उत्तराखंड

धामी की मिलन कूटनीति

देहरादून (मुरारी सिंह पहाड़ी): उत्तराखंड के युवा मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी अपने खुले हृदय और मिलनसार व्यक्तित्व के लिए जाने जाते हैं। अपने सर्वसमावेशी व्यवहार और निरंतर सक्रिय रहने की प्रवृत्ति के कारण वे प्रदेश के युवाओं के प्रिय हैं। लेकिन जिस तरह से उन्होने दीपावली के पहले अपने सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों से मिलकर बधाई देने और लेने का सिलसिला शुरू किया, उसके निहितार्थ बहुत दूर तक जाने वाले हैं।

सबसे पहले प्रदेश के दूसरे मुख्यमंत्री भगत सिंह कोशियारी। कोशियारी जी को धामी का राजनीतिक गुरु माना जाता है। क्योंकि जब कोशियारी अल्प समय के लिए उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे, तब धामी उनके ओएसडी हुआ करते थे। उन्होने राजनीति का ककहरा इसी दौरान पढ़ा। हालांकि स्वयं कोशियारी भी इस दौर में सीख ही रहे थे। लेकिन लंबे समय तक संघ में दीक्षित कोशियारी को यह लगने लगा था कि उनके इस शिष्य में कुछ तो ऐसी चमक है, जो उसे राजनीति के शिखर तक ले जा सकती है। इसलिए जब त्रिवेन्द्र और तीरथ की विफलता के बाद राज्य में राजनीतिक निर्वात आ गया था, तब कोशियारी ने आला कमान से कहा बताते हैं कि ‘धरा अभी वीरविहीन नहीं हुई है’। और इस तरह पुष्कर सिंह धामी नामक तुरुप का पत्ता सामने आया। धामी ने भी अपनी मेहनत और सूझ-बूझ के बल पर प्रदेश को निरंतर आगे ही बढ़ाया।

लोग कहते थे कि जब त्रिवेन्द्र-तीरथ जैसे गढ़-खुर्राट नेता नहीं चल पाये तो ये क्या चलेंगे! ये भी चार-छह महीने में बाहर हो जाएंगे और एक बार पुनः पुराने घोड़ों को अस्तबल से बाहर निकाला जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। धामी ने न सिर्फ विधान सभा चुनाव जीतकर एक नया इतिहास बनाया बल्कि दूसरे काल में भी स्थिरता से आगे बढ़ते चले गए। यहाँ तक कि एनडी तिवारी के बाद सबसे लंबे समय तक सत्ता में जमे रहने वाले मुख्यमंत्री बन गए। तब बिघ्नसंतोषी नेताओं ने कहना शुरू कर दिया कि अब तो वे कोशियारी की भी नहीं सुनते। यानी कोशियारी उनसे नाराज चल रहे हैं, ऐसी अफवाहें उड़ानी शुरू कर दीं। वह तो देहारादून में आयोजित एक सेमिनार में कोशियारी ने जमकर धामी की तारीफ करते हुए बोल दिया कि धामी तो अजातशत्रु जैसा है, तब जाकर अफवाहों पर विराम लगा। इधर मुख्यमंत्री दो तीन बार कोशियारी जी से मिल चुके हैं। इसलिए धनतेरस पर उनसे मिलकर उनका आशीर्वाद लेना एकदम स्वाभाविक था। कोशियारी जी ने भी खुलकर आशीर्वचनों की बौछार की। यह मानना पड़ेगा कि चौरासी की उम्र में भी जिस तरह से कोशियारी जी प्रदेश के कोने-कोने में घूम रहे हैं, वह अद्भुत है। उनकी यह सक्रियता उन्हें प्रदेश का सर्व-सक्रिय राजनेता बनाती है। अश्वमेध का यह घोडा अगले चुनाव में निकल गया तो फिर क्या कहने।

दूसरे पूर्व मुख्यमंत्री हैं- वयोवृद्ध नेता मेजर जनरल भुवन चंद्र खंडूरी। एक जमाना था, जब उत्तराखंड में उनकी तूती बोलती थी। वे दो बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, भलेही थोड़े-थोड़े समय के लिए ही। नारायण दत्त तिवारी के हटने के बाद जब पार्टी सत्ता में आई, तब पार्टी आला कमान ने भगत सिंह कोशियारी के हाथ से छीनकर उत्तराखंड की गद्दी पर खंडूरी जी को बैठा दिया था। इससे पार्टी दोफाड़ जैसी हो गई थी। एक गुट कोशियारी का था, दूसरा गुट खंडूरी का। पार्टी पर कोशियारी का दबदबा था। मगर पावर तो खंडूरी के हाथ में ही थी। तब धामी स्वाभाविक तौर पर कोशियारी के पाले में थे। इसलिए खंडूरी की आँखों में खटकते भी थे। लेकिन धामी का बड़प्पन देखिए कि वे कुर्सी संभालते ही सीधे खंडूरी के पास गए और आशीर्वाद लिया। इस समय खंडूरी बीमार हैं। ब्रेन सर्जरी हो चुकी है। बार-बार अस्पताल जाना पड़ता है। अब घर ही अस्पताल जैसा है। ऐसे व्यक्ति से दीपावली की पूर्व संध्या पर मिलना हर लिहाज से श्रेयस्कर है, सद्व्यवहार यही कहता है। इसमें कोई कूटनीति नहीं है। इससे पार्टी में ही नहीं, पूरे प्रदेश में बहुत सकारात्मक संदेश जाता है। इससे पहले की सरकारों के दौर में कोई इस तरह की कल्पना भी नहीं कर सकता था।

तीसरे पूर्व मुख्यमंत्री हैं रमेश पोखरियाल निशंक। किसी जमाने में उन्हें उत्तराखंड का सबसे चालाक राजनेता समझा जाता था। उनका राजनीतिक कैरियर हरीश रावत के बाद सबसे लंबा है। वे 1991 से उत्तर प्रदेश के विधायक रहे, मंत्री रहे। उत्तराखंड बनने के बाद वे लगातार मुख्यमंत्री पद के दावेदार रहे। 2009 से 2011 तक मुख्यमंत्री रहे भी। केंद्र के शिक्षा मंत्री रहे। लेकिन मोदी राज में बहुत आगे नहीं चल पाए। अब वे अपना ज्यादा समय साहित्य चर्या में बिताते हैं। कहा जाता था कि यदि पुराने घोड़े खोले जाते हैं तो उन्हें भी मौका मिल सकता है। पर निशंक की बड़ी बात यह है कि उन्होने प्रकट तौर पर कभी धामी की आलोचना नहीं की। बल्कि गूगल के खजाने से जो सामग्री मिलती है, उन सब में तो वे मुख्यमंत्री की तारीफ ही करते हुए नजर आते हैं। पिछले साल तो उन्होने खुलकर धामी की प्रशंसा करते हुए कहा था कि धामी ने घोषणा पत्र में किए गए सभी वादे पूरे कर दिये हैं। तो ऐसे वरिष्ठ नेता से आशीर्वाद लेना तो बनता ही है।

उसके बाद आते हैं हरीश रावत। वे काँग्रेस के वयोवृद्ध नेता हैं। प्रदेश में आज भी वही कॉंग्रेस का चेहरा हैं। पार्टी के अन्य नेता उन्हें लंगड़ी मारने की लाख कोशिश कर लें, पर वे हर बार और भी मजबूत होकर निकलते हैं। अध्यक्ष चाहे जो भी बने, सदन में लीडर जो भी हो, पर राहुल-सोनिया का भरोसा अभी रावत पर ही है। लेकिन धरातल पर वे काफी कमजोर पड़ चुके हैं। वे लोकसभा चुनाव तो हारे ही, विधान सभा चुनाव भी दो-दो जगह से हार चुके हैं। मुख्यमंत्री धामी से उनका समीकरण लगभग ठीक-ठाक दिखाई पड़ता है। धामी की सक्रियता में उन्हें अपना अक्स दिखाई पड़ता है। क्योंकि जब वे मुख्यमंत्री हुआ करते थे, तब वे भी रात-दिन एक कर देते थे। लेकिन उन्हें बहुत देर से मौका मिला था। इसलिए वे महज घोषणा मंत्री होकर रह गए। ऊपर से न ब्यूरोक्रेसी साथ देती थी और ना पार्टी संगठन। वे अकेले कर भी लेते, तो क्या? अपनों के बीच अनौपचारिक बातचीत में वे अक्सर धामी की तारीफ करते नहीं थकते। और वैसे भी पिछले चार वर्षों में उत्तराखंड काँग्रेस ने क्या कर लिया? वो तो अब जाकर, जब उनके आला कमान को यह लगने लगा है कि अगले चुनाव में भी हम सत्ता से वंचित रहने वाले हैं, तब जाकर उन्होने दिल्ली से अपने टूल किट को सक्रिय किया है। तो हरीश रावत से मिलने के दो मकसद थे। एक- हरीश रावत का हालचाल लेना, क्योंकि वे एक सड़क दुर्घटना में बाल बाल बचे हैं। और दूसरे- दीपावली की पूर्वसंध्या पर उनका आशीर्वाद लेना। चाय के साथ गुड़ की कटकी लेते हुए धामी ने उन्हें भी साधने की भरसक कोशिश की होगी, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। क्या पता, आँखों ही आँखों में कुछ आश्वासन भी मिल गया हो, कौन जानता है!

मुख्यमंत्री धामी उन त्रिवेन्द्र सिंह रावत से भी मिले और फूल भेंट किए, जो गाहे-बगाहे उनकी खिंचाई करते रहते हैं। वे भी उत्तराखंड के बड़े नेता माने जाते हैं। तिवारी जी के बाद वे ही ऐसे नेता थे, जो पौने चार साल मुख्यमंत्री रहे। लेकिन कुछ अपने अक्खड़ स्वभाव के चलते तो कुछ अहंकार के चलते, उन्हें चार साल से पहले ही पार्टी आला कमान ने बाहर कर दिया। पार्टी को लगा कि अगले चुनाव को जीतना है तो किसी और को लाना होगा। तब नंबर आया तीरथ सिंह रावत का, जो प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष रह चुके थे। दोनों पौड़ी के थे। लेकिन स्वभाव में एकदम विपरीत। सीधे इतने कि न सरकार पर उनका नियंत्रण रहा, न पार्टी पर। वे कुछ भी बोल देते थे। आला कमान को लगा कि शायद उससे गलती हो गई। इसलिए चार ही महीने में उन्हें भी अलविदा कहना पड़ गया। और तब नंबर आया धामी का। त्रिवेन्द्र सिंह रावत को बार बार लगता है कि कुर्सी पर तो मेरा अधिकार था। वैसे अब वे हरिद्वार से सांसद हैं, पर जिस तरह से मुख्यमंत्री धामी के कामों को अपना बताकर ‘वाहवाही’ लूटते हैं, उससे लगता है कि उनकी नजर अब भी सीएम आवास की तरफ है।

लेकिन धामी तो धामी हैं। वे हरेक में अच्छे गुण ही तलाशते रहते हैं। इसलिए वे त्रिवेन्द्र सिंह रावत के पास भी गए और तीरथ सिंह रावत के पास भी गए। निश्चय ही उनकी इस पहल से दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के चेहरे पर मुस्कान आई है। संभव है, यह मुस्कान कुछ समय टिकी रहे। संभव है, उनके मन तक इस मुस्कान का संचार हो और विचार बदलें। न भी हो, तो भी धामी के लिए तो अच्छा ही है। युवा होने का यही फायदा है। फिलहाल वे उत्तराखंड भाजपा में एक ऐसे नेता के तौर पर उभरे हैं, जो पार्टी में घटकवाद से ऊपर हैं। वे सबको साथ लेकर चलने के पक्षधर हैं। उनके यहाँ न जातिवाद है और न क्षेत्रवाद। वे सचमुच पूरे प्रदेश के मुकम्मल मुख्यमंत्री हैं।

Related Articles

Back to top button