Dussehra 2020: इस जगह पर 75 दिनों तक मनाते हैं दशहरा, जानें क्या है ये 610 साल पुरानी परंपरा
बस्तर: आज पूरे देश में दशहरे का त्योहार मनाया जा रहा है। बस्तर का दशहरा पूरे देश में मशहूर है। यहां रामलीला या रावण दहन नहीं बल्कि मां दुर्गा की जीत का पर्व मनाया जाता है। इस क्षेत्र में मनाए जाने वाले त्योहारों में ये सबसे खास है। यहां मनाए जाने वाले दशहरे का संबंध महिषासुर का वध करने वाली मां दुर्गा की विजय से है। पौराणिक कथाओं को अनुसार अश्विन शुक्ल की दशमी तिथि को मां दुर्गा ने महिषासुर का संहार किया था।
हरेली अमावस्या से शुरू होने वाला यह त्योहार 75 दिनों तक चलता है। इसमें बस्तर के दूसरे जिले के देवी देवताओं को भी निमंत्रित किया जाता है। इन 75 दिनों के दौरान अलग-अलग रस्मों का आयोजन किया जाता है। इसमें रथ का परिचालन प्रमुख है। इसकी सबसे खास बात यही है कि 610 वर्षों से यह परंपरा यूं ही चली आ रही है और इसमें अभी तक कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। कोरोना के चलते जब पुरी में जगन्नाथ यात्रा पर सर्वोच्च न्यायालय ने रोक लगाई तो लोगों को लगा था कि बस्तर का दशहरा भी फीका रहेगा। पर कहते हैं न ‘जहां चाह वहां राह’…प्रशासन और बस्तर दशहरा समिति की सूझ-बूझ से इस उत्सव को मनाने का तरीका निकल ही आया।
कोरोना ने लगभग हर क्षेत्र में परिवरितन ला दिए हैं। हर काम को करने और बाहर निकलने के तौर तरीकों में बदलाव आ गया है। ऐसे में प्रशासन और दशहरा समिति ने पूजा से जुड़े सभी लोगों की सूची बनाई और सिर्फ उन्हीं लोगों को बुलाया गया जिनकी भागीदीरी रस्मों में बहुत जरूरी है। शहर आने से पहले ही इन लोगों का कोरोना परीक्षण कराया गया और निगेटिव आने पर ही शहर में जाने दिया गया। फिर ये लोग रथ बनाने, रथ खींचने के कामों में लग गए। तीसरे दिन फिर से इन लोगों की कोरोना की जांच की गई ताकि संक्रमण को फैलने ही न दिया जाए। साथ ही इन कामों में जितने भी लोग लगे हैं उन्हें बाकी लोगों से अलग रखा जा रहा है।पूरे इलाके में विधिवत सैनिटाइजेशन किया जा रहा है। बिना मास्क किसी को जाने की या काम करने की इजाजत नहीं है। कारीगरों और रथ खींचने वालों के हाथों की साफ-सफाई का ध्यान रखने को कहा जा रहा है।
होती हैं ये रस्में
बस्तर दशहरा की दो रस्में प्रमुख हैं। पहली है फूल रथ का परिचालन और दूसरी है भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्म। अश्विन शुक्ल पक्ष द्वितीया से लेकर सप्तमी तक फूल रथ का परिचालन किया जाता है। इसके बाद भीतर रैनी और बाहर रैनी रस्म में रथ चलता है। आपको बता दें कि पिछले 610 सालों में इस दशहरे में चलने वाले इस रथ के आकार या स्वरूप मे कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।
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लकड़ी से बने इस रथ की ऊंचाई 25 फीट होती है, चौड़ाई 18 फीट और लंबाई 32 फीट होती है। हरेली अमावस्या को माचकोट जंगल से लाई गई लकड़ी (ठुरलू खोटला) पर पाटजात्रा रस्म पूरी करने से होती है। उसकी सबसे खूबसूरत बात यही है कि सभी वर्ग, जाति, जनजाति और समुदाय के लोग इसमें हिस्सा लेते हैं।
इसके बाद बिरिंगपाल गांव के लोग सरहासार भवन में सरई पेड़ की टहनी को स्थापित करते हैं। इस रस्म को डेरी गड़ाई के नाम से जाना जाता है। इसके बाद रथ बनाने की प्रक्रिया शुरू होती है। झारउमरगांव और बेड़ाउमरगांव के गांव वाले पारंपरिक औजारों से दस दिनों के भीतर रथ को बनाते हैं। इस पर्व में काछनगादी की पूजा महत्वपूर्ण है। रथ हनने के बाद पितृ मोक्ष अमावस्या के दिन ही काछनगादी पूजा की जाती है। इस पूजा में मिरगान जाति की बालिका को काछनदेवी की सवारी कराने का रिवाज है।
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