दस्तक-विशेषसाहित्यस्तम्भ

हिंदी का दर्द चीन्हें!

के. विक्रम राव

स्तम्भ: जरूरत है अब कि अकादमिक क्षेत्र के साथ स्कूली स्तर पर सुधार के कदम उठाये जाएँ। ताकि इतनी बड़ी संख्या में परीक्षार्थी न लुढ़कें। जैसे स्नातक कक्षा तक हिंदी अनिवार्य हो। उसमें उत्तीर्ण हुए बिना डिग्री तथा प्रोन्नति न दी जाय। अपना उदहारण दूं। मैंने बारहवीं तक ही हिंदी सीखी है। स्नातक कक्षा में लखनऊ विश्वविद्यालय में जनरल इंग्लिश में पास होना अनिवार्य था। हालाँकि मैंने विरोध किया क्योंकि मेरे विषयों में अंग्रेजी साहित्य (विशेष) था, तो जनरल इंग्लिश में पास होना बेमाने था।

हिंदी का दर्द चीन्हें!

व्याकरणाचार्य को “अकः सवर्णे दीर्घ:” सिखाएंगे? संस्कृत साहित्य और समाजशास्त्र मेरे अन्य वैकल्पिक विषय थे। आवश्यक रूप से अब एक अनिवार्य कदम उठे। कान्वेंट स्कूलों के लिए कानून बनाना होगा कि वे हिंदी की चिन्दी न बनाएं। मेरा पुत्र सुदेव लामार्टीनियर कॉलेज में आठवीं में हिंदी में पिछड़ गया था। फिर भी उसे प्रोन्नत कर दिया गया। प्रिंसिपल ने मेरे प्रतिरोध पर कहा कि “यदि अंग्रेजी में फेल हो तो रोक देते हैं। हिंदी में नहीं।” राजधानी में हिंदी परीक्षा का ऐसा हस्र है।

एक अन्य उदहारण मिला। आगरा के केन्द्रीय हिंदी संस्थान में मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी गयीं थीं(6 नवम्बर 2014)। वहां केंद्र के नए बहुउद्देशीय सभागार के विवरण का पर्चा अंग्रेजी में बंट रहा था। श्रोता हिंदी भाषी थे। केंद्र हिंदी वाला है।

हिंदी का भी नवीनीकरण करना होगा। उपादेयता के लिहाज से। लखनऊ विश्वविद्यालय में मेरे समकालीन रहे डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित की राय से मैं सहमत हूँ। हिंदी भाषा तथा पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष रहे, डॉ. दीक्षित बोले, “हिंदी की उपेक्षा हमारे समाज में हो रही है जिसका असर बच्चों पर पड़ना लाजिमी है। हिंदी हमारे बोलचाल की भाषा तो है लेकिन जो हिंदी हाईस्कूल व इंटरमीडियट के कोर्स में है वह पांच-छः सौ साल पुरानी भाषा है।

इनमें सूर, तुलसी, कबीर समेत अन्य कवियों व लेखकों को पढ़ाया जाता है, जिसकी वजह से छात्रों को वह थोडा अटपटा लगता है। अवधी या बृज भाषा अब समाज में बोलचाल की भाषा नहीं रही। इसके लिए शिक्षकों को छात्रों के साथ जुटने की जरूरत होती है। कोर्स में जो व्याकरण है, उसके लिए बाकायदा लैब की जरूरत है।”

Hindi pain

हिंदी पट्टी से हटकर भारतवर्ष के दक्षिण पर नजर डालें। एर्नाकुलम के संत एंथोनी चर्च में हर रविवार के अपराह्न तीन बजे ईसा मसीह की “मास” प्रार्थना निखालिस हिंदी में पढ़ी जाती है। वहां उत्तर भारत के बीस लाख हिंदी-भाषी मजदूर कार्यरत हैं (कोरोना काल के पूर्व)। कुछ समय पूर्व दूधवा पार्क में कर्नाटक से हाथी लाये गए। वो कन्नड़ भाषा में संकेत समझते थे। हिंदी में समझाया गया तो सीख गए। मसलन कन्नड़ में “तिरुगु” कहते है।

हाथियों ने जान लिया कि मतलब “घूमो” से है। और घूम गए। अतः अब उत्तर प्रदेश में परीक्षार्थियों को सीखना होगा : “आगे बढ़ें”, जिसे मेरी मातृभाषा में तेलुगु में कहेंगे “पदंटि मुंदकू”। कभी लोकप्रिय कम्युनिस्ट कवि श्रीरंगम श्रीनिवास का इसी शीर्षक का मशहूर इंकलाबी पद्य होता था। कुछ जयशंकर प्रसाद की “हिमाद्रि तुंग श्रृंग से” से मिलता जुलता। इस सूत्र को आकार देना हिंदी प्रेमियों का आज फर्ज है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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