अद्धयात्मदस्तक-विशेष

भोजन शरीर निर्माण का तत्व तो है लेकिन शक्तिदाता नहीं

प्रत्येक मानव के भीतर परमात्मा की अखण्ड सत्ता विद्यमान है और वही सारी शक्ति, आनन्द, ज्ञान और प्रेम का स्रोत है। भोजन से शक्ति, धन से सुख, पुस्तकों से ज्ञान और सम्बन्धियों से अपनत्व मानना ही इस सत्ता का निरादर एवं पाप है जिसका परिणाम रोग, वियोग, मलिनता और आवागमन है। श्रीमानस में दु:ख को पाप का परिणाम कहा गया है।
कर्रंह पाप पार्वंह दु:ख भय रुज सोक वियोग।
गलत धारणा (भावना) ही पाप है। यदि सही सिद्धान्त समझकर सही प्रविधि अपनाई जाए तो इस पाप के परिणाम भय, रुज, शोक, वियोग- सब दु:खों से छुटकारा मिलेगा।

धारणा की भ्रान्तियां

  1. शरीर के स्तर पर औषधि से स्वास्थ्य प्राप्ति की आशा।
  2. इन्द्रियों के स्तर पर भोजन (पौष्टिक पदार्थों) से शक्ति प्राप्ति की आशा।
  3. मन के स्तर पर अनुकूल परिस्थिति और धन से आनन्द प्राप्ति की आशा।
  4. बुद्धि के स्तर पर पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्ति की आशा।
  5. अहं के स्तर पर सम्बन्धियों से अपनत्व और सहायता की आशा।

इन भ्रान्तियों का कारण यह है कि वास्तविकता कुछ है, प्रतीत कुछ और हो रहा है। जैसे अंधेरे में रस्सी सांप प्रतीत होती है। वास्तविकता यह है कि भोजन शरीर निर्माण का तत्व तो है लेकिन शक्तिदाता नहीं है। औषधि रोग के लक्षणों को कुछ समय के लिए दबा देती है, स्वस्थ जीवन नहीं प्रदान कर सकती। धन भोग के साधन जुटा सकता है, वास्तविक सुख नहीं दे सकता। पुस्तकें सूचना मात्र देती हैं, उनसे ज्ञान की अनुभूति परिवारजनों के प्रति हमारा कत्र्तव्य तो है लेकिन उनसे अपनत्व और आसक्ति रखना वियोग और दु:ख का कारण बनता है।
मानव के पांच स्तरों पर पांच विकारों के कारण भगवान की शक्ति, आनन्द, ज्ञान और प्रेम का प्रस्फुटीकरण रुका हुआ है। ये विकार हैं- शरीर के स्तर पर मल। इन्द्रियों के स्तर पर अम्ल। मन के स्तर पर आसक्ति। बुद्धि के स्तर पर अहंकार। अहं के स्तर पर मिथ्या अपनत्व। इन संचित विकारों का निष्कासन ही तुलसीदासजी की बताई गयी साधना का आधार है।

पंचसूत्री साधना प्रणाली
हम श्रीरामचरितमानस के कथानकों में निहित वैदिक सिद्धान्तों और उन सिद्धान्तों के अनुसार निम्न पंचसूत्री साधना प्रणाली का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं और अपने प्रयोगों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह साधना विज्ञान सम्मत एवं सर्वथा व्यावहारिक है-

  1. सन्तुलित आहार द्वारा अखण्ड स्वास्थ्य
  2. युक्तियुक्त उपवास द्वारा अखण्ड शक्ति
  3. विवेकपूर्ण सेवा द्वारा अखण्ड आनन्द
  4. विधिवत ध्यान द्वारा अखण्ड ज्ञान और
  5. सर्वभावेन् आत्मसमर्पण द्वारा अखण्ड प्रेम।
    ये उपलब्धियां इनके प्रयोग से होती हैं जिससे रोग, थकावट, चिन्ता, भय और वियोग से मुक्ति मिलती है। आस्तिक लोग भगवान का अस्तित्व तो मानते हैं, पर उनके व्यापकत्व और प्रेरकत्व का निरादर करते हैं। अगर वे आनन्द बिखेरें, दूसरों को दें तो यह लौटकर उन्हें वापस मिलेगा। सेवा भगवान की करनी है, जो चराचर में व्याप्त है। नित्य एकाहार भोजन करना, आमदनी का दसांश, भोजन का चतुर्थांश और समय का चौबीसवां भाग साक्षात् नारायण की सेवा में लगाना साधकों के जीवन का अंग बन गया है। हमारा सुखों के उपभोग से कोई विरोध नहीं है। मन के विकार वितरण-परायण सीमित उपभोग द्वारा दूर होते हैं, न कि दमन से।

उपलब्धियां
साधकों को ‘रामकृपा नार्संह सब रोगा’ की अनुभूति हुई है। रामकृपा से ही विवेकपूर्ण साधना के बाद कार्यकारक सम्बन्ध जानकर बिना दवा के स्वास्थ्य, बिना भोजन के शक्ति, बिना धन के आनन्द, बिना पढ़े ज्ञान और बिना सम्बन्ध के प्रेम की उपलब्धि हुई है।

(पूज्य सद्गुरु ‘योगीजी’ के प्रवचनों से संकलित )

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