देश के भगोड़े कैसे बन जाते हैं विदेशी मेहमान, अमृतपाल ने PAK या नेपाल में ली शरण तो क्या होगा
नईदिल्ली : अबू सलेम, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी जैसे कई अपराधी हैं, जुर्म के बाद जिन्होंने दूसरे देश को ठिकाना बना लिया. मेहुल चौकसी के मामले में हाल ही में इंटरपोल यानी इंटरनेशनल पुलिस फोर्स ने रेड कॉर्नर नोटिस हटा दिया. इससे ये भी हो सकता है कि पीएनबी में करोड़ों रुपए की हेराफेरी का ये आरोपी साफ बच निकले. कई बार इसी तरह की छूट दूसरे अपराधियों को भी मिली. जुर्म करके विदेश भागना एक तरह से टाइम-बाय करने जैसा है. इस समय अपराधी अपने बच निकलने के रास्ते खोज लेता है.
इसके लिए काम आती है एक्स्ट्राडिशन ट्रीटी या प्रत्यर्पण संधि. प्रत्यर्पण का मतलब है वापस लौटाना. आसान तरीके से समझें तो अगर हमारे पास दूसरे की कोई चीज गलती से आ जाए, तो मांगने पर हमें उसे लौटाना होता है. यही प्रत्यर्पण है. इंटरनेशनल स्तर पर किसी वस्तु नहीं, बल्कि अपराधियों के मामले में ये संधि की गई.
इसके तहत दो देशों के बीच ये करार होता है कि अगर उनका कोई अपराधी दूसरे देश पहुंच जाए, तो उसे वापस लौटाया जाएगा. जैसे भारत से कोई ब्रिटेन चला जाए, या इसका उलट हो, तो संधि की वजह से दोनों ही देश एक-दूसरे के अपराधी को मेहमान नहीं बनाए रखेंगे.
जितना समझ आ रहा है, ये उतना आसान भी नहीं. ज्यादातर वक्त मसला फंस जाता है. होता ये है कि क्रिमिनल होस्ट देश के कोर्ट में मामले को चुनौती दे देता है. अक्सर अपराधी ये दलील देते हैं कि अपने देश की जेल में जान का खतरा है. या फिर वे वापस लौटने के रास्ते में ही मार दिए जाएंगे. कई बार अपराधी ये तक कह देते हैं कि अपने देश का मौसम उनकी मौजूदा सेहत के लिए सही नहीं. इस तरह से समय बीतता जाता है. अपराधी जहां से जुर्म करके भागा हैं, वहां की सरकारें बदलने का भी इसपर फर्क पड़ता है कि वो प्रत्यर्पण कितने समय बाद हो सकेगा, या फिर हो भी सकेगा, या नहीं.
इसमें उनका सीधा-सीधा फायदा होता है. अगर अपराधी बहुत ज्यादा पैसों का गबन करके भागा हो तो जाहिर है कि उसके पास काफी पैसे होंगे. वो किसी न किसी तरह से मेजबान देश को भरोसा दिला देता है कि वो उनके यहां इनवेस्ट करेगा. इससे भी देश कुछ समय के लिए अपराधी को सेफ ठिकाना दिए रहते हैं.
साल 1993 में मुंबई सीरियल ब्लास्ट मामले के मास्टरमाइंड अबू सलेम के मामले में कुछ अलग ही हुआ. ढाई सौ से ज्यादा मौतों के जिम्मेदार सलेम को फांसी की बजाए आजीवन कारावास सुनाया गया. इसकी वजह यही प्रत्यर्पण संधि थी. ब्लास्ट के बाद सलेम कई देशों से होता हुआ पुर्तगाल पहुंच गया था. उसके साथ भारत की प्रत्यर्पण संधि नहीं थी. ऐसे में समय बीतता गया.
साल 2007 में पुर्तगाल ने शर्त रख दी कि उसके यहां से भेजे गए अपराधी को मौत की सजा नहीं मिलनी चाहिए. इस शर्त पर हामी भरने के बाद ही दोनों देशों के बीच करार हो सका.
भारत की 48 देशों के साथ प्रत्यर्पण संधि है. इसमें अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, सऊदी अरब, और रूस जैसे बड़े देश भी शामिल हैं. वहीं 12 देशों के साथ हमारा एक्स्ट्राडिशन अरेंजमेंट है. इन दोनों में मोटा फर्क वही है, जो लिखित और बोले गए वादे में होता है. अरेंजमेंट में मामला जरा हल्का भी हो सकता है और ये भी हो सकता है कि किसी कानून की आड़ में आगे चलकर देश अपराधी को दूसरे देश को न सौंपे.
पड़ोसी देशों के साथ हमारी एक्स्ट्राडिशन ट्रीटी नहीं है. इसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश, चीन, मालदीव और म्यांमार शामिल हैं. अब सवाल ये आता है कि अपराधी अधिकतर पड़ोसी देशों से होते हुए ही सड़क रास्ते से भागते हैं तो इन देशों से हमारी संधि क्यों नहीं? असल में दो देशों के बीच किसी भी किस्म की संधि के लिए दोनों की सहमति चाहिए होती है. डिप्लोमेटिक ताकतें आपस में बात करके प्रोसेस आगे बढ़ाती हैं. भारत ने कई बार संधि की कोशिश की भी, लेकिन इन देशों ने खास दिलचस्पी नहीं दिखाई.
अक्टूबर 1953 में ही कोइराला सरकार के समय भारत और नेपाल ने प्रत्यर्पण संधि की थी, लेकिन बाद में इसमें रिवीजन की जरूरत महसूस की गई. साल 2006 के बाद से कई बार दोनों देश करार करने के करीब पहुंचे लेकिन किसी न किसी कारण से रुक गए. माना जाता है कि नेपाल की ढिलाई की एक वजह चीन से उसकी गहराती दोस्ती भी है. चीन ने वहां अच्छा-खासा निवेश कर रखा है, और भारत से उसके रिश्ते तनावपूर्ण हैं. ऐसे में चीन को खुश करने के लिए भी नेपाल कई कदम उठाता है. भारत के साथ एक्स्ट्राडिशन ट्रीटी न करना भी इसका एक हिस्सा हो सकता है.
अपराधी फरार हो जाए, और देश को शक हो कि वो फलां देश में छिपा होगा तो वो इंटरपोल की मदद ले सकता है. जहां एक्स्ट्राडिशन ट्रीटी नहीं है, वहां भी ये काम आता है. लगभग सभी देशों ने इंटरपोल की सदस्यता ले रखी है. इंटरपोल यानी इंटरनेशनल क्रिमिनल पुलिस ऑर्गेनाइजेशन दुनिया का सबसे बड़ा पुलिस संगठन है, जिसका हेडक्वार्टर फ्रांस में है. इसका काम है, इंटरनेशनल अपराधियों का पता लगाना और उनकी धरपकड़.
सदस्य देश ही इंटरपोल को किसी अपराध या अपराधी की खोजबीन के लिए कह सकते हैं. इसके लिए इंटरपोल कई तरह के नोटिस जारी करता है. एक है रेड कॉर्नर नोटिस. ये एक तरह का लुकआउट नोटिस है. जैसे भारत के किसी भगोड़े ने किसी देश में शरण ली और उसका पता-ठिकाना नहीं मिल पा रहा हो तो इंटरपोल रेड कॉर्नर नोटिस निकालता है. ये जानकारी सभी सदस्य देशों के पास जाती है और वहां की पुलिस एक्टिव हो जाती है, लेकिन ये अरेस्ट वारंट नहीं होता है.
इंटरपोल कई तरह के नोटिस निकालता है. जैसे एक ब्लू कॉर्नर नोटिस है, जो अपराधी का पता-ठिकाना, या संदिग्ध गतिविधि की जानकारी लाता है. यलो कॉर्नर नोटिस से अपहरण या किसी वजह से लापता लोगों की खोज होती है. आम शख्स अपने लोगों की खोज के लिए सीधे इंटरपोल से संपर्क नहीं कर सकता, बल्कि इसके लिए ब्यूरोक्रेट्स ही काम करते हैं. एक ऑरेज नोटिस भी है, जिसे जारी करने पर पता लगता है कि कोई खास व्यक्ति क्रिमिनल बैकग्राउंड से है, और उससे बचकर रहने की जरूरत है.