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मज़दूरी की मजबूरी?

अशोक पाण्डेय

प्रयागराज: लोगों की तकलीफ़ें, उनके दर्द और इस सबके प्रति एक बेहद ही क्रूर उदासीनता केवल इसी जमाने की कोई नयी चीज़ नहीं है। फ़र्क़ केवल इतना है कि हरेक ऐसे संकट के बाद व्यवस्थाओं के कपड़े और ज़्यादा फटे हुए नज़र आने लगते हैं। कहीं भी बदलता बहुत कुछ नहीं है। पिछले सत्तर वर्षों से ही नहीं बल्कि दो सौ सालों से जारी है। पर एक बड़ा फ़र्क़ जो इस महामारी ने पैदा कर दिया है। वह यह कि मजदूरों ने इस बात की चिंता नहीं की कि कोई ट्रेन उसे उसके शहर तक ले जाएगी भी या नहीं और अगर ले भी गई तो पैसे उससे ही वसूले जाएँगे या फिर कोई और देगा।

वह पैदल ही चल पड़ा है अपने घर की तरफ़। जिनके लिए यह मजदूर दिन-रात खून पसीना बहा कर उनके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सुहाग की रक्षा करते रहें। आज़ वहीं अमानवीय और क्रूरता की हद पार कर अपने घरों में ठाठ से बैठें हैं। और उसे इस तरह से नंगे पैर चलते देख उसकी औक़ात को अब तक अपने क़ीमती जूतों की नोक पर रखने वाली सरकारें भी नहीं हिली। एक रिपोर्ट में ज़िक्र है कि ये जो अपने घरों को लौटने वाले प्रवासी नायक हैं उनमें कोई 51 की मौतें पैदल यात्रा के दौरान सड़क दुर्घटनाओं में हो गई।

भूख और आर्थिक संकट के कारण हुई मौतें अलग हैं। औरंगाबाद में सोलह मजदूरों को काटती हुई ट्रेन आगे चलीं गईं। ये मजदूर महाराष्ट्र के जालना से मध्यप्रदेश के उमरिया और शहडोल जाने के लिए भुसावल जा रहे थे जहाँ उन्हें वह यात्री रेलगाड़ी मिलने की उम्मीद थी जो उनके गांव के आसपास तक पहुॅचा देती। वे रेल की पटरियों के किनारे किनारे चल रहे थे क्योंकि सड़कें तो पुलिस के डंडों ने उनके लिए रास्ते बंद कर रखें हैं। सरकार के अधिकारी कहते हैं कि ये मजदूर ट्रैक पर सो रहे थे? इन मजदूरों को रेलवे ट्रैक पर चलने और सोने के लिए किसने बाध्य किया?

कल्पना की जानी चाहिए कि 18 मज़दूर ऐसी किस मज़बूरी के चलते सीमेंट मिक्सर गाड़ी की मशीन में घुटने मोड़कर छुपते हुए नासिक से लखनऊ तक बारह सौ किलो मीटर तक की यात्रा करने को तैयार हो गए होंगे?

इंदौर के निकट उन्हें पकड़ने वाली पुलिस टीम को उच्चाधिकारियों द्वारा पुरस्कृत किया गया। इसी महामारी में तीन राज्यों ने श्रमिक कानूनों में कई परिवर्तन लागू कर दिए हैं। यह परिवर्तन मालिकों के हित साधने के उद्देश्य से किए गए हैं। उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में श्रमिक कानूनों में पूंजीपतियों के हित में जो संशोधन किए गए हैं। मजदूरों के लिए नई चुनौतियां और परेशानियां लेकर आएंगी।

एक अमेरिकी रिपोर्ट का अध्ययन है कि महामारी के पूरी तरह से शांत होने में अट्ठारह से चौबीस महीने लगेंगे और तब तक दो-तिहाई आबादी उससे संक्रमित हो चुकी होगी। हमें कहने का अधिकार है कि रिपोर्ट ग़लत है।

जैसे परिंदों को आने वाले तूफ़ान के संकेत पहले से मिल जाते हैं, ये जो पैदल लौट रहे हैं और जिनके रेल भाड़े को लेकर ज़ुबानी दंगल चल रहे है उन्होंने यह भी तय कर रखा है कि अगर मरना ही है तो फिर जगह कौन सी होनी चाहिए। इन मज़दूरों को तो पहले से ज्ञान था कि उन्हें बीच रास्तों पर रुकने के लिए क्यों कहा जा रहा है। कर्नाटक, तेलंगाना और हरियाणा के मुख्यमंत्री अगर प्रवासी मज़दूरों को रुकने के लिए कह रहे हैं तो वह उनके प्रति किसी ख़ास प्रेम के चलते नहीं बल्कि इसलिए है कि इन लोगों के बिना उनके प्रदेशों की आर्थिक सम्पन्नता का सुहाग ख़तरे में पड़ने वाला है। राज्यों में फसलें खेतों में तैयार खड़ी हैं और उन्हें काटनेवाला मज़दूर भूखे पेट सड़कें नाप रहा है।

मज़दूरों के पास न खाने का कुछ है, न रहने का इंतज़ाम है और न ही परदेस में उनके रहने की कोई वजह है, तो वो करें क्या? चल पड़े हैं अपने घरों के लिए। जिसे जो रास्ता मिला, जो तरीक़ा मिला, जो साथ मिला और जो साधन मिला, उसी का सहारा लेकर चल दिए।

तमाम दुर्दशा, बेइज़्ज़ती और अभाव की स्थिति में ये मज़दूर अपने भीतर जिस पीड़ा को भरकर घरों को लौट रहे हैं, वो अर्थव्यवस्था पर क्या असर डालेगी, कल्पना करना मुश्किल है। कुछ मज़दूरों का तो यहां तक कहना है कि वो अपने घरों में भूखे रह लेंगे, लेकिन महानगरों की ओर कभी रुख़ नहीं करेंगे, क्योंकि वहां ये किसी अपने को दखने को तरस गए।

न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए
दुष्यंत कुमार

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