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उपनिवेशवाद का इतिहास-कुछ पहलू

के.एन. गोविन्दाचार्य

विश्व में ई. 1500 से प्रारंभ हुए उपनिवेशवाद की अमानुषिकता के लक्षण थे : लूट, हथियारवाद, शोषण, अत्याचार, लूट नवदास प्रथा का उभार। अमेरिका, अफ्रिका मे भीषण नरसंहार हुआ। यूरोपीय कबीलावाद का पुनरोदय हुआ। उत्पादन फैक्ट्री मे, फैक्ट्री के लिये शहर की बसाहट, स्लम जीवन, उभरा टेक्नोलॉजी का प्रभाव बढ़ने से अर्थ व्यवस्था एवं यूरोपीय राजनीति का स्वरूप बदला।

1550 से 1650 उपनिवेशवादियों की आपसी लड़ाई के साथ-साथ व्यापार से राजनीति की ओर बढ़ाव हुआ।

1650-1850 भारत मे लूट, यूरोप का घर भरना, इंग्लैंड वर्चस्व की ओर औद्योगिक क्रान्ति मे भारत की लूट का योगदान, ये सारे परिणाम थे।

1850 से आगे टिके रहने मे दिक्कतें और यूरोप मे स्पर्धा, तनाव बढा। भारत सर्वाधिक दबाव मे 1750-1850 तक आया।

भाषा-भूषा, भोजन-भवन, भेषज-भजन में भी प्रभाव बढ़ा। यूरोप में तनाव और सर्वाधिकार की होड़ मची।

इंग्लैंड का अंधानुकरण भारत में हर तरह से बढ़ा, प्रतिरोध भी सामान्य जन की ओर से बढ़ा। प्रगति, विकास, आधुनिकता की परिभाषाएँ विकृत हो गई। शिक्षा, संस्कार की व्यवस्था पर भारी हमला हुआ। आत्म विस्मृति का भयंकर दौर आया। राष्ट्रीय समाज ने प्रतिकार भी किया।

यूरोपीय लोगों द्वारा शोषण के हर संभव उपाय मे टेक्नोलॉजी उपयोगी रही। यों तो भारत पर पड़े प्रभाव दर्दनाक थे फिर भी उत्तर दक्षिण अमेरिका, अफ्रिका पूर्व एशियाई देश आदि में तो अकल्पनीय अति हुई।

आपसी स्पर्धा के फलस्वरूप इस सिलसिले का रूपांतरण प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध मे हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के फल के रूप में उपनिवेशवाद को नया स्वरुप प्राप्त होना स्वाभाविक था।
विशेष चिन्ता यूरोप, अमेरिका मे यह बनी कि भारत अंग्रेज छोड़ें फिर भी यूरोपीय परिधि मे भारत बना रहे ऐसी चिंता, व्यवस्था की जाय।

भारत की तुलना मे दुनिया के अन्य भाग में दुर्दशा ज्यादा ही हुई। भारत मे प्रतिरोध भी सदैव रहा, अंग्रेजों को भयभीत करता रहा। उत्तर दक्षिण अमेरिका में यूरोपीय नरसंहार की क्रूरता, मानवीय इतिहास मे सबसे घिनौनी है।

अफ्रिका से लोगों को जिस प्रकार अपने घरों से उजाड़कर उपनिवेशों मे भेजा गया, उसका आड़ना तथाकथित सभ्य यूरोप, अमेरिका को दिखाया जाना चाहिये। उपनिवेशवादी ताकतों ने धीरे-धीरे पिछले 100 वर्षों में सरकारवाद और बाजारवाद को वर्चस्व स्थापना के हथियार के नाते अपनाया है।

सरकारवाद, सामरिक शक्ति पर आधारित है और बाजारवाद, आर्थिक शक्ति पर आधारित है। ये दोनों ही उपकरण तकनीकी के माध्यम से वर्चस्व स्थापना के लिये प्रत्यक्ष, परोक्ष रूप से सहायक है। इसमे छल, धोखा, कपट, अनैतिकता और “विषकुंभम् पयोमुखम” की कूटनीति काम आ रही है।

भारत का सामान्य जन विश्व कल्याण के भाव से पूरित है। वर्चस्व स्थापन, एवं शक्ति पर आधारित यूरोपीय मानस के समझने में देर लगाता है यह तथ्य चिन्तनीय है। सबको अपने जैसा समझना, भोलापन है, इसे सद्गुण विकृति कहते हैं।

दो पहलू आत्मविस्मृति एवं सद्गुण विकृति, नव उपनिवेशवाद से मुकाबला करने में बाधक है। सत्य से रूबरू होना जरुरी है। पिछले 500 वर्षों की गतिशीलता के बारे में आगे चर्चा होगी।

(लेखक प्रबुद्ध विचारक हैं)

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