दस्तक-विशेष

डीएमके का पाखंड है ! आस्था की खिल्ली है !!

के. विक्रम राव

स्तंभ: उच्चतम न्यायालय जातिगत कर्तव्यों के विषय में एक महत्वपूर्ण और दूरगामी मसले पर विचार करने तथा निर्णय करने पर सहमत हो गया है। विवाद उठा है कि तमिलनाडु सरकार के द्रमुक मुख्यमंत्री एमके स्तालिन द्वारा गैरब्राह्मणों को देवालयों में अर्चक नियुक्त करने के परिणाम स्वरूप उठा है। याचिकाकर्ता पूर्व सांसद डॉ. सुब्रहमन्यम स्वामी ने आरोप लगाया है कि करीब 40,000 मंदिरों और अन्य हिन्दू धार्मिक संस्थाओं पर मनमाने ढंग से शासन ने कब्जा कर लिया है। स्वामी ने तमिलनाडु हिन्दू धार्मिक और धार्मिक विन्यास अधिनियम, 1959, के कुछ प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है, जिसका कथित तौर पर राज्य सरकार द्वारा मनमाने ढंग से और गैरकानूनी रूप से इन मंदिरों और हिन्दू धार्मिक संस्थाओं के प्रशासन, प्रबंधन और नियंत्रण पर कब्जा करने के लिये इस्तेमाल किया गया है। शीर्ष अदालत ने अर्जी के निपटारे तक राज्य के मंदिरों और हिन्दू धार्मिक संस्थाओं में अर्चकों (पुजारियों) की नियुक्ति या बर्खास्तगी से राज्य को रोकने के लिये अंतरिम राहत के अनुरोध पर भी नोटिस जारी किया है। सर्वोच्च न्यायालय के दो-सदस्यीय खण्डपीठ के न्यायमूर्ति हेमंत गुप्त तथा न्यायधीश सुधांशु धूलिया ने इस पर आदेश पारित कर तमिलनाडु सरकार से जवाब मांगा है।

इस याचिका से एक बार फिर जातिगत कार्यों हेतु क्षमताओं पर सवाल उठे है। आम तौर पर दक्षिण भारत की सरकारंे धार्मिक परीक्षा में उत्तीर्ण जन को ही अर्चक पद देतीं हैं। पर गत महीनों में ब्राह्मण-विरोधी राजनीति से प्रभावित होकर मंदिरों में अर्चक को इस राजनैतिक विवाद में भी ढकेला गया है। धार्मिक अनुष्ठान के लिये कुछ बुनियादी अर्हतायें तथा आवश्यकतायें अनिवार्य होती हैं। इसे विकृत और तोड़मोड़ कर जबरन जातिगत विवाद में फंसा कर कार्य की उत्कृष्टता पर प्रहार किया जा रहा है। संदर्भित प्रश्न हो सकते है कि क्या फिर जो वंशानुगत वृत्ति तथा व्यवसाय है उनकी पारम्परिक मान्यता कैसी होगी? मसलन क्या स्वर्णकार भी चर्मकार के काम करने की दक्षता रखता है ? क्या काश्तकार में कारीगर के काम की क्षमता होगी? इनमें जो जन्मगत है वे तो मान्य होंगे क्योंकि परिवार की परम्परा से ही योग्यता प्राप्त होगी। प्रारम्भिक प्रशिक्षण हो जायेगा। मगर अप्रशिक्षित व्यक्ति को भाषा, उच्चारण और रीतिरिवाजों के सम्यक ज्ञान के अभाव में अर्चक बनाना एक घोर विकृति होगी। मंत्रों की मूल विशेषता उच्चारण में है। अपभ्रंश या खोटा लहजा तो विसंगति सर्जेगी। अब जिसे ‘श‘ और ‘स‘ का अंतर न ज्ञात हो वहा परिदृश्य वीभत्स हो जायेगा। बस यही मूलभूत प्रश्न है।

यह अनिवार्य नहीं है कि ब्राह्मण ही अर्चक हो। चूंकि वह परिवार के ज्येष्ठों से ही सुनकर सीखकर बड़ा होता है, अतः कुटुंबगत दक्षता अपने आप आ जाती है। ब्राह्मण की परिभाषा पर सवाल उठाया था ऋग्वेद में प्रभा और पुरूरवापुत्र राजा नहुष ने। इस पर पाण्डवपुत्र धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा था: ‘‘दान, धर्म, क्षमा, दया, शील एवं अहिंसा के गुणों से जो भी विभूषित हो, वहीं ब्राह्मण होता है?‘‘ नहुष ने कहा: ‘‘यदि यही गुण ब्राह्मण की पहचान है, तो ये सारे गुण तो किसी शूद्र में भी हो सकते है। तो क्या तुम उस शूद्र को भी ब्राह्मण मान लोगे?‘‘ युधिष्ठिर ने जवाब दिया: ‘‘जो भी व्यक्ति इन सारे गुणों से युक्त हो, वह शूद्र जाति में जनमा हो, तो भी वह ब्राह्मण ही है, किन्तु यदि कोई जन्म से ब्राह्मण होते हुए भी इन गुणों से हीन हो तो वह वास्तव में शूद्र ही है। चरित्र ही व्यक्ति की जाति का आधार है। उत्तम चरित्रवाला व्यक्ति ब्राह्मण है, फिर वह किसी भी कुल का क्यों न हो?‘‘

ब्राह्मण की मान्य परिभाषा है: ‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारद्द्विज उच्यते। विद्या याति विप्रत्वं, त्रिभिः श्रोत्रिय उच्यते।।‘‘ अर्थात जन्म से प्रत्युक मनुष्य शूद्र होता है, संस्कार से वह द्विज होता है, विद्या प्राप्त कर लेने पर वह ‘विप्र‘ हो जाता है। तीनों (उत्तम कुल में जन्म, उत्तम संस्कार तथा विद्या) प्राप्त होने के बाद वह ‘श्रोत्रिय‘ कहलाता है।‘‘ ‘‘अब पारम्परिक रूप से काम के आधार पर समाज को व्यवस्थित करने हेतु कृष्ण ने गीता में कहा: ‘‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्‌ ।।‘‘ अर्थात ‘‘गुण व कर्म के आधार पर मैंने ही इस सृष्टि को चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र ) की रचना की है। इस प्रकार तुम मुझे इस सृष्टि का कर्ता (रचनाकार) होने पर भी अकर्ता ही समझो।‘‘

आज वर्तमान परिप्रेक्ष्य को देखते हुए इस वर्ण की उपादेयता पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता है । इस व्यवस्था को लेकर बहुत सारी भ्रांतियाँ समाज में फैली हुई हैं, जिनका निराकरण करना परमावश्यक है। इन परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने विकृत और विसंगति पैदा करने की साजिश की है। क्या बिना एलएलबी पढ़े वकील तथा बिना एमबीबीएस किये कोई डॉक्टर बन सकता है? शास्त्रों के विधिवत ज्ञान और अध्ययन की क्षमता के बिना अर्चक बनना कैसा संभव है? इसी कारण से डा. सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका गंभीर है। यह मात्र कानून का मसला नहीं, यह बुनियादी तौर पर ज्ञान और कर्म का विषय है। सावधानी अपेक्षित है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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