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जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े विचारों का इतिहास

नई दिल्ली ( विवेक ओझा) : जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से पूरी दुनिया प्रभावित है। कहीं बारिश ही बारिश, कहीं बिल्कुल सुखा, बंजर होती रेगिस्तानी भूमि, कृषि की घटती पैदावार, जीव जंतुओं की विलुप्ति सभी कुछ ग्लोबल वार्मिंग और उसके चलते होने वाले जलवायु परिवर्तन की देन है। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के बारे में कई पर्यावरणविदो ने समय समय पर कुछ विचार और सिद्धांत दिए हैं जिन्हें जानना सभी के लिए आवश्यक है।

जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का इतिहास –

सवांटे एरहेनियस पहले वैज्ञानिक थे ( स्वीडिश वैज्ञानिक ) जिन्होंने ग्रीन हाउस गैस या ग्लोबल वार्मिंग को जीवाश्म ईंधन के दहन के साथ जोड़ा । उन्होंने वायुमंडलीय कॉर्बन डाई ऑक्साइड के संकेद्रण और बढ़े हुए ग्लोबल वार्मिंग के मध्य संबंध को अपने अनुसंधान के जरिए उजागर किया । तापमान में वृद्धि के कारण के रूप में भी उन्होंने कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते हुए संकेद्रण को ही जिम्मेदार बताया । उन्होंने अपने अध्ययन में पाया कि पृथ्वी पर औसत धरातल तापमान या सतह का तापमान लगभग 15 डिग्री सेल्सियस है और ऐसा जलवाष्प और कार्बन डाइऑक्साइड के अवरक्त अवशोषण क्षमता के चलते है और इसी परिघटना को उन्होंने प्राकृतिक ग्रीन हाउस प्रभाव कहा है । इनका मत था कि कि कार्बन डाइऑक्साइड संकेद्रण के दो गुना होने से 50डिग्री सेल्सियस की तापमान वृद्धि होगी ।

ऐरेहेनियस और थॉमस चैंबरलिन ने मिलकर स्पष्ट किया कि मानव गतिविधियों से या एंथरोपॉजैनिक इन्टरवेंशन पृथ्वी का तापमान बढ़ता है क्योंकि जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल से वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है । 1940 के दशक में दीर्घ तरंगीय विकिरणों के मापन के लिए इन्फ्रारेड स्पेक्ट्रोस्कोपी के क्षेत्र में विकास होने लगे । उस समय यह सिद्ध हो चुका था कि वायुमंडलीय कॉर्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि का परिणाम अधिक अवरक्त विकिरण के अधिक अवशोषण के रूप में दिखता है । यह भी पता लगाया गया कि जलवाष्प द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड से बिल्कुल भिन्न प्रकार के विकिरणों को अवशोषित किया गया ।

इन परिणामों को 1955 में गिलबर्ट प्लास ने सुत्रबद्ध किया । गिलबर्ट का भी कहना था कि वायुमंडल में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड के प्रवेश से इन्फ्रारेड रेडिएशन पर असर पहुंचता है ।1960 के दशक में चार्ल्स कीलिंग ने अंटार्कटिका और मौना लोआ में वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के संकेद्रण वक्र को उत्पन्न करने वाले आधुनिक प्रौद्योगिकी का उपयोग किया । इन वक्रों में 1940 के दशक से 1970 के दशक में वैश्विक वार्षिक तापमान में गिरावट की प्रवृति दर्शाई गई ।

स्टीफन स्नाइडर ने 1976 में पहली बार ग्लोबल वार्मिंग का पूर्वानुमान लगाया । इससे पूर्व वालेस ब्रोकर ने ग्लोबल वार्मिंग शब्द को गढ़ा । ब्रोकर ने 1975 में अपने एक पत्र में ‘ग्लोबल वार्मिंग’ शब्द को इस्तेमाल किया था जिसमें उन्होंने सटीक भविष्यवाणी की थी कि वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड का स्तर बढ़ने से ग्लोबल वार्मिंग (Global Warming) बढ़ेगी।

जल एवं पोषक तत्वों का संचररण करने वाली समुद्री धाराओं की वैश्विक प्रणाली ‘महासागर कन्वेयर बेल्ट’ (Ocean Conveyor Belt) को पहचानने वाले वह पहले वैज्ञानिक थे। ब्रोकर का जन्म 1931 में शिकागो में हुआ था और वह उपनगर ओक पार्क में पले-बढ़े।वह 1959 में कोलंबिया विश्वविद्यालय से जुड़े थे। उन्हें विज्ञान जगत में ‘जलवायु विज्ञान के पितामह’ के रूप में जाना जाता था।ग्लोबल वार्मिंग को ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के प्रभावों के रूप में प्रदर्शित किया जाता है । पृथ्वी की तरफ से अंतरिक्ष को जाने वाली विकिरण को वायुमंडल द्वारा अवशोषित करने से ये परिघटना सामने आती है । वायुमंडल में कुछ निश्चित गैसों में उष्णता को अवशोषित करने की क्षमता पाई जाती है। ये दीर्घकालिक गैसे जलवायु को नकारात्मक रूप से असर पहुंचाती हैं ।

जलवाष्प सर्वाधिक मात्रा में पाई जाने वाली ग्रीनहाउस गैस है , जिससे जलवायु परिवर्तन का संकेत मिलता है । जैसे जैसे पृथ्वी का वायुमंडल गरम होता जाता है , जलवाष्प की मात्रा भी वैसे वैसे बढ़ती जाती है । इसी प्रकार कार्बन डाइऑक्साइड का कई कारकों के चलते उत्सर्जन जैसे श्वसन , ज्वालामुखी विस्फोट और मानव गतिविधियां जैसे वनों की कटाई, भूमि प्रयोग में परिवर्तन , जीवाश्म ईंधन को जलाना आदि से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा मिलता है । औद्योगिक क्रांति के बाद से मानव गतिविधि से वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के संकेद्रण में तीन गुना से अधिक की वृद्धि हुई है ।

मीथेन भी एक प्रमुख ग्रीन हाउस गैस है । यह एक ऐसा हाइड्रोकार्बन गैस है जो प्राकृतिक और मानव दोनों प्रकार की गतिविधियों से उत्पन्न होता है । अपशिष्टों के सड़ने गलने , कृषि कार्य विशेष रुप से धान या चावल की खेती से और घरेलू पशुओं के पाचन के क्रम में होने वाले उत्सर्जन से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ावा देने में मीथेन की भूमिका है।नाइट्रस ऑक्साइड एक अन्य शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है कृषि कार्यों और मृदा संबंधी गतिविधियों खासकर वाणिज्यिक और ऑर्गेनिक उर्वरकों के उपयोग , जीवाश्म ईंधन दहन , नाइट्रिक एसिड का उत्पादन और बायोमास को जलाने से इसका उत्सर्जन होता है । क्लोरोफ्लोरोकार्बन एक ग्रीन हाउस गैस के रूप में ग्लोबल वार्मिंग में अपनी भूमिका निभाता है । यह ऐसे संश्लेषण कारी यौगिक हैं जो पूर्ण रूप से औद्योगिक प्रकृति के होते हैं और इनका विभिन्न क्षेत्रों में इस्तेमाल होता है । क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) एक कार्बनिक यौगिक है जो केवल कार्बन, क्लोरीन, हाइड्रोजन और फ्लोरीन परमाणुओं से बनता है। सीएफसी का इस्तेमाल रेफ्रिजरेंट, प्रणोदक (एयरोसोल अनुप्रयोगों में) और विलायक के तौर पर व्यापक रूप से होता है। वायुयान में अग्नि नियंत्रक प्रणाली में भी सीएफसी का प्रयोग किया जाता है । फोम और पैकेजिंग के सामग्री में भी यह काम में लाया जाता है ।

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