चुनावी बॉण्ड : गुपचुप चंदा नामंजूर
–जितेन्द्र शुक्ला
देश की सबसे बड़ी अदालत ने केन्द्र की मोदी सरकार द्वारा लाये गए चुनावी बॉण्ड को असंवैधानिक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) के नेतृत्व वाली सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाते हुए स्टेट बैंक ऑफ इंडिया को 2019 से अब तक चुनावी बॉण्ड से जुड़ी पूरी जानकारी देने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना, आयकर अधिनियम की धारा 139 द्वारा संशोधित धारा 29(1)(सी) और वित्त अधिनियम 2017 द्वारा संशोधित धारा 13(बी) का प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है। शीर्ष अदालत ने आदेश दिया कि चुनावी बांड जारी करने वाला बैंक, यानी भारतीय स्टेट बैंक, चुनावी बॉण्ड प्राप्त करने वाले राजनीतिक दलों का विवरण और प्राप्त सभी जानकारी जारी करेगा और भारत के चुनाव आयोग (ईसीआई) को सौंप देगा। उसके बाद ईसीआई इसे 13 मार्च तक आधिकारिक वेबसाइट पर प्रकाशित करेगा। साथ ही राजनीतिक दल इसके बाद खरीददारों के खाते में चुनावी बॉण्ड की राशि वापस कर देंगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले से राजनीतिक दलों में खलबली मची हुई है। दरअसल, इन बॉण्ड्स पर पारदर्शिता को लेकर कई सवाल उठ रहे थे और यह आरोप लग रहा था कि यह योजना मनी लॉन्डरिंग या काले धन को सफेद करने के लिए इस्तेमाल हो रही थी।
वास्तव में चुनावी बॉण्ड ब्याज मुक्त धारक बॉण्ड या मनी इंस्ट्रूमेंट था जिन्हें भारत में कंपनियों और व्यक्तियों द्वारा भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) की अधिकृत शाखाओं से खरीदा जा सकता था। ये बॉण्ड 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, 10 लाख, और एक करोड़ रुपये के गुणकों में बेचे जाते थे। किसी राजनीतिक दल को दान देने के लिए उन्हें केवाईसी-अनुपालक खाते के माध्यम से खरीदा जा सकता था। राजनीतिक दलों को इन्हें एक निर्धारित समय के भीतर भुनाना होता था। दानकर्ता का नाम और अन्य जानकारी दस्तावेज पर दर्ज नहीं की जाती है और इस प्रकार चुनावी बांड को गुमनाम कहा जाता है। किसी व्यक्ति या कंपनी की तरफ से खरीदे जाने वाले चुनावी बांड की संख्या पर कोई सीमा नहीं थी। सरकार ने 2016 और 2017 के वित्त अधिनियम के माध्यम से चुनावी बॉण्ड योजना शुरू करने के लिए चार अधिनियमों में संशोधन किया था। ये संशोधन अधिनियम लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951, (आरपीए), कंपनी अधिनियम, 2013, आयकर अधिनियम, 1961, और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम, 2010 (एफसीआरए), 2016 और 2017 के वित्त अधिनियमों के माध्यम से थे। 2017 में केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉण्ड स्कीम को वित्त विधेयक के रूप में सदन में पेश किया था। संसद से पास होने के बाद 29 जनवरी 2018 को इलेक्टोरल बॉण्ड स्कीम की अधिसूचना जारी की गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि चुनावी बॉण्ड योजना, आयकर अधिनियम की धारा 139 द्वारा संशोधित धारा 29(1)(सी) और वित्त अधिनियम 2017 द्वारा संशोधित धारा 13(बी) का प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(ए) का उल्लंघन है। इस योजना को जनवरी 2018 में घोषित होने के तुरंत बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी), कॉमन कॉज और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स (एडीआर) सहित कई पार्टियों द्वारा चुनौती दी गई थी। कॉमन कॉज और एडीआर का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील प्रशांत भूषण ने तर्क दिया था कि नागरिकों को वोट मांगने वाली पार्टियों और उम्मीदवारों के बारे में जानकारी पाने का अधिकार है। हालांकि कंपनियों के वित्तीय विवरण कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय की वेबसाइटों पर उपलब्ध हैं, जो सैद्धांतिक रूप से किसी को दान के स्रोत को जानने की अनुमति दे सकते हैं। भूषण का कहना था कि भारत में लगभग 23 लाख पंजीकृत कंपनियां हैं। भूषण ने तर्क दिया था कि इस पद्धति का उपयोग करके यह पता लगाना कि प्रत्येक कंपनी ने कितना दान दिया है, एक सामान्य नागरिक के लिए संभव नहीं होगा। सीनियर एडवोकेट कपिल सिब्बल ने योजना में और अधिक कथित कमियों पर प्रकाश डाला। उनका कहना था कि इस योजना में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसके लिए दान को चुनाव प्रक्रिया से जोड़ा जाना आवश्यक हो। उनका कहना था कि एसबीआई के स्वयं के एफएक्यू अनुभाग में कहा गया है कि बॉण्ड राशि को किसी भी समय और किसी अन्य उद्देश्य के लिए भुनाया जा सकता है।
अदालत के फैसले से यह भी सामने आया है कि योजना की शुरुआत के बाद किस पार्टी को कितना पैसा मिला है। इसमें केंद्र की सत्ताधारी भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस क्रमश: पहले और दूसरे स्थान पर हैं। आंकड़ों के मुताबिक 2017-18 से 2022-23 के बीच वार्षिक ऑडिट रिपोर्ट से पता चला है कि भाजपा को सबसे अधिक दान मिला है। यह राशि 6566.125 करोड़ है जो सभी पार्टियों को मिले कुल दान का 54.7786 फीसदी हिस्सा है। भाजपा की सियासी ताकत देखें तो 18 राज्यों में अकेले या सहयोगियों के साथ सत्ता में है। ये राज्य हैं अरुणाचल प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हरियाणा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, नगालैंड, पुडुचेरी, सिक्किम, त्रिपुरा, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और बिहार।
वहीं यदि बात कांग्रेस की की जाये तो बीते छह वर्षों में कांग्रेस को 1123.3155 करोड़ रुपये चुनावी बॉण्ड से मिले हैं। इस तरह से कुल दान में पार्टी की हिस्सेदारी 9.3714 प्रतिशत है। कांग्रेस की राजनीतिक ताकत देखें तो यह पांच राज्यों में खुद या गठबंधन के तहत सरकार में शामिल है। ये राज्य हैं हिमाचल प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, झारखंड और तमिलनाडु। भाजपा और कांग्रेस को छोड़ दें तो बाकी दलों ने वित्तीय वर्ष 2017-18 में किसी भी चुनावी बॉण्ड के योगदान की जानकारी नहीं दी है। इस मामले में तीसरे स्थान पर तृणमूल कांग्रेस है। पार्टी को बीते पांच वर्षों में 1092.9876 करोड़ रुपये चुनावी बॉन्ड के रूप में मिले हैं। सभी दलों में इसकी हिस्सेदारी 9.1184 फीसदी है। टीएमसी केवल पश्चिम बंगाल में भी शासन कर रही है। चुनावी बॉण्ड में हिस्सेदारी के हिसाब से चौथा स्थान भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) का है। बीआरएस को गत पांच वर्षों में 912.6899 करोड़ रुपये हासिल हुए हैं और सभी दलों का यह 7.6142 प्रतिशत हिस्सा है। इसने 2020-21 में चुनावी बॉण्ड के योगदान की जानकारी नहीं दी है। बीआरएस अभी किसी भी राज्य में सत्ता में नहीं है। पिछले साल तेलंगाना में हुए विधानसभा चुनाव में बीआरएस को सत्ता से बेदखल करते हुए कांग्रेस सरकार में आ गई।
इस सूची में पांचवां स्थान बीजू जनता दल (बीजद) का है। पिछले पांच वर्षों में बीजद को 774.00 करोड़ रुपये चुनावी बॉण्ड से मिले हैं और कुल हिस्सेदारी 6.4572 प्रतिशत है। नवीन पटनायक की बीजू जनता दल ओडिशा में सरकार चला रही है। वहीं छठे पायदान पर मौजूद क्षेत्रीय दल डीएमके को 616.50 करोड़ चुनावी बॉण्ड से मिले हैं। पार्टी की कुल भागीदारी 5.1432 प्रतिशत की है। डीएमके फिलहाल तमिलनाडु में सत्ता में है। जबकि वायएसआर कांग्रेस को बीते पांच वर्षों में 382.44 करोड़ रुपये चुनावी बॉण्ड से मिले हैं। सभी पार्टियों के हिसाब से इसकी भागीदारी 3.1905 प्रतिशत है। जगन मोहन रेड्डी की वायएसआर कांग्रेस आंध्र प्रदेश में सत्ता में है। वहीं चंद्रबाबू नायडू की पार्टी तेलगु देशम पार्टी (टीडीपी) ने चुनावी बॉण्ड से 146.60 करोड़ का योगदान हासिल किया है। दलों के हिसाब से यह 1.2230 फीसदी हिस्सा है। टीडीपी अभी किसी भी राज्य में सत्ता में नहीं है। वहीं महाराष्ट्र की सत्ताधारी पार्टियों शिवसेना को 101.38 करोड़ रुपये तो एनसीपी को 63.75 करोड़ रुपये चुनावी बॉण्ड से मिले हैं। ये योगदान वित्तीय वर्ष 2018-19 और 2019-20 में मिला है। इसी प्रकार आम आदमी पार्टी को 94.28521 करोड़ चुनावी बॉण्ड से प्राप्त हुए हैं। सभी दलों में इसका हिस्सा 0.7866 प्रतिशत है। आप अभी दिल्ली और पंजाब में सरकार में है। इसके अलावा कर्नाटक की पार्टी जनता दल सेक्युलर को 48.7836 करोड़ रुपये, बिहार की सत्ताधारी पार्टी जदयू को 24.40 करोड़ रुपये और समाजवादी पार्टी को 14.05 करोड़ रुपये चुनावी बॉण्ड से मिले हैं।
वहीं राजनीतिक गलियारों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केन्द्र सरकार के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता का तर्क था कि योजना का फोकस ‘गुमनाम’ सुनिश्चित करना नहीं है, बल्कि ‘गोपनीयता’ सुनिश्चित करना है। निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने के शीर्ष अदालत के 2019 के फैसले का जिक्र करते हुए उन्होंने तर्क दिया कि दाताओं को निजता का अधिकार है जब तक कि जानकारी वास्तविक सार्वजनिक हित का स्रोत न हो, इस मामले में लोग अदालत का रुख कर सकते हैं। सॉलिसिटर जनरल ने अदालत को उन तरीकों का विस्तृत विवरण भी दिया था कि संसद, सरकार और चुनाव आयोग ने पिछले कुछ वर्षों में राजनीति में काले धन के प्रसार को रोकने का प्रयास किया है। उन्होंने दावा किया कि चुनावी बॉण्ड योजना विभिन्न प्रकार की योजनाओं, संशोधनों और नीतियों का अध्ययन करने के बाद पेश की गई थी। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि यदि योजना में कोई खामियां थीं, तो इसे रद्द करने के लिए केवल इतना ही पर्याप्त कारण नहीं होगा। लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से चुनावी बॉण्ड को असंवैधानिक करार दिया।
जानकारों का कहना है कि भ्रष्टाचार पर जो एक कानूनी जामा पहना दिया गया था वो सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्टोरल बॉण्ड्स को रद्द करते हुए उतार दिया है। कोर्ट के फैसले में कहा गया है कि अप्रैल 2019 से लेकर अभी तक जिन शैल कंपनियों ने इलेक्टोरल बॉण्ड के रास्ते से राजनीतिक दलों को पैसा दिया था वो पूरा ब्योरा बाहर आए। अब जबकि इलेक्टोरल बॉण्ड्स को असंवैधानिक करार दे दिया गया है तो जाहिर है कि चुनावी फंडिंग पर इसका व्यापक असर पड़ेगा। दरअसल, चुनाव के लिए फंडिंग हमेशा नकदी में होती थी। पूर्व में राजनीतिक दलों को चंदा देने वाले को यह बताना पड़ता था कि उसने कितना चंदा किस राजनीतिक दल या राजनेता को दिया है। लेकिन चुनावी बॉण्ड से यह व्यवस्था पारदर्शी नहीं रह गयी थी। वास्तव में पारदर्शिता तभी आएगी जब चुनावों की फंडिंग राज्य करेगा और राजनीतिक दलों के चुनाव खर्च की सीमा तय की जाएगी।
अभी सिर्फ उम्मीदवारों के चुनाव खर्च की सीमा तय है और पार्टियां यह कह कर बच निकलती हैं कि खर्चा पार्टी ने किया उम्मीदवार ने नहीं। इस वजह से धांधली होती थी। जब पार्टियों के खर्चे की भी सीमा तय होगी और पार्टियों को इसका का लेखा जोखा देना होगा, तभी पारदर्शिता आएगी। खैर, अब सुप्रीम आदेश के बाद आने वाले हफ्तों में यह जानकारी सामने आएगी कि किसने इलेक्टोरल बॉण्ड खरीदे और किस पार्टी को दिए। वैसे कई विशेषज्ञों का मानना है कि गुरुवार के सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इलेक्टोरल बॉण्ड पर तो रोक लग गई लेकिन इन योजना की वजह से जो कथित भ्रष्टाचार हुआ है उस की तह तक पहुंचने की कोशिश अभी बाकी है।