दस्तक-विशेष

पीएम व पूर्व सीएम का युगलगान

के. विक्रम राव

कल रात (7 दिसम्बर) ”जी” (यूपी—उत्तराखण्ड) टीवी पर कुशल एंकर राममोहन शर्मा ने लाल टोपी पर चर्चा करायी। मैं शामिल था। संदर्भ था गोरखपुर की चुनावी रैली में नरेन्द्र मोदी का लाल टोपी पर तंज। जवाब में अखिलेश यादव द्वारा विनोदी टिप्पणी भी थी। परिहास का स्तर बौद्धिक था। सहज और श्लील। नीक लगा क्योंकि अमूमन फूहड़ ही सुनने में आते रहे हैं।

मगर प्रधानमंत्री तथा पूर्व मुख्यमंत्री के द्वंद्व से हम पत्रकारों की मानों खबरिया लाटरी लग गयी। मगर मुझे लगा कि उम्र और विपक्ष से अपेक्षित तेवर के मुताबिक अखिलेश में पैनापन कम था। लोहियावादी है इसीलिये यह और खला। कारण खोजा। पता लगा कि दोनों आजादी के बाद जन्मे थे। अत: ब्रिटिश राज का दंश नहीं झेला था। मसलन लंदन के संसदीय चुनाव की एक क्रिया—प्रतिक्रिया का उल्लेख कर दूं। युवा सोशलिस्ट (ब्रिटेन के लोहिया) एन्यूरिन बीवन ने ”श्वानवाली (बुलडाग जैसी) शक्ल के सर विंस्टन चर्चिल को ”बूढ़ा बिलौटा” कहा था जो क्लीव हो गया है।” जवाब में चर्चिल ने टोका कि : ”खूसट ही सही फिर भी इस मांसल कबूतर के लिये मैं काफी हूं।”

फाइल फोटो

मोदी ने लाल टोपी को टार्गेट बनाया। यह टोपी कभी पुराने सोशलिस्टों की आक्रामकता का चिह्न होता था। लाल टोपीधारी लोहिया के हमले से नेहरु भी सिहरते थे। जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, यूसुफ मेहरअली, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, रामवृक्ष बेनीपुरी इसी के रंग से आज भी याद आते हैं। मर्यादित होता यदि मोदी अपने तंज में टीका करते कि ”लाल टोपी कभी उत्सर्ग और त्याग का चिह्न था। अब भ्रष्टाचार के काम वाला हो गया। वहीं गत जो गांधी की सफेद टोपी की अब हुयी। तब अखिलेश का जवाब हो सकता था कि भाजपायी तो प्रारंभ से ही संघवाली काली टोपी धारण करते रहे। भावार्थ द्विअर्थी होता। वार पर प्रहार बढ़ता यदि मोदी कहते कि : ”नये समाजवाद की शुचिता के दूत अब गायत्री प्रजापति है। यादव सिंह (नोएडा वाले) हैं।” बात से बात निकलती तो मामला लम्बाता। वोटरों का ज्ञान वर्धन होता। मजा मिलता। पर इसके लिये खुद खूब पढ़ना जरुरी होता है। हालांकि भाषण लिखने वालों का चलन अब तेज हो गया। अमेरिका के राष्ट्रनायक यही करते हैं। राष्ट्रपति जोए बिडेन का भाषण—लेखक तेलुगुभाषी, करीमनगर (तेलंगाना) का विनय रेड्डि हैं।

यदि अखिलेश यादव ने कभी जाना होता कि उनकी पार्टी का संघर्षमय इतिहास क्या है तो वे मोदी के सामने वही कल्पनाशीलता दिखाते जो बाबू गेन्दा सिंह ने 1952 में नेहरु के सामने किया था। प्रथम लोकसभा का अभियान था। देवरिया में कांग्रेस अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरु की विशाल सभा थी। बाबू गेंदा सिंह ने एक हजार युवाओं को लाल टोपी पहना कर मैदान में छितरा कर बैठाया। मंच पर से समूचे श्रोतागण ही लाल टोपी धारण किये लग रहे थे। लालिमा फैल गयी थी। माइक पर आते ही नेहरु ने पहले चहुंदिक निहारा। फिर कुछ बिदके, आयोजकों पर बिफरे, डांटा कि ”यह कांग्रेस की सभा है या सोशलिस्टों की?” एक अकाली सवा लाख के बराबर वाली युक्ति की भांति पांच सौ बनाम पचास हजार हो गये। यह सारा संभव था क्योंकि तब सुरक्षा इतनी कठोर नहीं थी। कुत्ते सूंघने के लिये नहीं छोड़े जाते थे। आज अन्य उपाय सोचना पड़ेगा।

यदि अखिलेश यादव बजाये आस्ट्रेलिया के लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़े होते, तो अधिक विवेकी तथा प्रत्युत्पन्नमति होते। जैसे उनकी युवासेना गोरखपुर में वही करामात कर दिखाती जो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रमुख नेता, आज 72—वर्षीय श्री मुप्पवरपु वेंकय्या नायडू (अधुना उपराष्ट्रपति) ने एक बार अपने गृहनगर विशाखापत्तम में किया था । वे तब आंध्र विश्वविद्यालय में विधि के छात्र थे। बात है करीब 46 वर्ष पुरानी। इन्दिरा गांधी की जनसभा थी। प्रधानमंत्री अपनी तानाशाही (इमर्जेंसी) की खूबियां बखान कर रहीं ​थीं। तभी अचानक मैदान में सापों की बौछार होने लगी। श्रोता भाग गये। सभा भंग हो गयी। (मेघनाद का यज्ञ जैसे वानरों ने नष्ट किया था)। अपने लेख में नायडू जी ने ”इंडियन एक्सप्रेस” में लिखा था कि : ”उनके साथियों ने उनके परामर्श पर पानी के सांप फेंके थे। वे जहरीले नहीं थे।” जबतक हमारे सहपाठी (समाजवादी युवक सभा के) लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र क्रियाशील रहे, जवाहलाल नेहरु के लाउडस्पीकर की बार—बार मरम्मत करानी पड़ती थी। तार कटे मिलते।

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यदि अखिलेश सियासत में पैराशूट से अवरोहित होने के बजाये, जेल में वक्त बिताकर, पुलिस से पिटकर आते तो बबुआ न कहलाते। फावड़ा, कुदाल और जेल !! इसीलिये लोहिया ने इन्हें पार्टी का निशान बनाया था। यही हुआ था जब तानाशाही आई (25 जून 1978) तो सारे जनक्रान्तिकारियों ने थाने जाकर स्वयं गिरफ्तारी दे दी। मगर जॉर्ज फार्नाडिंस, नानाजी देशमुख, देशमुख, कर्पूरी ठाकुर आदि बाहर रहकर जनाधिकार के लिये युद्धरत रहे। साथ हम भी रहे। गिरफ्तार हुए। हमने गिरफ्तारी नहीं दी। चुनावी सभा में भाषण द्वारा माहौल बदलना भी एक विज्ञान होता है। कानपुर के घंटाघर में एक सभा में श्रमिक नेता पंडित गणेशदत्त वाजपेयी का धुआंधार भाषण हो रहा था। एक श्रोता ने टोका : ”दद्दू, आपको श्याम मिश्र गाली दे रहा था।” छूटते ही दद्दू ने कहा : ”श्याम मिश्र को आजादी है। उसकी मां मुझे जीजा कहती है।” तब एच.एन. बहुगुणा की कांग्रेस पार्टी में श्याम मिश्र थे। कभी वे समाजवादी युवक सभा के पुरोधा थे।

बीती शामवाली गोरखपुर चुनाव रैली की तरह परिहास, चुटकुले, शब्द रचना, तंज आदि वोट हासिल करने में बड़े मददगार होते है, पर सोच समझकर और च​यनित शब्दों में हों। एक सभा में एक भाजपाई मंत्री ने एक वाक्य में ही विन्यास कर डाला था सोनियाजी और मोनिकाजी के नामों का। बजाय बिफरने के तब चतुर कांग्रेसी भी अटलजी और क्लिंटनजी के नाम एक साथ उच्चारित कर सकते थे। हिसाब बराबर हो जाता। बिल क्लिंटन की छवि राजनेता की कम, रुमानी अधिक थी। खुद अटल बिहारी वाजपेयी कई प्रेस इन्टर्व्यू में उजागर कर चुके हैं कि वे ब्रह्माचारी नहीं, सिर्फ अविवाहित हैं।

अत: आज चुनाव अभियान में हंसी को लौटना चाहिये। पहले राजनेता परिहास को कारगर चुनावी अस्त्र बनाते थे। विरोधियों को चिढ़ाना, उनकी नीतियों पर चुटकी लेना, उनकी क्षमता की ठिठोली बनाना। ऐसी हास्योत्पद उक्तियां थी जो यादगार हैं। हास्य को मुनि भरत ने श्रृंगार रस की अनुकृति बताया। जितना असर किसी स्थिति को विडम्बित रूप में पेश करने से पड़ता है उतना उसके कलात्मक विश्लेषण से नहीं होता है। यही व्यंग का बुनियादी अभिप्राय है। ऐसी वाग्विदग्धता वाला राजनेता ही तेज तर्रार कहलाता है। वोटों के प्रवाह को दिशा देता है। मतदाताओं को जहां खुजली होती है, वहीं वह खुजलाता है।

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भले ही व्यंग में अर्थ विपरीत होते है, पर अब सब सच ही लगता था। जैसे चौथी लोकसभा (1967) के चुनाव में समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया को अहमदाबाद के व्यापारी महामण्डल ने उनके पार्टी मेनिफेस्टो पर भाषण के लिए अपनी सभा में आहूत किया। डा. लोहिया बोले : ”आप व्यापारियों की सभा में समाजवाद पर बोलना, जैसे साधू समाज की बैठक में कामसूत्र पर बोलना होगा।” चुनाव की चर्चा हो तो हमारे लखनऊ के सांसद रहे अटल बिहारी वाजपेयी का स्मरण हो आता है। तब अहमदाबाद के रुपाली थ्येटर के मैदान पर ( जून, 1975) सभा थी। गुजरात विधानसभा का मध्यावर्ती निर्वाचन था। सभा के अंत में चलते—चलते मेरा प्रश्न था, ”अटल जी, कुछ मारुती उद्योग पर कहें। ” वे बोले : ”मां रोती है।” पूरी सभा का माहौल ही बदल गया। इन्दिरा—कांग्रेस वह विधानसभा सीट हार गयीं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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