लोकतांत्रिक अधिकार है गरीबों को मुफ्त अनाज
ललित गर्ग
आजादी के अमृत महोत्सव मना चुके मुल्क में, एक शोषणविहीन समाज में, एक समतावादी दृष्टिकोण में और एक कल्याणकारी समाजवादी व्यवस्था में आबादी के एक बड़े हिस्से का भूखे रहना या भूखें ही सो जाना शर्म का विषय होना चाहिए। इस तरह की स्थितियों का होना राष्ट्र के कर्णधारों के लिये शर्म का विषय होना चाहिए। जो रोटी नहीं दे सके वह सरकार कैसी? जो गरीबी पर वोट की राजनीति करें, वह शासन-व्यवस्था कैसी? शर्म का विषय तो बेरोजगार को रोजगार न देना भी होना चाहिए। लेकिन हमारी पूर्व सरकारों ने गरीबी, भूख एवं बेरोजगारी को केवल सत्ता हासिल करने का हथियार बना रखा था। दुनिया की तमाम शासन व्यवस्थाएं हर नागरिक को कोई न कोई ऐसा काम देने, जिससे वह खुद अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सके, नाकाम रही है। सबको रोटी एवं रोजगार देने की आदर्श स्थिति शायद किसी भी देश में नहीं है। इसलिए जो लोग खुद अपने भोजन का प्रबंध कर पाने में अक्षम हैं, उन्हें भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी सरकारों पर आ जाती है। ऐसे लोगों के लिये प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनकी सरकार ने एक उल्लेखनीय जन-कल्याणकारी निर्णय के अन्तर्गत राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत गरीबी रेखा के नीचे प्रत्येक परिवार को प्रतिमाह 35 किलो अनाज मुफ्त सुलभ कराने की घोषणा की है। अब किसी को भूखे पेट नहीं सोना पड़ेगा। भारत की 135 करोड़ आबादी को देखते हुए 81 करोड़ से अधिक लोग ऐसे हैं जो इस मदद का लाभ उठायेंगे।
सरकार को अधिक लोककल्याणकारी शासन-व्यवस्था की ओर बढ़ते हुए ऐसी भी योजनाएं लागू करनी चाहिए जिससे किसी भी नागरिक को मुफ्त अनाज के विवश न होना पड़े। वह सक्षम बने अपने भरण-पोषण के लिये। हर व्यक्ति को काम मिले, ऐसी योजना पर गंभीरता से कदम बढ़ाये जाने चाहिए। इसी से गरीबी का संबोधन मिट सकेगा। इसी से भारत एक आदर्श समाज-व्यवस्था को निर्मित करते हुए सशक्त भारत- नये भारत के संकल्प को सार्थक आयाम दे सकेगा। स्वयं का भी विकास और समाज का भी विकास, यही समष्टिवाद है और यही धर्म है, यही संतुलित एवं समतामूलक नजरिया है। निजीवाद कभी धर्म नहीं रहा। जीवन वही सार्थक है, जो समष्टिवाद से प्रेरित है। केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें अपने समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है। परशुराम ने यही बात भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आये हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं।
लगभग यही स्थिति नरेन्द्र मोदी के सामने है कि दुनिया में अपना नाम बहुत कर चुके, अपनी सरकार की स्थिति भी बहुत मजबूत कर चुके, अब वह करो, जिससे भारत से गरीबी की त्रासद स्थिति खत्म हो जाये। मोदी ऐसा ही करने की ओर तत्पर है। हालांकि भोजन के अधिकार के नाम से विख्यात राष्ट्रीय सुरक्षा खाद्य अधिनियम 2013 में डा. मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान पारित हुआ था मगर इसे सुचारु रूप से लागू करने की जिम्मेदारी 2014 में सत्ता में आयी मोदी सरकार को ही निभानी पड़ी थी। केन्द्र सरकार ने 2020 में कोरोना संक्रमण के फैलने पर इस अधिकार के अतिरिक्त गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रति माह पांच किलो अनाज मुफ्त प्रदान कराने की योजना भी लागू की थी। इस योजना को दिसम्बर 2022 तक बढ़ा दिया गया था जबकि खाद्य सुरक्षा अधिनियम बदस्तूर लागू था। खाद्य सुरक्षा कानून के तहत गरीब परिवारों को चावल तीन रु., गेहूं दो रु. व मोटा अनाज एक रु., प्रतिकिलो की दर से मुहैया कराया जाता था। अब यह मुफ्त सुलभ कराया जायेगा और यह योजना 1 जनवरी 2023 से शुरू होकर 31 दिसम्बर 2023 तक लागू रहेगी।
पिछले कई सालों से लगातार भारत विश्व भुखमरी सूचकांक में पायदान-दर-पायदान नीचे खिसक रहा है। अगले साल आबादी के पैमाने पर हम दुनिया का सबसे बड़ा देश बनने जा रहे हैं। इस तरह भोजन और पोषण संबंधी चुनौतियां उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही हैं। उत्पादन के मामले में भी पिछड़ रहे हैं। इसलिए खाद्य सुरक्षा को लेकर चिंता स्वाभाविक है। विशेषज्ञ लगातार सुझाव देते रहे हैं कि इस समस्या से पार पाने का यही तरीका है कि हर हाथ को काम मिले। मगर इस पहलू पर सफलता कठिन बनी हुई है। गरीबी और भुखमरी हर चुनाव में मुद्दा बनती है, राजनीतिक दल इनके जरिए गरीबों का लुभाने एवं ठगने का भी प्रयास करते हैं, मगर हकीकत यही है कि हर साल ये समस्याएं बढ़ रही हैं। इनके समाधान के लिए दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की जरूरत है। ऐसी दृढ़ इच्छाशक्ति मोदी ने दिखाई है, उससे यह विश्वास जगा है कि देश से गरीबी को दूर किया जा सकेगा। क्योंकि गरीबी के कायम रहते हुए यदि हम दुनिया की आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर होते हैं, जो यह बेमानी जैसा लगता है। भारत जैसे विकासशील देश में अन्न सुरक्षा कानून के तहत शहरों की पचास प्रतिशत आबादी व गांवों की 75 प्रतिशत आबादी आती है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि आर्थिक असमानता का स्तर क्या है? इस असमानता को पाटने की गरज से ही खाद्य सुरक्षा कानून बनाया गया था जिसका पालन पिछले नौ वर्षों से हो रहा है।
कल्याणकारी राज में सरकार अपने नागरिकों की आर्थिक हैसियत देखकर जो भी सुविधाएं उन्हें उपलब्ध कराती है, वह कोई खैरात या दया नहीं होती बल्कि उनका अधिकार होता है क्योंकि प्रत्येक नागरिक किसी न किसी रूप में राष्ट्र के विकास में अपना योगदान देता है। वैसे भी लोकतन्त्र का यह नियम होता है कि नागरिकों को सुविधाएं उनके कानूनी हक के रूप में मिलती हैं क्योंकि उन्हीं के एक वोट की ताकत से सरकारों का गठन या बदलाव होता है। इस तरह मुफ्त अनाज उपलब्ध कराना एवं वोटों को प्रभावित करने के लिये मुफ्त की बिजली एवं पानी या अन्य सुविधाओं में बड़ा अन्तर है। इनमें नीति एवं नियत का भी फर्क है। मगर हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अगले वर्ष 2024 में लोकसभा के चुनाव होने हैं, अतः गरीबों को मुफ्त अनाज के राजनैतिक आयाम भी हो सकते हैं। इसके बावजूद सरकार का फैसला सराहनीय कहा जायेगा क्योंकि लोकतन्त्र में नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की आपूर्ति करना सरकार का प्राथमिक दायित्व होता है। मूलभूत आवश्यकताओं में ही रोजगार भी है, रोजगार का अर्थ केवल सरकारी नौकरी या सरकारी काम से मानते चलेंगे तो कभी भी यह लक्ष्य हासिल नहीं कर पायेंगे। नागरिकों को ऐसी सुविधाएं दी जाये कि वे रोजगार लेने वाले नहीं बल्कि रोजगार देने वाले या स्वरोजगार करने वाले बने।
अगर तटस्थ दृष्टि से बिना रंगीन चश्मा लगाए देखें तो गरीबी देश का एक बड़ा अभिशाप हैं। गरीब, यानि जो होना चाहिए, वह नहीं हैं। जो प्राप्त करना चाहिए, वह प्राप्त नहीं है। चाहे हम अज्ञानी हैं, चाहे भयभीत हैं, चाहे लालची हैं, चाहे निराश हैं। हर दृष्टि से हम गरीब हैं। लेकिन इस गरीबी से बड़ी है भूखे सोने की विवशता। यह भूख एवं गरीबी भयभीत करती है। अमीरी एवं गरीबी के बीच बढ़ती दूरी अधिक भयभीत करती है। क्योंकि गरीबी का बड़ा कारण कुछ चुनीन्दा लोगों के हाथ में अमीरी का केन्द्रित होना है। गरीबी की शर्म की रेखा को तोड़ने के लिए मोदी ने जो कदम उठाया है, निश्चित ही स्वागतयोग्य है। शर्मी और बेशर्मी दोनों मिटें, गरीबी का संबोधन मिटे, तब हम नये भारत-सशक्त भारत के सूर्योदय के नजदीक होंगे।