी राजी खुशी रखया’। जिलाधिकारी ने इस मौके पर जनता को यह भी बताया सीएम धामी ने खुद इगास के मौके पर रुद्रप्रयाग पहुंच आपदा प्रभावितों के आंसू पोछे हैं और जनता को इस पर्व की शुभकामनाएं दी।

इसके अलावा टिहरी की जिलाधिकारी नितिका खंडेलवाल भी पारंपरिक रूप से भैलो खेलतीं नजर आईं। संस्कृति का सम्मानः यह पहली बार था जब राज्य सरकार ने इस पर्व के महत्व को आधिकारिक रूप से पहचान दी। इसने गढ़वाल और कुमाऊं दोनों क्षेत्रों के लोगों में अपनी संस्कृति के प्रति गर्व की भावना को बल दिया।
लोक संस्कृति का प्रचारः धामी जी ने स्वयं लोगों से इस दिन पारंपरिक पकवान बनाने, लोकगीत गाने और ’भैलो’ (पारंपरिक मशाल) खेलने की अपील की। इससे सोशल मीडिया और मुख्यधारा मीडिया में इगास की चर्चा बढ़ी और यह पर्व राष्ट्रीय स्तर पर भी ध्यान आकर्षित करने लगा।

जड़ों से जुड़ावः अवकाश मिलने से नौकरीपेशा लोग, जो पर्वतीय क्षेत्रों से दूर रहते हैं, उन्हें भी अपनी जड़ों और गांव लौटकर इस अनूठे त्योहार को मनाने का मौका मिला। इगास पर्व की पहचान को इस तरह राष्ट्रीय पटल पर लाने के लिए मुख्यमंत्री धामी के इस निर्णय को उत्तराखंड की लोक संस्कृति को बढ़ावा देने की दिशा में एक मील का पत्थर माना जाता है। यह केवल एक दिन का अवकाश नहीं था, बल्कि उत्तराखंड की गौरवशाली परंपरा को सम्मान देने का एक महत्वपूर्ण सरकारी प्रयास था।

वर्ष 2023 में सीएम धामी ने सिलक्यारा टनल में फंसे श्रमिकों के साथ मनायी थी इगास
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी आम आदमी के सुख दुख में किस प्रकार शामिल होते हैं इसका उदाहरण है वर्ष 2023 में जब दीपावली के दिन उत्तरकाशी के सिलक्यारा में 41 श्रमिक 17 दिन तक टनल में फंसे गए तो सीएम ने फिर इगास नहीं मनायी और जब सभी श्रमिक सुरक्षित बाहर निकाले उसके बाद सीएम पुष्कर सिंह धामी ने अपने आवास पर इगास मनायी।
इसे लेकर कहा जा सकता है कि धामी सुख दुख में आम जनता के बीच हमेशा खड़े रहते हैं। बताते चलें कि 2023 में सीएम पुष्कर सिंह धामी ने इगास के दिन अपने आवास पर कार्यक्रम नहीं मनाया, बल्कि जब श्रमिक सुरक्षित बाहर लौट आए, उसके बाद सभी श्रमिकों को अपने आवास पर आमंत्रित किया। इसके बाद उनके साथ इगास पर्व मनाया था।

इगास पर्वः इतिहास और अनूठी लोक कथाएँ
इगास पर्व के इतिहास को लेकर दो मुख्य लोक कथाएँ उत्तराखंड में प्रचलित हैंः
वीर भड़ माधो सिंह भण्डारी की कथा (ऐतिहासिक महत्व)

यह कथा इगास के सबसे प्रमुख कारण के रूप में जानी जाती है और इसे दिवाली के ग्यारह दिन बाद मनाने की वजह बताती हैः युद्ध से देरीः माना जाता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष का वनवास काटकर अयोध्या लौटे थे, तब उत्तराखंड के लोगों को इसकी खबर देरी से मिली। वहीं, एक अन्य लोकप्रिय कथा गढ़वाल के महान सेनापति और लोकनायक माधो सिंह भण्डारी से जुड़ी है।

सेनापति की वापसीः सेनापति माधो सिंह भण्डारी गढ़वाल के राजा के लिए तिब्बत सीमा पर एक महत्वपूर्ण युद्ध लड़ने गए थे। उन्होंने युद्ध जीत लिया, लेकिन जब तक उनका विजय संदेश पहाड़ों तक पहुँचा, तब तक दिवाली बीत चुकी थी।
विलंबित उत्सवः जब माधो सिंह भंडारी की सेना दिवाली के ग्यारह दिन बाद वापस लौटी, तो गाँव वालों ने अपने वीर सैनिकों की जीत और वापसी की खुशी में उस दिन दीप जलाए, ढोल-दमाऊ बजाए और उत्सव मनाया।

परिणामः तभी से पहाड़ों में दिवाली के ग्यारह दिन बाद, यानी एकादशी के दिन, इस पर्व को इगास के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हुई।
पशुधन के प्रति कृतज्ञता की कथा (सांस्कृतिक महत्व)
इगास पर्व सिर्फ दीपों का त्योहार नहीं, बल्कि पशुधन (खासकर गाय-बैलों) के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का भी पर्व हैः
गो-पूजाः इस दिन, किसान अपने पशुओं की विशेष रूप से पूजा करते हैं। उन्हें अच्छे पकवान (जैसे पीठा और पूड़ी) खिलाए जाते हैं। यह पर्व किसानों के जीवन में पशुओं के योगदान को सम्मान देने का प्रतीक है।
बैलों का महत्वः प्राचीन समय में, खेती-बाड़ी और परिवहन के लिए पशुधन ही मुख्य आधार था। इगास पर्व इस बात को याद दिलाता है कि मानव जीवन की समृद्धि में पशुओं का कितना बड़ा हाथ है।
इगास पर्व के अनूठे रिवाज-

इगास को अन्य क्षेत्रों की दिवाली से अलग बनाने वाले कुछ विशेष रीति-रिवाज हैंः
भैलो खेलनाः इस दिन सबसे आकर्षक आयोजन होता है ’भैलो’ खेलना। गाँव के लोग, खासकर युवा, रस्सी में घास और लकड़ी बाँधकर उसे जलाते हैं और गोल-गोल घुमाते हुए या हवा में फेंकते हुए लोकगीतों के साथ नाचते हैं। यह एक तरह से अग्नि नृत्य होता है।
पारंपरिक पकवानः इस दिन घर-घर में ’उड़द की दाल के पकौड़े’, ’स्वाली’, और ’अरसा’ जैसे पारंपरिक पहाड़ी पकवान बनाए जाते हैं।
देव दर्शनः लोग अपने कुल देवताओं और स्थानीय देवी-देवताओं के दर्शन करते हैं और उनसे सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। इगास पर्व सचमुच उत्तराखंड की वीरता, प्रकृति और संस्कृति का एक सुंदर संगम है।



