बूढ़ों की रक्षा की खातिर
प्रसंगवश
स्तम्भ: अपने देश में कई पश्चिमी देशों की तुलना में कम बूढ़े हैं तो भी उनकी खातिरदारी करने के कामों में सरकारी एजेंसियाॅ हाथ डालने से बचती हैं। नतीजा यह होता है कि परिवारों में समुचित समर्थन नहीं पा सकने के हालातों में वरिष्ठ नागरिक निराशा को ओढ़े ओढे़ बूढ़ापे की ओर बढ़ने की प्रक्रिया को जाने-अनजाने और भी तेज कर लेते हैं।
वित्तमंत्री सीतारमन ने जो पैकेज घोषित किए हैं, बूढ़े उनमें एक कोने में पड़े हुए नजर आते हैं। उन्होंने युवा जोश के साथ घोषणा की कि 3 करोड़ गरीब बूढ़ों को एक एक हजार रुपए की अनुग्रह राशि दी जाएगी। लेकिन इन 3 करोड़ में केवल वरिष्ठ नागरिक भर नहीं हैं- विधवाएं और शारीरिक रूप से अक्षम लोग भी शामिल हैं।
एक एक हजार रुपए की सहायता देकर केन्द्रीय सरकार अपने दायित्व का निर्वहन पूरा समझ रही है, तो कोई क्या कर सकता है। पूरी दुनिया में बूढ़ी आबादी की बेतहाशा परवाह की जाती है। उनके पक्ष में ऐसे कानून हैं कि उन्होंने घर के युवा तंग न कर सकें। लेकिन अपने देश में पिछले एक साल में ही वरिष्ठ नागरिकों को मिल रही सुविधाएं वापस ले ली गईं। बैंकों में पैसा जमा करने पर जो ब्याज उन्हें मिलते थे, उनमें कटौती कर दी गई। पेंशन का एक हिस्सा सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया हालाॅकि दो चार साल में आगे जब वे और बूढ़े हो जाएंगे, देने का वादा जरूर किया है। राष्ट्रीय बचत पत्र की ब्याज दर घटाकर 6.8 कर दी गई है। इसी तरह सावधि जमाओं की दरें भी कम कर दी गई हैं। एक जमाना था जब 6-7 साल में जमा धन दुगुना हो जाता था।
अमेरिका, इटली और चीन में 65 साल से ज्यादा आयु के लोगों की संख्या 20 से 25 प्रतिशत के बीच है। भारत में करीब 16 करोड़ लोग ऐसे हैं जो 60 साल से ज्यादा आयु वर्ग में आते हैं। यह प्रतिशत करीब 9 बैठता है। वरिष्ठ नागरिकों की आबादी उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा है- करीब 15 प्रतिशत है। दक्षिण भारत के केरल जैसे राज्यों में 15 प्रतिशत से ज्यादा बूढ़े निवास करते हैं जबकि पूर्वोत्तर में यह आबादी 15 प्रतिशत से कम है।
प्रधानमंत्री ने 14 अप्रैल को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में लोगों से अपील की थी कि बूढ़ों की रक्षा करें। पर उनकी सरकार ने खुद क्या किया, इसके समर्थन में कोई आंकड़े ऐसे नहीं कि अपने चष्मों के मोटे षीषों के पीछे से वरिष्ठ नागरिक पढ़ सकें। कोरोना से जो ग्रसित हुए हैं, उनमें से ज्यादा गंभीर श्रेणी में बूढ़े ही आते हैं। और उसकी वजह है। महामारी कमजोरों- शारीरिक रूप से कमजोरों-पर पहले हमले करती है। रक्तचाप, मधुमेह, लीवर, किडनी के तमाम रोेग जो बुढ़ापे में ज्यादा उग्र होने लगते हैं, कोरोना के सबसे आसान शिकार होते हैं और हो भी रहे हैं।
प्रधानमंत्री ने इसीलिए शायद उनकी हिफाजत किए जाने की पुरजोर अपील की थी। घर से बाहर न निकलने की सबसे ज्यादा अपीलें इसी बूढ़े वर्ग से की जाती हैं। लेकिन ऐसे उपाय कम ही किए गए कि उन्हें बाहर निकलना ही न पड़े।
मसलन अस्पतालों, बैंकों, दूसरे दफ्तरों की तरफ से ऐसे बहुत कम ही उपाय किए गए हैं कि वरिष्ठ लोग फोन करें तो उनके घर आकर उनकी सेवा की जाय, उनकी सुन ली जाय, उनकी मदद कर दी जाय। इस बात की कोई मदद वरिष्ठों को क्या देता है कि उन्हें पता चल सके कि उनके खाते में माहवारी पेंशन आ गई कि नहीं, जिस निशुल्क दवा के वे सरकारी अस्पतालों से हकदार हैं, वह उन तक पहुॅच जाय। आयुष्मान भारत का कितना भी ढोल पीट लिया जाय, उन बूढ़ों सेे उसकी मदद का हाथ उससे बहुत दूर है, जिसकी इस वर्ग को सबसे ज्यादा जरूरत होती है।
यह वो मौका है जब युवा वर्ग को बूढ़ों की हर तरह से मदद करने के लिए प्रोत्साहन दिए जाएं। अभी हाल में यूरोप के कुछ युवाओं ने पूरी दुनिया के 18 देशों में एक सर्वे कराया था, यह पता लगाने के लिए कि वे खुद किन मुसीबतों से घिरे हुए हैं।
इस सर्वे का सामान्य नतीजा यह था कि कोरोना ने उनका 86 प्रतिशत काम बरबादी के कगार पर पहुॅचा दिया है। वे कैसे उबर सकते हैं, उन्होंने तरीके बताए: उन्हें करों में रियायत दी जाय, कर की दरें कम की जायं, ज्यादा से ज्यादा कर्जे दिए जायें, कर्मचारियों को वेतन देने के लिए वित्तीय सहायता दी जाय और बढ़े बुजुर्गों का खर्चा उठाने के लिए नकद प्रोत्साहन दिए जाएं।
और अंत में, कहा भी जाता है कि आप बूढ़े हो रहे हैं, इसलिए हंसना बंद नहीं करिए। हंसना बंद कर देंगे तो निश्चित ही बूढ़े हो जाएंगे। यह भी कहा जाता है कि आप बस जिए जाइए, अपनी उम्र भूल जाइए।