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काशी में श्मशान घाट की चिताओं से खेली जाती है होली, जानिए इस परंपरा का महत्व

नई दिल्ली: हर साल फाल्गुन मास की पूर्णिमा पर होली का महापर्व मनाया जाता है, लेकिन देश-दुनिया के मुकाबले काशी में खेली जाने वाली होली का रंग अलहदा होता है क्योंकि बाबा विश्वनाथ की नगरी में भोले के भक्त फूल, रंग या गुलाल से नहीं बल्कि श्मशान घाट की चिता से होली खेलते हैं. इस साल यह अनूठी होली रंगभरी एकादशी के ठीक दूसरे दिन यानि 04 मार्च 2023 को वाराणसी के मणिकर्णिका घाट पर प्रात:काल 11:30 बजे खेली जाएगी. हालांकि बनारस में होली की शुरुआत फाल्गुन पूर्णिमा से पहले रंगभरी एकादशी से मानी जाती है. देवों के देव महादेव की नगरी काशी में आखिर क्यों जलती चिताओं के बीच खेली जाती है होली और क्या है इसका धार्मिक महत्व, आइए इस परंपरा के बारे में विस्तार से जानते हैं.

मान्यता है कि रंगभरी एकादशी के दिन से जब बाबा भोले नाथ माता गौरा का गौना कराकर वापस लौटते हैं तो उनके बारात में शामिल भक्त और गण उनके साथ फूल और रंग आदि के साथ होली खेलते हैं, लेकिन इस रंगोत्सव से श्मशान घाट किनारे बसने वाले भूत-प्रेत अघोरी वंचित रह जाते हैं, जब यह बात भगवान शिव को पता चलती है तो अगले दिन वे अपने पूरे दल-बल के साथ उनके शोक को दूर करने के लिए श्मशान घाट पहुंचते हैं और जलती चिताओं के बीच उनके साथ चिता की राख से होली खेलते हैं.

मान्यता है कि तब से लेकर आज तक मसाने की इस होली की परंपरा चली आ रही है और जिस श्मशान घाट पर अक्सर लोग अपने परिजन को अंतिम विदाई देते समय गमगीन नजर आते हैं, वहां इस दिन अलग ही नजारा देखने को मिलता है. इस दिन भोले के भक्त धधकती चिताओं के बीच उनकी भक्ति में डूबकर जमकर नाचते-गाते हैं और जिस ठंडी पढ़ी चिता की भस्म को कोई छूना पसंद नहीं करता है, उससे लोग उस दिन खेलते हुए नजर आते हैं.

मोक्ष की नगरी मानी जाने वाली काशी में श्मशान घाट पर खेली जाने वाली होली का बहुत ज्यादा धार्मिक महत्व है. मान्यता है कि यहां पर चिता की राख से होली खेलने पर इंसान का जीवन के अंतिम सत्य कहलाने वाले मृत्यु का भय दूर हो जाता है. मान्यता यह भी है कि मसाने की होली खेलने पर बाबा अपने भक्तों पर असीम कृपा बरसाते हुए उसे पूरे साल भूत-प्रेत और तमाम बाधाओं से बचाए रखते हैं.

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